पुरुषसूक्त, मन्त्र-१५ की विशद हिन्दी व्याख्या-आचार्य सियारामदास नैयायिक
सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः । देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५||
इसके पूर्व मन्त्र में आत्मनिवेदनभक्तिरूप जो मानस नरमेध यज्ञ है उसमें ब्रह्मा जी की इन्द्रियरूपी देवताओं ने यज्ञपशु के साथ और किन किन वस्तुओं का प्रयोग किया तथा हम सबको उस यज्ञ को कैसे सम्पन्न करना चाहिए –ये सभी तथ्य बतलाये गये ।
इस मन्त्र में यह बतलाया जा रहा है कि चतुरानन के उन इन्द्रियरूपी देवताओं ने आत्मनिवेदनाख्य भक्तिरूप उस मानस यज्ञ में परिधियां और समिधांयें कितनीं बनायीं
—–सप्तास्यासन्–.
देवाः = लोकस्रष्टा विधाता के इन्द्रियरूपी देवताओं ने, यद् = जिस समय, यज्ञं = उस मानस यज्ञ को, तन्वानाः = करते हुए, पुरुषं = ब्रह्मा रूपी पुरुष को, पशुं = पशु के स्थान पर पशु की भावना से, अबध्नन् = हृदयरूपी यूप में दृढ़निश्चयात्मक रस्सी से बांधा । उस समय, अस्य =इस आत्मनिवेदनाख्य भक्तिरूप मानस यज्ञ की, सप्त = सात, परिधयः = परिधियां, आसन् = थीं । गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्,पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती इन सात छन्दों को परिधि रूप में उन देवों ने ध्यान किया ।
अथवा भारतवर्ष ही कर्मभूमि में परिगणित होने के कारण सात समुद्रों का परिधिरूप में ध्यान किया । यदि कहें कि देखे हुए पदार्थों का ही स्मरण या चिन्तन हो सकता है और यह यज्ञ सृष्टि के पूर्व का है जिस समय अन्य पदार्थ थे ही नही अतः उस समय में उपलब्ध पदार्थों का ही उपयोग मानना पड़ेगा और वे थे —पृथिवी ,जल, तेज,वायु,आकाश, अहंकार और बुद्धि , अत एव इन ७ वस्तुओं को ही परिधिरूप में उन इन्द्रियरूपी देवताओं ने ध्यान किया ।
आहवनीय आदि अग्नियों की प्रथम मेखला के समान परिमाण वाले काष्ठविशेष को परिधि कहते हैं. —
“परिधिर्यज्ञियतरोः शाखायाम्”–अमरकोष-१/३/३२,
उस मानस यज्ञ में ब्रह्मा जी के इन्द्रियरूपी देवताओं ने, त्रिःसप्त = २१, समिधः= समिधायें, कृताः = बनाया । यहां श्रीसायण द्वारा कहे गये २१ पदार्थ = १२ मास, पांच ऋतुएं, और ३ लोक , और सूर्य नही लिए जा सकते ;क्योंकि काल के नित्य होने से उसका ग्रहण सम्भव होने पर भी उस समय तीनों लोकों तथा सूर्य के अनुत्पन्न होने के कारण पूर्वोक्त २१ वस्तुएं उपलब्ध नही हो सकतीं। अतः ५ ज्ञानेन्द्रिय, ५ कर्मेन्द्रिय, १ मन, ५ तन्मात्रा= शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पञ्च तन्मात्रायें तथा पृथिवी आदि पांच महाभूत ये सब मिलाकर 21 हुए । इन सबको उन इन्द्रियात्मक देवताओं ने उस आत्मनिवेदनभक्ति रूप मानस यज्ञ की समिधा के रूप में ध्यान किया ।
समिधा उस काष्ठ का नाम है जो कम से कम कनिष्ठिका और अधिक से अधिक अंगुष्ठ जितना मोटा एक बिता लम्बा तथा छिलकायुक्त हो ,कीटयुक्त तथा फाड़ी गयी लकड़ी समिधा के उपयुक्त नही है।—
“नांगुष्ठादधिका ग्राह्या समित् स्थूलतया क्वचित् । न निर्मुक्तत्वचा चैव न सकीटा न पाटिता ||”
—कात्यायन,
ऐसी तीन समिधाओं में घृत लगाकर मन्त्रोच्चारण पूर्वक अग्नि में डालते हैं।
अब हम अपने प्रकृत विषय में आते हैं । इस आत्मनिवेदन भक्तिरूप मानस यज्ञ का अधिकारी मानव मात्र है । देहादि में अहन्ता ममता उत्पन्न करने वाली माया से वही बच सकता है जो भगवान् के चरणों की ओर उन्मुख होकर चल पड़े ।
जाल फेंकने पर मछुवारे के जाल में वही मछली फंसती है जो मछुवारे की ओर नही चलती , पर जो मछुवारे की ओर भगती है वह जाल से छूट जाती है;क्योंकि उस तरफ जाल का मुख खुला रहता है । इसी प्रकार परमात्मा के मायारूपी जाल से बचने के लिए हम सभी जीवों को उनकी ओर ही अग्रसर होना चाहिए –
“मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते |”—गीता—७/१४,
अतः अपना सर्वस्व अर्थात् देह गेह मन बुद्धि आदि सब कुछ प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए । सब कुछ उनका ही है —ऐसा समझकर व्यवहार करने वाला प्राणी चतुरानन के समान कार्य करने की विलक्षण क्षमता प्राप्त करने के साथ ही अन्त में भवसागर से मुक्त हो जाता है ।
जय श्रीराम
भक्त और भगवान ग्रुप के संस्थापक एवं एडमिन
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar