गुरु के भेद

शास्त्रों में गुरु के १२ भेद बतलाये गए हैं

१-अध्यापक, २-पिता, ३-ज्येष्ठभाई, ४-राजा, ५-मामा, ६-श्वसुर, ७-रक्षक, ८-नाना, ९-पितामह, १०-बन्धु, ११-अपने से बड़ा, १२- चाचा —

उपाध्यायः पिता ज्येष्ठभ्राता चैव महीपतिः । मातुलः श्वसुरस्त्राता मातामहपितामहौ ।।

बन्धुर्ज्येष्ठः पितृव्यश्च पुंस्येते गुरवः स्मृताः ।।

स्त्री वर्ग में भी कौन २ गुरु हैं–इसकी भी परिगणना की गयी है –नानी ,मामी ,मौसी,सास, दादी ,अपने से बड़ी जो भी हो ,तथा जो पालन करने वाली है । देखें –

मातामही मातुलानी तथा मातुश्च सोदरा ।
श्वश्रूः पितामही ज्येष्ठा धात्री च गुरवः स्त्रीषु ।।

किन्तु जब प्राणी के ह्रदय में मुमुक्षा जागृत होती है तब उसे कहाँ जाना चाहिए इसका निर्देश भगवती श्रुति स्वयं कर रही है –“तद्विज्ञानार्थं स गुरु मेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।”

श्रोत्रिय =शास्त्रवेत्ता ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास समिधा (एक बित्ते की कनिष्ठिका जितनी मोटी ३लकडियाँ) लेकर जाय ,इससे अपनी दीनता भी प्रकट होगी और राजा गुरु तथा देवता के पास रिक्त हस्त नहीं जाना चाहिए –“रिक्तहस्तेन नोपेयाद् राजानं दैवतं गुरुम् ।”—इस शास्त्र आज्ञा का पालन भी । ऐसे गुरुजन संसार से पूर्ण विरक्त आत्मचिंतननिष्ठ होते हैं । तपश्चर्या और आत्मबल से परिपूर्ण इनका दर्शन भगवत्कृपा से ही संभव है —

“लभ्यतेपि तत्कृपयैव”—नारदभक्तिसूत्र ,

ये ३ प्रकार के होते हैं । जो विभाग इनकी क्रिया शैली के आधार पर किया गया है —

१-स्पर्शदीक्षाप्रद गुरु —स्पर्शमात्र से जो गुरुजन दीक्षा देते है वे इस कोटि में आते हैं इनके स्पर्श मात्र से कुण्डलिनी महाशक्ति का जागरण हो जाता है । ये अपने स्पर्श से ही शिष्य का पोषण करने में समर्थ होते हैं । उदाहरण के रूप में आप देख सकते हैं की पक्षी अपने बच्चों को चारा चुन्गाता है पर उनका संवर्धन अपने पंखों के द्वारा बार बार उन्हें पूर्ण स्पर्श पूर्वक ढककर करता है । केवल आहार से पक्षियों के बच्चे नहीं बढते बल्कि माँ के स्पर्श से उनकी वृद्धि होती है । इसी श्रेणी के प्रथम गुरुजन हैं ।

२-दृग्दीक्षाप्रद गुरु —दृष्टि मात्र से जो जीवों का कल्याण करने में समर्थ होते है वे गुरुजन इस श्रेणी में आते हैं । इसके दृष्टांत के रूप में हम मछली को प्रस्तुत करते हैं । मछली को दुग्ध नहीं होता इसे प्रायः सभी लोग जानते हैं फिर वह अपने बच्चों का पालन कैसे करती है ? सुनें– जब मछली जल में तैरती है तब छुधापीड़ित बच्चे उसकी आँखों के समक्ष आते हैं । मत्स्य की दृष्टि उन पर पड़ती है इसी से वे पुष्ट होते रहते हैं । इस प्रकार के गुरुजन दुर्लभ होते हैं ये किसी भाग्यशाली को ही प्राप्त होते हैं ।

३-वैधदीक्षाप्रद गुरु —ये गुरुजन उस कोटि के हैं जो अपने ध्यान मात्र से शिष्य का कल्याण करने में सक्षम होते हैं । ये ध्यान मात्र से किसी की महाशक्ति कुण्डलिनी को जगा सकते हैं तथा भगवान की अविरल भक्ति प्राप्त कराने में भी समर्थ होते है इनसे एक बार किसी सौभाग्य शाली को जुड़ने का शुभ अवसर प्राप्त हो जाय तो उसे माया अपने मोह पाश में नहीं बाँध सकती है । भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास जी में ये तीनों लक्षण थे । तीर्थ, देवता और गुरु, विप्र तथा भगवान के पावन नाम में स्वल्प पुण्य वालों का विश्वास नहीं होता है —

तीर्थे देवे गुरौ विप्रे ईश नाम्नि च पार्थिवे ।
स्वल्प पुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते ।।

गुरु को ब्रह्मा इसलिए कहा गया क्योंकि वे हमारे ह्रदय में विमल ज्ञान की सृष्टि करते है – गृ धातु से गुरु शब्द की निष्पत्ति होती है –गृणाति =उपदिशति ब्रह्म ज्ञानमिति गुरुः =जो भगवद् विषयक ज्ञान का उपदेश करें वे गुरु है ,अतः गुरु ब्रह्मा है नूतन ज्ञान की सृष्टि करने कारण । बार बार सचेत करते हुए उस ज्ञान का संरक्षण करते हैं इसलिए विष्णु हैं । और स्वप्रदत्त ज्ञान के द्वारा कुसंस्कारों तथा अनिष्टकारी प्रवृत्तियों का विनाश करते हैं इसलिय संहारकारी शिव हैं ।

इन्हीं कारणों से उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा परब्रह्म कहा गया है —

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

हाँ एक बात और जो मैंने इन ३ प्रकार की दीक्षाओं का निरूपण किया है ,ये कुलार्णव तंत्र में भगवान शिवजी के द्वारा भगवती पार्वती को उपदिष्ट हुई हैं और भागवत की श्रीधरी टीका पर जो वंशीधरी व्याख्या है उसमें १०/२/१८ में आप देख सकते हैं ।

जय गुरुवर

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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