पुरुषसूक्त, मन्त्र १४ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त, मन्त्र १४ की विशद हिन्दी व्याख्या

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः।।१४।।

पूर्व मन्त्र में हम सभी जीवों को अपने अपने कर्मफलों से प्राप्त होने वाले विभिन्न लोक चतुरानन ब्रह्मा जी के किन किन अंगों से उत्पन्नहुए –यह बतलाया गया । किन्तु जीवमात्रके प्राप्य भगवान् ही हैं और इसका सर्वश्रेष्ठ साधन आत्मनिवेदनात्मिका भक्ति है जिसे पहले मानस नरमेध यज्ञ कहा गया है तथा जिसमें जीवमात्र का अधिकार है वही भगवत्प्रापिका आत्मनिवेदनभक्ति जो मानस नरमेध रूप है ।

उसे हम सभी जीवों को आत्मकल्याण हेतु अवश्य करना चाहिए –इसीका स्मरण दिलाने के लिए पुनः उसमें क्या क्या करना चाहिए–इसके परिज्ञान हेतु ब्रह्मा जी के इन्द्रियरूपी देवताओं ने उसमें और क्या क्या किया ? -इस तथ्य का निरूपण यहां किया जा रहा है —यत्पुरुषेण के द्वारा ।

ब्रह्मा जी की इन्द्रियरूपी देवताओं ने जो आत्मनिवेदनाख्य मानस नरमेध यज्ञ किया । उसमें पशु कौन बना ? ब्रह्मा जी । पशु से यज्ञ किया जाता है –पशुना यजेत । मोहरूपी पाश से बंधे सभी जीव पशु हैं इसलिए भगवान् शिव का एक नाम पशुपति भी है । चींटी से लेकर ब्रह्मा तक को पशु कहा गया और उनके पति = स्वामी भगवान शिव हैं–

“ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तान् पशून् बद्ध्वा महेश्वरः । 
पाशैरेतैः पतिर्देवः कार्यं कारयति स्वकम् ।।”
–ब्र.सू.श्रीकण्ठभाष्य की शिवार्कमणिदीपिका टीका–आरम्भ का श्लोक 3,

इसलिए प्रायः सभी यज्ञों में पशु की आवश्यकता होती । जिसका हार्द भाव यही है कि उन यज्ञों के समान हम सभी जीव इस मानस नरमेध यज्ञ को करें । इसमें भगवान् को अग्निस्वरूप ध्यान करके अपने आप को मोहपाश से आबद्ध होने के कारण पशुरूप हवि की भावना करके भगवान् को समर्पित करना है । इसी से जीवमात्र का कल्याण होगा । यह मानस यज्ञ है अतः इसे गरीब अमीर सभी जीव कर सकते हैं । जाति पांति की क्या बात, सामर्थ्यवान् पशु पक्षी भी चाहें तो कर सकते हैं। इसमें बाह्य सामग्री तो कुछ चाहिए ही नही।

अब मन्त्रार्थ में आयें । यत् = जिस समय, देवाः = ब्रह्मा जी की इन्द्रिय रूपी देवताओं ने ,योगवाशिष्ठ में देव शब्द इन्द्रिय वाचक कहा गया है —

“इन्द्रियप्राणसाध्येषु देवशब्दः समीरितः ।”

पुरुषेण हविषा = चतुरानन ब्रह्मा रूपी पुरुष स्वरूप हवि से ,यज्ञं =यज्ञ को , अतन्वत = किया । उस समय और किन किन मानस सामग्रियों का उसमें उपयोग हुआ –इसे बतलाना अत्यावश्यक है ;क्योंकि यज्ञ की सामग्री में घृत न मिलाया जाय तो उसका फल यजमान को न मिलकर महाराज बलि को प्राप्त होता है । 
अतः इसे बतला रहे हैं–

अस्य =इस आत्मनिवेदन रूपी मानस नरमेध यज्ञ का ,वसन्तः = वसन्त ऋतु, आज्यं =घृत आसीत् = थी अर्थात् वसन्त ऋतु (चैत्र वैशाख मास) को ही घृत की भावना से ब्रह्मारूपी पुरुष से सम्बद्ध किया । अन्य शिशिर आदि ऋतुओं में आज्य की भावना क्यों नही किये ?इसका उत्तर यह है कि यज्ञमें गोघृत सर्वोत्तम 
माना गया है ।

वह गाय भी उत्तम हो जरसी को तो हम गाय ही नही मानते;क्योंकि शास्त्रों जिसका महत्व उपवर्णित है वही प्रायः उसका लक्षण भी । सास्नादि (गाय के गले के नीचे लटकने वाला चर्मविशेष)गोमाता को छोड़कर जरसी में नही होता । भगवान् वशिष्ठ का तो सम्पूर्ण क्रियाकलाप ही उनकी गौ पर आश्रित था जिसे विश्वामित्रजी लेना चाहते थे । पर विश्वामित्रजी के हजारों हाथियों , स्वर्णरथो तथा ८०० सुन्दर घोड़ों को गाय के बदले देने पर भी महर्षि वशिष्ठ अपनी 1 गाय देना स्वीकार नही किये । उन्होने गौ के महत्व को बतलाते हुए कहा —

विश्वामित्र जी ! आप राजा हैं मेरी गाय को रत्न समझकर उसे धन वैभव के बल पर खरीदना चाहते हैं ,तो अब गोमाता की महत्ता सून लीजिए कि इन्हे मैं क्यों नही दे रहा हूं , आप राजा हैं आपके पास बहुत से रत्न हैं फिर भी आपको संतोष नही इसलिए इसे लेना चाहते हैं पर ब्रह्मपुत्र मुझ वशिष्ठ का रत्न तो यह गाय ही है ,यही मेरा धन है,यही मेरा सर्वस्व है अधिक क्या कहूं यही मेरा प्राण है ।

—वाल्मीकि रामायण बा.का.सर्ग-53,

जो हमारे ऋषियों की प्राणस्वरूपा थीं,जिनके लिए भगवान् कृष्ण ने देवराज इन्द्र का मानमर्दन करने हेतु 
७ दिनों तक गोवर्धन पर्वत को धारण किया । इन्द्र ने मेघों को आदेश दिया था ब्रज के पशुओं का समूल विनाश करने के लिए—

“पशुन् नयत् संक्षयम्” —भागवत ।

देवेन्द्र में दानवता आ चुकी थी; क्योंकि राक्षस ही गौओं के हिंसक होते हैं अत एव प्रभु ने इन्द्रयज्ञ रुकवाकर गोवर्धन की पूजा करवायी थी और उस गोवंश की रक्षा की जिसे इन्द्र नष्ट करना चाहते थे और भगवान को गोविन्द की उपाधि मिली । आज उसी गोवंश को नष्ट करने पर तुले राक्षसों का मानमर्दन करने हेतु हमें वशिष्ठ जी की भांति ब्रह्मदण्ड का प्रयोग करना चाहिये और गोवर्धन जैसे पहाड़ के नीचे इन आततायियों की कब्र बना देनी चाहिए । साथ ही हमे महर्षि वशिष्ठ तुल्य क्षमता प्राप्ति हेतु कम से कम एक गाय का पालन आरम्भ कर देना चाहिए ।

गोमाता यह नही कहतीं कि हम हिन्दुओं को ही दुग्ध देंगी मुसलमानों या इशाइयों को नही । फिर यह कुकृत्य क्यों ?

अब प्रकृत में आयें । शिशिर ऋतु में बर्फ के प्रभाव से घासफूस समाप्तप्राय हो जाते है जैसे वसन्त ऋतु 
आयी कि उनके खाने योग्य सभी वस्तुएं घास आदि विपुल मात्रा में उपलब्ध होती हैं जिन्हे खाकर वे 
खूब दूध देती हैं —

“हिमदग्धतृणा भूमिर्वसन्ते शोभते तृणैः । गावश्च तृणभक्षेण दुहते सुतरां पयः ।।”–पद्मुराण ।

इसलिए वसन्त में यज्ञोपयोगी गोघृत अधिक प्राप्त होने से इसी ऋतु में घी की भावना की गयी । 
अश्वमेध जैसा श्रेष्ठ यज्ञ को वसन्त ऋतु में ही करने का निर्देश मलता है। महाराज दशरथ वसन्त ऋतु में 
अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान में प्रवृत्त होते हैं —

“वसन्ते समनुप्राप्ते राज्ञो यष्टं मनोऽभवत्।”–वा.रा.बा.का.सर्ग–12,

साधना की दृष्टि से भी यह ऋतु उत्तम है;क्योंकि इस समय न गर्मी अधिक पड़ती है न ही ठंडी । अतः इस आत्मनिवेदनभक्ति रूप मानस नरमेध का शुभारम्भ इसी ऋतु में कर देना चाहिए –नवरात्र जैसा उत्तम पुण्यकाल । और, ग्रीष्मः = ग्रीष्म ऋतु , इस मानस यज्ञ में ,इध्मः = इन्धन बनी अर्थात् इस ऋतु में गर्मी अधिक होने से आवश्यक लकड़ियां सुगमता से उपलब्ध होती हैं अतः ग्रीष्म ऋतु(ज्येष्ठ आषाढ़) में इन्धन 
की भावना करनी चाहिए ।

ग्रीष्म काल में बड़े बड़े महर्षि भव सागर से पार उतरने के लिए पलाश की लकड़ियां लाकर 1वर्ष का सत्र करते हैं—

“ग्रीष्मकाले पलाशेध्मानमाहरन्ति महर्षयः । ये च सांवत्सरं सत्रमासते भवशान्तये ।।”

यज्ञ में एक ही यजमान होता है पर सत्र में अनेक –

“बहुयजमानकर्तृको यागः सत्रम्”

जिसमें बहुत यजमान हों उस यज्ञका नाम सत्र है ।

अतः इस ऋतु की श्रेष्ठता को ध्यान में रखकर इसमें इन्धन की भावना बतलायी गयी ।तथा इस आत्मनिवेदनाख्य भक्तिरूप मानस नरमेध में , शरद् = शरद् ऋतु (आश्विन और कार्तिक),
हविः= पुरोडासरूप हवि बनी ,अर्थात् शरद् ऋतु में पुरोडासहवि की भावना ब्रह्मा जी के इन्द्रियरूपी 
देवों ने किया ;क्योंकि पुरोडास जिनसे बनता है वे सुनहरे रंग के धान जिनमें चावल परिपूर्ण रूप से 
भरा होता है शरत्काल में ही सुशोभित होते दिखते हैं–

खर्जूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः । शोभन्ते किञ्चिदालमबाः शालयः कनकप्रभाः ।।
— वा.रा.अर.का.–16/17.

चूंकि चतुरानन के इन्द्रियरूपी देवताओं ने ब्रह्मा के ही शरीर में हवि की भावना तथा वसन्त, ग्रीष्म और 
शरद् ऋतुओं में क्रमशः आज्य,इन्धन एवं हवि की भावना करके आत्मनिवेदनभक्ति रूप मानस यज्ञ को सम्पन्न किया । इसलिए आत्मकल्याणार्थ हम सभी जीवों को इस आत्मनिवेदन भक्तिरूप यज्ञका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए ।

भाष्यकार श्रीउवट यहां कहते हैं कि इस मानस यज्ञ में वसन्त से सत्त्व, ग्रीष्म से रजःतथा शरद् से तमोगुण समझना चाहिए अर्थात् भगवद्रूपी अग्नि में प्रकृति के सत्त्व रजः तमः इन तीनों गुणों के साथ अपने आप को गुरुप्रदत्तमन्त्र या किसी भी भगवन्नाम का उच्चारण करते हुए समर्पित कर देना चाहिए ।

यह मानस ज्ञानयज्ञ है और भगवद्गीता में कुन्तीनन्दन अर्जुन से भगवान् ने द्रव्यमय सभी यज्ञों से ज्ञानयज्ञ को सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया है—

“श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।”—4/33.

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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