पुरुषसूक्त,मन्त्र-४ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त,मन्त्र-४ की विशद हिन्दी व्याख्या

भगवान् के द्वारा जंगम और स््थावर की सृष्टि–आचार्य सियारामदास नैयायिक

त्रिपादूर्ध्व उदैत् पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः । ततो विष्वड़् व्यक्रामत् साशनानशने अभि ।।४।।

मन्त्र का विषय–भगवान् के द्वारा जंगम और स्थावर सृष्टि का वर्णन

भगवान् के ४ स्वरूप ( चतुर्व्यूह ) इसके पूर्व मन्त्र में भी त्रिपाद् शब्द आया है और इस मन्त्र में भी । यहां हमें यह ध्यान रखना है कि पूर्व मन्त्र में भगवान् का वैभव बतलाया गया है । जिसमें त्रिपाद् शब्द त्रिपाद विभूति का वाचक है जिसे वैकुण्ठ, साकेत, गोलोकादि शब्दों से अभिहित किया जा चुका है ।

इस मन्त्र में आया त्रिपाद् शब्द भगवान् के वासुदेव,संकर्षण, प्रद्युम्न –इन तीन पादों का अभिधायक है । माण्डूक्यादि उपनिषदों में श्रीहरि के चार पादों का उल्लेख है –”सोऽयमात्मा चतुष्पात् “–मा०-२

यहां भगवान् के चार स्वरूपों का संकेत है –वासुदेव, सड़्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । इन्ही को चतुर्व्यूह भी कहते हैं । भगवान् के ५ स्वरूपों का वर्णन शास्त्रों में आया है -पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार । पर स्वरूप श्रीराम कृष्ण नारायण शिव आदि नामों से जाना जाता है । व्यूह बतला चुके हैं । विभव में मत्स्य कूर्मादि अवतार आते हैं । अर्चा स्वरूप वह है जो मन्दिरों में विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा होने के पश्चात् पूजा जाता है ।

उसे अनभिज्ञ मूर्ति भी कहते हैं । और हम उसे तब तक मूर्ति कहते हैं जबतक उसमें प्राण प्रतिष्ठा नही होती । यही भगवान् का ५ वां स्वरूप अर्चावतार है जो हम सभी को सुलभ है । परतत्त्व ही साक्षात् वासुदेव रूप माना जाता है ।

अब मन्त्रार्थ पर आयें । त्रिपाद् = वासुदेव संकर्षण और प्रद्युम्न इन तीन स्वरूपों वाले, पुरुषः = भगवान् अर्थात् परतत्त्व परमात्मा , ऊर्ध्वं = अनन्तानन्त जीवयुक्त तथा अनन्तानन्त योजन विस्तार वाले प्रकृतिमण्डल से ऊपर अपने सच्चिदानन्दमय धाम में, उदैत् = मुक्त जीवों को प्राप्त होते हैं अर्थात् जीव संसारबन्धन से छूटने पर उनके धाम में निवास करता है। धातुओं की अनेकार्थता को ध्यान मे रखकर यह अर्थ किया गया है ।

पादोऽस्येहा–पर ध्यान दें । अस्य = इन परब्रह्म का, पादः = एक भाग =एक स्वरूप, जिसका नाम अनिरुद्ध है वह, इह = इस प्रकृतिमण्डल में, पुनः = जब जब सृष्टि करना होता है तब तब बार बार, अभवत् = देव मानवादि तथा भूलोकादि रूपों में प्रकट होने के लिए –”एकोऽहं बहु स्याम्” =मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाऊं – इस प्रकार सड़्कल्प के लिए प्रवृत्त होता है और उसके सड़्कल्प मात्र से दृश्यमान यह अनन्तानन्त सृष्टि बनकर खड़ी हो जाती है ।

इस तथ्य का सड़्केत संहितादि ग्रन्थों में सुस्पष्ट मिलता है–

“अनिरद्धमभावयत् । तस्माद् ब्रह्मा समुत्पन्नो जगत् स्रष्टुं चराचरम् ।।”-वैकुण्ठसंहिता ।

अतः जिनके नाभिकमल से ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं वे नारायण भगवान् अनिरुद्ध रूप हैं ।

अब कैसी सृष्टि करते हैं– इसे बतला रहे हैं ।—ततो = महाप्रलय के बाद, व्यक्रामत् = सड़्कल्पात्मक क्रिया किया ।

किस उद्देश्य से ?

सुनें — साशनानशने = अशनेन सह वर्तते इति साशनम् = प्रत्यक्ष भोजन ग्रहण करने वाले तथा चलनेवाले जीव =जड़्गम, और अशनमस्य नास्तीति अनशनम् = प्रत्यक्षरूप से जिनका भोजन नही दिखता ऐसे वृक्ष पर्वत आदि स्थावर, वस्तुओं को रचने के उद्देश्य से, अभि = बार बार, विष्वक् = सभी दिशाओं में अर्थात् सब ओर अनन्तानन्त चराचर ब्रह्माण्ड की रचना के लिए सड़्कल्प किया । और फिर अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड तैयार हो गये ।

भगवान् सत्यसड़्कल्प हैं–सत्यसड़्कल्पः—छान्दोग्योपनिषद्-8/1/5. 7/1/3.

हम सत्यसड़्कल्प न होने के कारण ही अपने कार्य में असफल होते हैं ।

ध्यातव्य है कि यह पुरुषसूक्त परमात्मा से सम्बद्ध है अतः जीवपरक अर्थ यहां –”सोऽयमात्मा चतुष्पात्” का नही दिखाया गया ।

श्रीरामतापिनीयोपनिषद् में ओम् शब्द के अ अक्षर का वाच्य लक्ष्मण जी को बतलाकर उन्हे विश्वभावनः शब्द से जगत्स्रष्टा कहा गया है –विश्वं भावयति =उत्पादयति इति विश्वभावनः – जो संसार को उत्पन्न करता है । इधर नारदपाञ्चरात्र में इन्हे क्षीरसागरस्वामी अनिरुद्ध भी कहा है —क्षीराब्धीशश्च लक्ष्मणः । इसी प्रकार आगे शत्रुघ्न,भरत एवं परब्रह्म श्रीराम की चर्चा है—

अर्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ।–श्रीरामता०उ०-तृतीय कण्डिका ।

अतः यहां परमात्मा चार स्वरूपों में अभिव्यक्त है ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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