पुरुषसूक्त,मन्त्र-१३ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त,मन्त्र-१३ की विशद हिन्दी व्याख्या–आचार्य सियारामदास नैयायिक

 

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णोर्द्योः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकानकल्पयन्।।13।।

इसके पूर्व मन्त्र में हम सभी के जीवनाधार चन्द्र सूर्यादि की उत्पत्ति का कथन किया गया । अब इस मन्त्रमें यह बतलाया जायेगा कि हम सभी को अपने अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल भोगने के लिये कितने लोक हैं और उनकी उत्पत्ति चतुरानन ब्रह्मा जी के किन किन अंगों से हुई है —-

नाभ्या =उन ब्रह्मा जी के नाभि से ,अन्तरिक्षं = भूमण्डल से लेकर सूर्यमण्डल के मध्य भाग में विराजमान अन्तरिक्षलोक, आसीद् = उत्पन्न हुआ । शीर्ष्णो =और उनके शिर से , द्यौः = देवलोक, समवर्तत = सम्यक्तया उत्पन्न हुआ ।

यहां द्यौः शब्द न केवल स्वर्ग लोक का वाचक है अपितु ब्रह्मा जी के सत्यलोक पर्यन्त सभी भुवःमहः जन तपः आदि लोकों का भी उपलक्षक (वाचक) है। अर्थात भुवर्लोक महर्लोक जनलोक तपलोक तथा सत्यलोक ये सभी ब्रह्माजी के शिर से समुत्पन्न हुए ।

पद्भ्यां = तथा ब्रह्मा जी के चरणों से भूमिः = भुलोक,उत्पन्न हुआ । यहां भूमिः शब्द भूलोक के साथ नीचे के तल,वितल,सुतल,महातल, तलातल,रसातल एवं पाताल का भी वाचक है उपलक्षण होने से,अर्थात् ये सभी लोक चतुरानन के चरणों से उत्पन्न हूए। पूर्वोक्त इन सभी लोकों में नाना प्रकार के कर्मफल को भोगने के लिए जीव जाता है ।

इसकी चर्चा भागवत के पञ्चम स्कन्ध के 16वें अध्याय से लेकर 26वें अध्याय तक की गयी है । श्रोत्रात् =इसी प्रकर ब्रह्मा जी के कान से, दिशः = पूर्व पश्चिम आदि दिशायें, यहां दिशः शब्द से उन उन दिशाओं में विद्यमान पृथिवी के सात द्वीपों को भी समझना चाहिए ;क्योंकि इन द्वीपों में भी विभिन्न कर्मों के फल का भोग जीव करते हैं । हम सब जम्बूद्वीप में हैं ।

तथा = जैसे पूर्व कल्प में सभी लोक थे ,ठीक उसी तरह, लोकान् = समस्त 14 लोकों को, अकल्पयन् = ब्रह्मा जी के इन्द्रियरूपी देवों ने रचा ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *