न तस्य प्रतिमाSस्ति का रहस्यार्थ एवं वेदों में मूर्तिपूजा का सप्रमाणविवेचन
न तस्य प्रतिमाSस्ति का रहस्यार्थ एवं वेदों में मूर्तिपूजा का सप्रमाणविवेचन-आचार्य सियारामदास नैयायिक
न तस्य प्रतिमाSस्ति का रहस्यार्थ एवं वेदों में मूर्तिपूजा का सप्रमाणविवेचन-आचार्य सियारामदास नैयायिक
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में मूर्तिपूजा का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-
“अर्चत प्रार्चत प्रियमेधासो अर्चत । अर्चन्तु पुत्रका उत पुरं न धृष्ण्वर्चत ।।-ऋग्वेद-८/६९/८,
इस मन्त्र में ४ वार अर्च धातु का प्रयोग हुआ है । जिसका अर्थ है “पूजा करना” -”अर्च पूजायाम्”-पाणिनीय
धातुपाठ
अर्थ- हे ( प्रियमेधासो ) बुद्धिमान् पुत्रों ! तुम लोग इन्द्र की ( अर्चत ) पूजा करो । ( प्रार्चत ) पूर्ण मनोयोग से पूजा करो । इस प्रकार अनेक वार इन्द्र की पूजा पर ज़ोर डाला गया है ।
मूर्ति के विना इन्द्र की पूजा तो हो नहीं सकती । इसलिए पूजा की उपपत्ति हेतु इन्द्र की मूर्ति आक्षेपलभ्य होगी ।
जैसे मोटा देवदत्त दिन में नहीं खाता है ।-यह सुनकर बुद्धिमान् विचार करता है कि मोटापा विना खाये तो हो नहीं सकता और यह दिन को खाता भी नहीं है । इससे लगता है कि यह रात्रि को ही खाता है-
“देवदत्त: रात्रिभोजी दिवाSभुंजानत्वे सति पीनत्वात् रोजाकालिक अलीमुहम्मदवत् ।।”
जैसे यहाँ मोटापे से रात्रिभोजन की कल्पना की गयी वैसे ही मूर्ति के विना पूजा की असम्भावना से मूर्ति का अनुमान किया गया । अत: मूर्तिपूजा वेदों से सिद्ध है ।
एक बहुत सुस्पष्ट प्रमाण है मूर्ति विक्रय को लेकर-
“क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभि: । यदा वृत्राणि जंघनदथैनं मे पुनर्ददत् ।।”
-ऋग्वेद-४/२४/१०,
अर्थ-हमारे इस इन्द्र को कौन १० गायों से ख़रीद रहा है ? ( ध्यातव्य है कि प्राचीनकाल में गायों द्वारा ख़रीदारी होती थी । जैसे-राजर्षि अम्बरीष ने महर्षि ऋचीक के पुत्र “शुन:शेप” को १लाख गौवों से ख़रीदने की बात कर रहे हैं–
“गवां शतसहस्रेण विक्रीणीषे सुतं यदि ।।-वाल्मीकिरामायण, बा. का.-६१/१३, )
जब पूरा मूल्य नहीं लगा तब विक्रेता कह रहा है–
अच्छा ले जावो जब तुम्हारा वृत्रवधरूपी कार्य सम्पन्न हो जाय तब इसे लौटा देना ।
इन्द्र देवता का हम लोगों की भाँति कोई प्रत्यक्ष स्वरूप तो उपलब्ध नहीं हैं जिसका विक्रयण हो सके । अत: जिसे
मन्त्र में बेचने की बात कही जा रही है वह निश्चित ही इन्द्र की मूर्ति है । अमूर्त इन्द्र देवता में क्रयणकर्मत्व बाधित होकर उनके मूर्ति की कल्पना=अनुमान, करा रहा है ।
यदि जाकिर नाइक जैसे कठमुल्ले कहें कि हमें तो वेदों में प्रतिमा शब्द बताइये तब विश्वास करेंगे । तो उनके लिए यह मन्त्र प्रस्तुत है-
“क्वासीत् प्रमा “प्रतिमा” किं निदानमाज्यं परिधि: क आसीत् ।।”
-ऋग्वेद-१०/१३०/३,
यहाँ साक्षात् “प्रतिमा” शब्द दिख रहा है ना ।
भगवान् जगन्नाथ की दारुमयी मूर्ति का सुस्पष्ट उल्लेख ऋग्वेद में है-
“अदो यद्दारु प्लवते सिन्धो: पारे अपूरुषम् ।”
-अ.-१०/१५५/३,
“वह दूर समुद्र के किनारे दारुमय जगन्नाथ भगवान् का शरीर जल के ऊपर है ।”
यहां काष्ठमयी प्रतिमा का प्रमाण नाइक की नाक में नकेल डाल रहा है ।
“न तस्य प्रतिमाSस्ति” का विवेचन
प्रतिमा का अर्थ उपमा, उपमान और सदृश भी होता है
“प्रतिमानं प्रतिबिम्बं प्रतिमा प्रतियातना । प्रतिच्छाया प्रतिकृतिरर्चा पुंसि प्रतिनिधि: ..
उपमोपमानं स्यात् ।।”-अमरकोष-२/१०/३५-३६,
यहाँ प्रतिमा प्रतिमान आदि शब्द उपमा उपमान अर्थ में प्रस्तुत किये गये हैं । पूर्ववर्ती मनीषी उपमा उपमान का सम्बन्ध प्रतिमा आदि शब्दों से करके अर्थ करते रहे हैं । जिसका संकेत सुप्रसिद्ध टीकाकार भानुजी दीक्षित ने रामाश्रमी व्याख्या में किया है ।
इसीलिए वाल्मीकि रामायण में अप्रतिमा शब्द के प्रतिमा का अर्थ उपमा लेकर कहा गया-
“कीर्तिं चाSप्रतिमां लोके प्रापस्यसे पुरुषर्षभ ।–बा,का,-३८/७,
तुम इस लोक में अनुपम कीर्ति प्राप्त करोगे ।। यहाँ अप्रतिमा=अनुपम अर्थ सुस्पष्ट है ।
रूपेणाप्रतिमा भुवि ।-वाल्मीकिरामायण,बा,का,-३२/१४,-इस भूतल पर उनके रूप-सौन्दर्य की कहीं भी तुलना नहीं थी ।
सादृश्य अर्थ में प्रतिमा शब्द-
सा सुशीला वपु:श्लाघ्या रूपेणाप्रतिमा भुवि ।।-वाल्मीकिरामायण,अरण्यकाण्ड-३४/२०,-उसके रूप की समानता करने वाली भूमण्डल में दूसरी कोई स्त्री नहीं है ।-सीता के विषय में शूर्पणखा का वचन
–गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित संस्करण
यहाँ पर जानकी जी तथा उनसे सुदूर पूर्ववर्ती कन्याओं के रूप की समानता का निषेध “अप्रतिमा” शब्द से किया जा रहा है । यहाँ प्रतिमा अर्थात् मूर्ति का जैसे निषेध नहीं बल्कि समानता का निषेध किया जा रहा है । ठीक वैसे ही वेद के उस वचन में भी मूर्ति का निषेध नहीं प्रत्युत समानता का निषेध किया गया है ।
इसी तरह “न तस्य प्रतिमाSस्ति यस्य नाम महद्यश:.”-यजुर्वेद-३२/३,में प्रतिमा का सदृश अर्थ लेकर उस परमात्मा के समान दूसरा कोई नहीं है -ऐसा कहा गया । इसी को उपनिषद् में स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं-
” न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।”-श्वेताश्वतरोपनिषद्-६/८
उस परमात्मा के समान और अधिक कोई नहीं दिखायी देता । इस औपनिषद वचन से परमात्मा के सदृश दूसरे का निषेध किया गया है । ( यही अर्थ ” न तस्य प्रतिमाSस्ति” इस वेदवाक्य का है । ) इसे ही पूज्यपाद गोस्वामी जी इन शब्दों में व्यक्त कर रहे हैं-
“निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम कहै । जिमि कोटि शत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ।।”
-रामचरितमानस-उत्तरकाण्ड-९२ दोहे के अन्तर्गत छन्द,
निष्कर्ष-वेदवचनों से मूर्तिपूजा में प्रमाण को प्रस्तुत करते हुए “न तस्य प्रतिमा” वाक्य का “परमात्मा की समानता के निषेध में तात्पर्य दिखलाकर – सटीक अर्थ प्रस्तुत करके विपक्षियों का मानमर्दन कर दिया गया ।
इसलिए अब ज़ाकिर की नाक में नकेल डाल दी गयी है । कठमुल्ले में हिम्मत हो तो चर्चा के लिए आगे आये ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar