पुरुषसूक्त,मन्त्र-११की विशद हिन्दी व्याख्य़ा

पुरुषसूक्त,मन्त्र-११की विशद हिन्दी व्याख्य़ा

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।। 11।। 
         

इसके पूर्ववर्ती मन्त्रमें भगवान् ब्रह्मा के सत्त्वादिप्रधान मुख आदि अंगों से कौन कौन उत्पन्न हुए—इस जिज्ञासा का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र से दे रहे हैं –ब्राह्मणोऽस्य—इत्यादि ।

अस्य = इन लोकस्रष्टा भगवान् ब्रह्मा का, मुखं = मुख, ब्राह्मणः = ब्राह्मणत्वजातिविशिष्ट शम दमादि लक्षणसम्पन्न ब्राह्मण,आसीत् = हुआ, गीता । —

“सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्” –गीता ।

                अतः सत्त्वप्रधान मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई ।

समग्र समाज के सभी वेदोदित संस्कारों से संस्कृत करके उन्हे अपने अपने कर्तव्यों के योग्य बनाने में इन विप्रों का बड़ा योगदान रहा । आज किसी भी कारण से इनकी अवमानना का फल समाज के विकृत रूप में दिख रहा है। अभी भी इन्हे उचित सम्मान न मिला तो दिख रहे संस्कार भी लुप्त हो जायेंगे । इन्ही की उग्र तपश्चर्या और निर्लोभता के कारण आज हमारा धर्म बचा हुआ है ।

बाहू = ब्रह्मा जी की दोनो भुजाओं से, राजन्यः =प्रजारक्षक वीर क्षत्रियों की उत्पत्ति,कृतः = हुई, क्षत्रिय का यही पुनीत कर्तव्य है कि दुष्टों का दलन करके प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करे —निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत् । इनके भुजदण्ड बड़े प्रचण्ड होते हैं । ये धर्म की रक्षा के लिए जंगल में रहे और घास की रोटी खाकर भारतवर्ष और सनातन धर्म की रक्षा के लिए अपने निजी सुखों को बलिवेदी पर चढ़ा दिये । जिनमें महाराणा प्रताप सिंह आदि अविस्मरणीय हैं। 

अस्य = इन ब्रह्मा जी का ,यद् =जो ,ऊरू = दोनों जंघा हैं, तद् =उनसे, वैश्यः =बणिक् =बनिया लोग हुए जिनमें भामाशाह का नाम बड़े आदर से लिया जाता है उस महापुरुष ने देशसेवा हेतु अपना सर्वस्व प्रताप सिंह को निछावर कर दिया । आज भी इस समाज के लोग अनेक संस्थाओं द्वारा जनता जनार्दन की सेवा कर रहे हैं। इन्ही ब्रह्मा जी के , पद्भ्यां = दोनो चरणों से ,शूद्र, अजायत = उत्पन्न हुए । तीनों वर्णों की सेवा का दायित्व इनके ऊपर था ।

सेवा धर्म बड़ा कठिन है योगियों के लिए भी दुष्कर है —सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः । सेवा की भावना में अहंकार बड़ा बाधक है । तीनों वर्णों की सेवा जो करते थे उन शूद्रों के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो गया । हमने उनकी कितनी उपेक्षा कीऔर अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली। आज वही समाज जो अति मनोयोग से हमारा सहयोगी था हमसे क्यों कटता चला गया –इस पर हमें गम्भीर चिन्तन करना होगा ।

कबीरसाहब के गुरु श्रीस्वामी रामानन्दाचार्य जी का अन्तिम उपदेश था कि—- ” समाज का एक मूर्तिमान् शरीर है वर्ण व्यवस्था। जिनमें पादज अन्त्यज हैं शूद्रादि । भाई! पैरों को काटकर समाज को पंगु मत बनाना –प्रसंगपारिजात ।

दान देना, दूसरों की सहायता करना परमात्मचिन्तन जैसे कर्मों में सभी का अधिकार है । अपने प्रतिकूल जो लगे उसका व्यवहार हमें दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए —आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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