पुरुषसूक्त-मन्त्र १० की विशद हिन्दी व्याख्या
यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ।।१०।।
पूर्व मन्त्र में आत्मनिवेदनभक्तिरूप मानस नरमेध यज्ञ का वर्णन किया गया जिसे साध्यादि देवों और अनेक ऋषियों ने भवबन्धन से छूटने के लिए किया । उस भक्तिरूप यज्ञको सभी मानव संसारसागर से पार उतरने के लिए कर सकते हैं —इस तथ्य को बतलाने के लिए यहां चारों वर्णों की उत्पत्ति के विषय में प्रश्न प्रस्तुत किया जा रहा है ।
पर सभी मनुष्यों की उत्पत्ति यदि चतुरानन के शरीर से मानी जाय तो अनेक वर्ण हो ही नही सकते जैसे एक तरह की मिट्टी से बने सभी घड़ों में कोई भिन्नता नही होती वैसे ही ब्रह्मा जी से उत्पन्न मानवों का एक ही वर्ण होगा अनेक ब्राह्मण क्षत्रिय आदि नही ।
जबकि ब्राह्मणादि चारों वर्णों की उत्पत्ति गुण और कर्म के आधार पर की गयी है—
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः”–गीता ।
ज्ञानप्रधान ब्राह्मण सत्त्वगुणी ,बलप्रधान क्षत्रिय रजोगुणी,अर्थप्रधान वैश्य तमोगुणी तथा तीनो गुणों की समता वाला सेवाधर्मप्रधान शूद्र होता है—
“सद्गुणो ब्राह्मणो वर्णःक्षत्रियस्तु रजोगुणः ।
तमोगुणस्तथा वैश्यो गुणसाम्यात्तु शूद्रता ।।”
अतः सत्त्वादि गुणप्रधान चारों वर्णों की उत्पत्ति के कारणभूत ब्रह्मा जी के सत्त्वादि प्रधान अंगों की विभागविषयक जिज्ञासा की जा रही है —यत्—इसप्रथम पंक्ति से ।
ब्रह्मा जी के जिन इन्द्रियरूपी देवों ने,यत् = जो,पुरुषं = ब्रह्मारूपी पुरुष को, व्यदधुः = आत्मनिवेदनभक्तिरूप मानस नरमेध यज्ञ में उपयोग किया ।उन्होंने उन ब्रह्मा जी को ,कतिधा =कितने प्रकार से, व्यकल्पयन् = विभक्त किया ।
यहा प्रश्न तो कर दिया गया पर इसका उत्तर नही दिया गया। अतः द्वितीय पंक्ति में ब्रह्मा जी के मुख,भुजा,जंघा तथा पैरों से कौन कौन उत्पन्न हुए–यह प्रश्न ही नही बन सकता । अत एव ब्रह्मा जी के शरीर का मुख,बाहु,जंघा तथा पैर –ये चार विभाग हुए —ऐसे उत्तर की कल्पना कर लेनी चाहिए। अर्थात् मुखादि विभाग का कथन —मुखं किमस्यासीत्= इत्यादि प्रश्नों की अनुपपत्ति के कारण आक्षेपलभ्य है–
“येन विना यदनुपपन्नं तत्तेनाक्षिप्यते।”
अब द्वितीय पंक्ति पर आयें । अस्य = इन ब्रह्मा जी का ,मुखं =मुख, किं = किस वर्ण का उत्पादक, आसीत् = हुआ। शरीर में शिर का स्थान सर्वोत्तम है । अत एव महाराज बलि ने अपने द्वारा दिये 3पग भूमि रूपी दान के पूर्ति हेतु शरीर का सर्वोत्तम अंग अपना शिर ही दान में दे दिया। ऐसे सत्त्वगुणप्रधान अंग मुख से कौन उत्पन्न हुआ । बाहू = भुजाओं से, किं = कौन वर्ण उत्पन्न हुआ। ऊरू = जंघों से ,किं = कौन उत्पन्न हुआ। पादा = पैरों से, कौन उत्पन्न हुआ, उच्येते =कहा जाता है ।
यहां मुखं इत्यादि शब्दों में जो प्रथमा विभक्ति दिखायी देती है वह पञ्चमी विभक्ति ही—
सुपां सुलुक्–पाणिनिसूत्र-7/1/39.
से एक वचन सु आदि आदि रूपों में हुई है ।
दूसरी बात यह कि यदि यहां मुख क्या है–से लेकर पैर क्या कहा जाता है—यहां तक इसी अर्थ में प्रश्न को मानें तो —षैर क्या कहा जाता है –इस प्रश्न का –पैर से शूद्र उत्पन्न हुआ – उत्तर दिया जाय तो उसे उन्मत्त प्रलाप के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । अतः इस मन्त्र में ब्रह्मा जी के मुखादि अंगों से कौन कौन उत्पन्न हुआ –यही प्रश्न अभिमत है ।
अत एव आगे आने वाले 12वें एवं 13वें मन्त्र में ब्रह्मा जी के नेत्रादि अंगों से स्पष्टतया सूर्य आदि की
उत्पत्ति बताई गयी है। इसलिए यहां भी मुख, भुजायें,जंघा तथा पैर से चारों वर्णों की उत्पत्ति का प्रश्न
किया गया है ।
इसलिए मानस नरमेध अर्थात् आत्मनिवेदन भक्ति में मानव मात्र का अधिकार है। भक्त जन इसी को शरणागति कहते हैं । जिसमें मानव क्या जीवमात्र का अधिकार है । अत एव गजेन्द्र ने भगवान् की शरणागति की तो मोहरूपी ग्राह से मुक्त होकर हरि धाम पहंच गया जो शरीरप्राप्ति का परम लक्ष्य है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar