एकादशमुखिहनुमतकवच में प्रयुक्त ग्रहशब्द के विविध अर्थ और कवच का प्रभाव

इस कवच के करन्यास एवं हृदयादिन्यास में “अञ्जनीसुतगर्भाय” और किसी प्रति में “अञ्जनीगर्भाय” पाठ मिलता है । जो अर्थ की दृष्टि से उचित नहीं है । कवच के मध्य में “अञ्जनीगर्भसम्भूताय” पाठ आया हूआ है । अत एव मैंने उसे ही न्यास में रखा है । अर्थ है-माता अञ्जनी के गर्भ से समुत्पन्न ।

दिग्बन्धन में सभी दिशाओं के देवताओं के वाहन एवं उनके अस्त्रों से विशिष्ट हनुमान् जी द्वारा उन उन दिशाओं में रक्षा की प्रार्थना की गयी है । किन्तु पूर्व दिशा में इन्द्र के वाहन गज का उल्लेख करते हुए भी वज्र के स्थान पर ब्रह्मास्त्र का पाठ मिलता है । जो सर्वथा अशुद्ध है । वहाँ मैंने वज्र रख दिया है । पराशर संहिता में एक कवच है जिसमें इसी पद्धति का अनुसरण किया गया है । वहाँ भी वज्र ही पाठ है ।।१।।

२- दूसरे मन्त्र में उपलब्ध प्रति में “अग्न्यस्त्रशक्ति” एवं “अस्त्रशक्ति” पाठ मिलता है । किन्तु अग्निदेव का अस्त्र “शक्ति” है । और पराशरसंहिता में भी “शक्ति” ही पाठ है । अत: मैंने यही पाठ रखा है ।।२।।

३-दक्षिणदिशा में यम के वाहन महिष के साथ वाराणसी की प्रति में “दण्डशक्ति” एवं अन्य में “खड्गशक्ति” पाठ प्राप्त होता है । यहाँ मैंने ” दण्डशक्ति” पाठ ही रखा है ।।३।।

४-वरुणदिशा अर्थात् पश्चिमदिशा में वरुण के वाहन के साथ हनुमान जी “प्राणशक्ति” युक्त उपलब्ध प्रतियों में दिखाये गये हैं । वरुण का अस्त्र “पाश” है । इसलिए मैंने “पाश” पाठ रखा है । पराशरसंहिता में भी यही पाठ है ।।४।।

५-ईशानकोण के स्वामी भगवान् शिव हैं । सभी दिशाओं में जब उन उन देवताओं के वाहन और अस्त्र के साथ हनुमान जी का उल्लेख हुआ है तो ईशानकोण में भी यही होना चाहिए था । किन्तु समुपलब्ध दो प्रतियों में वाहन राक्षस और अस्त्र के रूप में पर्वत का उल्लेख मिलता है । इसलिए सुस्पष्ट इस पाठ को तर्क का आधार लेकर काटना उचित नहीं । दूसरी बात यह कि ईशानकोण में हनुमान जी वृषभमुख हैं । इसलिए भी इस कोण में वृषभ को वाहन के रूप में न लेना उपयुक्त ही है ।

६-इसी प्रकार अन्तरिक्ष एवं भूमि की दिशा में रक्षा की पद्धति पराशरसंहिता के अनुसार संशोधित है ।।६।।

७- ब्रह्ममण्डल के स्थान पर प्रतियों में “वज्रमण्डल” पाठ है । यह कोई मण्डल नहीं है । अत: यहाँ ब्रहममण्डल और “पद्म” पाठ रखा गया है । हंसारूढहनुमते पाठ से भी यही सिद्ध होता है कि यहां ब्रहममण्डल ही पाठ होना चाहिए । पराशरसंहिता में भी यही पाठ है ।

मन्त्र में कुछ शब्दों के अर्थ- हंस= हंस शब्द के अनेक अर्थ हैं । हंस पक्षी तो प्रसिद्ध ही है । सूर्य को भी हंस कहते हैं और सूर्य की गति का स्तम्भन गोकर्ण ने किया है-”गोकर्ण: स्तम्भनं चक्रे सूर्यवेगस्य वै तदा ।।-भागवतमाहात्म्य-५/३९,-पद्मपुराण,उत्तरखण्ड,

हंस विशेष अश्व को भी कहा गया हैं । जो बहुत तेज दौड़ता है । युद्ध एवं प्रतियोगिताओं जैसे घुड़दौड़ में उसकी गति इस मन्त्र के प्रयोग से बंध जायेगी । हंस एक विशेष बैल या साँड़ को भी कहते हैं-वृहत्संहिता,-शब्दकल्पद्रुम कोष, उसकी गति भी बंधेगी ।

रामरक्षा के तान्त्रिक प्रयोग की पाण्डुलिपि ( सरस्वती भवन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी )में अश्वगति का बन्धन बतलाया गया है । इसलिए यहां हंस शब्द का केवल अश्व अर्थ लिया जाय–ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि हनुमान् जी के रुद्रयामलोक्त एकमुखी कवच की फलश्रुति में सूर्य और वायु के स्तम्भन का उल्लेख हुआ है–

“आकर्षयति स्वर्वामा: स्तम्भयेद् वायुभास्करौ ।।”

इसलिए हंसगतिबन्ध शब्द का सीधा अर्थ है कि सूर्य की गति का बन्धन । जो सूर्य की गति को बाँध सकता है । उसे अश्व, हंस पक्षी, बैल या साँड़ या किसी की भी गति को रोकने में क्या श्रम होगा । इन सबकी गति का बन्धन तो “दण्डापूपन्याय” से ही सिद्ध है ।

मतिबन्ध-शत्रु या प्रतिस्पर्धी की बुद्धि का बन्धन । तात्पर्य कि हानिकारक जो भी हैं । उनकी बुद्धि का बन्धन अवश्य होगा । बाग्बन्ध–वाणी का बन्धन । दुष्टों की वाणी का बन्धन । विपक्षियों से वाणी द्वारा हानि नहीं हो सकती ।

भगवती बगला के मन्त्र द्वारा शत्रु के मुख, बुद्धिप्रभृति  का बन्धन,स्तम्भन आदि किया जाता है । इस प्रकार के कोई प्रयोग हनुमद्भक्त पर  प्रभाव नहीं डाल सकते; क्योंकि कोई भी देवता मन्त्रादि द्वारा या किसी तरह  से आने पर बंध जायेगा –

” सर्वदेवताबन्ध” .

भेरुण्ड शब्द भयानक का वाचक है ।  भैरुण्डं भयानके, त्रि–.

भगवती काली का एक नाम भेरुण्डा भी है-

महाविद्येश्वरी श्वेता भेरुण्डा कुलसुन्दरी ।।-सहस्नामस्तोत्रम्, शब्दकल्पद्रुम,

भयानक भेंड़िया आदि सभी हिंसक जीवों का वाचक है । प्रतियों में “भैरुण्ड” शब्द प्रूफरीडिंग की गड़बड़ी से है ।

वज्रकुण्डल-वज्र संस्कृत में हीरे का एक नाम है । हनुमान् जी के कुण्डल में हीरा लगा है । विग्रह आगे लिखेंगे ।
वनमाला–आपादलम्बिनी माला वनमाली प्रकीर्तिता।- जो माला पैरों तक लटकती है उसे वनमाला कहते हैं ।
सर्वग्रहोच्चाटनाय-सम्पूर्ण ग्रहों को भगाने वाले हनुमान् जी । वैसे तो ९ ग्रह प्रसिद्ध ही हैं किन्तु कुछ ग्रह बहुत दुष्ट होते हैं । वे प्राण लेकर ही जाते हैं । भगवान् कृष्ण के पास जो पूतना आयी थी । वह बालग्रह थी । बालग्रह कई प्रकार के होते हैं । जैसे-डाकिनी, यातुधानी,कूष्माण्ड, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, विनायक,कोटरा, रेवती,ज्येष्ठा, पूतना और मातृकायें, ये सब बालग्रह हैं ।-भागवतमहापुराण-१०/६/२७-२८,
इनमें डाकिनी का नाम पहले है । यह मन्त्र के बल से यकृत ( लीवर ) को निकालकर खा जाती है । लीवर पर सीधा अटैक डाकिनी करती है-”डाकिनी-कालखण्डं मन्त्रबलेन निष्कास्य भक्षति या सा”–भागवतपुराण-१०/६/२७ की वंशीधरी,
डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्माण्डा येSर्भकग्रहा: ।-१०/६/२७. पर वंशीधर जी लिखते हैं कि अर्भकग्रहा:=बालग्रहा:। जो प्राणियों को छोटे बालक जैसे पकड़ लेते हैं । उन ग्रहों को “बालग्रह” कहते हैं । सुबोधिनीकार बालग्रह से पिशाचों का ग्रहण मानते हैं । उन्माद -ये प्राणियों को उन्मत्त बनाने वाला ग्रह है । और अपस्मार -ये बुद्धिविनाशक ग्रह है । ये दोनों रोगरूप भी हैं । १६ मातृकायें प्रसिद्ध ही हैं ।
भागवत में वृद्धग्रह और बालग्रह इस प्रकार २ग्रहों की चर्चा गोपियों से कहे गये कवच में आयी है–
“वृद्धबालग्रहाश्च ये । सर्वे नश्यन्तु ते –..” –भागवतपुराण-१०/६/२९,
मार्कण्डेय पुराण-९२/२७,  में ९ प्रकार के बालग्रहों का वर्णन आया है–
स्कन्द, स्कन्दापस्मार,शकुनी, रेवती, पूतना, गन्धपूतना, शीतपूर्वा पूतना, सुखमल्लिका पूतना और नवम नैगमेय ।
वृद्धग्रह– अशक्त वृद्ध प्राणियों को जैसे सरलता से पकड़कर वश में कर लिया जाता है । वैसे ही जो लोगों को अनायास पकड़कर वश में कर लेते हैं । उन दुष्ट ग्रहों को वृद्ध ग्रह कहते हैं ।
वस्तुत: ग्रह कई प्रकार के हैं जो हमारे जीवन को दु:खमय बना देते हैं । तान्त्रिकों के द्वारा किये गये प्रयोग को “प्रयोगग्रह” कहा गया है । ये कई तरह का होता है । प्रयोगग्रह जैसे अनेक ग्रहों की चर्चा सुदर्शन सहस्राक्षरी में आयी है ।
सप्तमुखिहनुमत्कवच में “भैरव, यक्ष, ब्रहम, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज, म्लेच्छ और सर्प को भी ग्रह कहा गया है-
“शाकिनीडाकिनीवेतालब्रह्मराक्षसभैरवग्रहयक्षग्रहपिशाचग्रहब्रह्मग्रहक्षत्रियग्रहवैश्यग्रहशूद्रग्रहान्त्यजग्रहम्लेच्छग्रहसर्पग्रहोच्चाटकाय”–अथर्वणरहस्य, सप्तमुखिकवचम्,
यहाँ सर्पग्रह से साँप नहीं लेना है; क्योंकि यह नाम चारों वर्णों के प्राणियों के साथ आया है । सर्प भी मानवों में उन लोगों का नाम है जो पहले क्षत्रिय थे । इनमें शक,यवन, काम्बोज,पारद  पह्लव, कोलिसर्प,माहिषक,दार्व, केरलों के साथ चोल परिगणित हैं ।  किन्तु इनके क्रियाकलापों से खिन्न होकर महाराज सगर ने इन सबका शिर मुण्डित कराकर, वेदाधिकार से बहिष्कृत करके क्षत्रिय समाज से बाहर निकाल दिया । ये तब से केवल दाढ़ी रखते हैं ।–हरिवंशपुराण, अध्याय-२४,
 आज यह लक्षण मुश्लिमों में संघटित होता है ।
ये म्लेच्छों की एक पतित जातिविशेष है । इन जातियों की मृतात्मायें भी सर्पग्रह की श्रेणी में कही गयीं हैं ।
इस प्रकार पूर्वोक्त ब्रह्म से लेकर सर्प पर्यन्त सभी ग्रह,राक्षसग्रह,स्त्रीग्रह, पुरुषग्रह,पावकग्रह,७७ उन्मत्तग्रह, सूर्यादि समस्त ग्रह, बालग्रह, वृद्धग्रह तथा अनेक प्रकार के प्रयोगादिग्रह, इन सभी ग्रहों को हनुमान् जी भगा देते हैं ।
सुदर्शनकवच में ग्रहों का विवरण-
“भूतग्रह,प्रेतग्रह,पिशाचग्रह,दानवग्रह,कृत्रिमग्रह,प्रयोगग्रह,आवेशग्रह,आगतग्रह,अनागतग्रह,ब्रह्मग्रह,रुद्रग्रह,पातालग्रह,निराकारग्रह,आचारअनाचारग्रह,नानाजातिग्रह,भूचरग्रह,खेचरग्रह,वृक्षचरग्रह,पक्षिचरग्रह,गिरिचरग्रह,श्मशानचरग्रह,जलचरग्रह,कूपचरग्रह,देवागारचलग्रह,शून्याचारचरग्रह,स्वप्नग्रह,दिवामनोग्रह,बालग्रह,मूकग्रह,मूर्खग्रह,बधिरग्रह,स्त्रीग्रह,पुरुषग्रह,यक्षग्रह,राक्षसग्रह,किन्नरग्रह,साध्यचरग्रह,सिद्धचरग्रह,कामिनीग्रह,मोहिनीग्रह,पद्मिनीग्रह,यक्षिणीग्रह,पक्षिणीग्रह,सन्ध्याग्रह,मार्गग्रह,कलिंगदेवग्रह,भैरवग्रह,वेतालग्रह,गन्धर्वग्रह,”
–इत्यादि ग्रहपद से परिगणित सभी ग्रहों का पलायन हनुमान् जी के कवचपाठ या स्मरण से होता है ।
 गृह्णन्ति =स्वायत्तं कुर्वन्ति इति ग्रहा:= ब्रह्मराक्षसादय: =जो अपने अधीन कर लेते हैं वे सभी ब्रह्मराक्षसादि ग्रह ही कहे जाते हैं। वैसे जो फल देने के लिए ग्रहण ( पकड़ते ) करते हैं । उन्हें भी ग्रह कहते हैं । -गृह्णन्ति इति ग्रहा: । इनमें नवग्रह भी आयेंगे । इस प्रकार समस्त ग्रहों का उच्चाटन आञ्जनेय करते हैं । शनि आदि ग्रहों का उच्चाटन उनके निष्क्रिय होने के रूप में है ।
शार्दूलबन्ध–शार्दूल उस भीषण पक्षी को कहते हैं जो हाथी को भी पकड़कर ले जाता है । मारुति उसे भी बाँध देते हैं ।
सर्वदेवताबन्ध–  प्रयोगादि द्वारा या स्वेच्छा से जो भी देवता हनुमद्भक्त के समीप आते हैं । वे इस कवच के पाठ से बाँध
दिये जाते हैं ।
मुखबन्ध– सभी का मुख बँधने से वह साधक के विरुद्ध कोई अनर्गल प्रलाप या काटने का कार्य मुख से नहीं कर सकता ।
 
दुष्टसमूहोच्चाटनाय- दोषयुक्त  अर्थात् अधम निकृष्ट प्राणियों के दल को भगाने वाले, जो हमारे साथ दुष्टता करने लगे । वह शत्रु की कोटि में आ जाता है । यहाँ दुष्ट वही हैं जिनके साथ कथादि सत्कर्म के समय संभाषण, दर्शन आदि निषिद्ध है । पापी प्राणी, दूषित आत्मा, औघड़ आदि,
कनककुण्डलाद्याभरणालंकृतभूषणाय – स्वर्णकुण्डल आदि आभूषणों से अलंकृत जो श्रीराम उनके भी भूषण हैं  हनुमान जी,  । यहाँ प्रतियों में “कर्णकुण्डलाद्याभरणालंकृतभूषणाय” “कर्णकुण्डलाद्याभरणलंकृतभूषणाय” ये पाठ मिलते हैं जो अर्थ की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं । कनक  कुण्डलाद्याभरणै: अलङ्कृत: -समास करने पर स्वर्णकुण्डलाभरणालङ्कृत: श्रीरामः  बनेगा । पुन: कनककुण्डलाभरणालङ्कृतस्य श्रीरामस्य भूषण: इति कनक कुण्डलाभरणालङ्कृतभूषणस्तस्मै  ”कनककुण्डलाभरणालङ्कृतभूषणाय” बनेगा । जिसका अर्थ है-”सोने से निर्मित कुण्डल आदि आभूषणों से अलंकृत श्रीराम के भी भूषण हनुमान जी .
कर्णकुण्डल कहने की क्या आवश्यकता? कुण्डल तो कान में ही पहना जाता है । स्वर्ण के स्थान पर “कर्ण” हो जाना कोई आश्चर्य नहीं है । पराशरसंहिता में “कनककुण्डलाभरणालंकृताय” आया है ।
पूर्व मन्त्र में “वज्रकुण्डल-” शब्द से हीरा लगे हुए कुण्डल की चर्चा आयी है । जिसका विग्रह है –वज्र:संश्लिष्ट: यस्मिन् इस विग्रह में बहुब्रहि समास करके वज्रसंश्लिष्ट: बना पुन: वज्रसंश्लिष्टश्चासौ  कुण्डलम् इति “वज्रकुण्डलम्” -मध्यमपदलोपी समास हुआ । हीरा लगा  हो  जिस कुण्डल में , उसे वज्रकुण्डल कहते हैं । ऐसा हीरायुक्त कुण्डल मारुति पहनते हैं। इसलिए पूर्वमन्त्र में हीरे का कुण्डल और यहाँ सोने का कुण्डल -इस प्रकार विरोधाभास की शंका नहीं करनी चाहिए ।
 
किरीटविल्ववनमालाविभूषिताय-मुकुट और विल्व की वनमाला से विभूषित मारुति । तीन पत्तों में जो डण्डी होती है । उसमें सूत्र गूँथकर विल्व की वनमाला बनती है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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