पुरुषसूक्त, मन्त्र-१६ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त, मन्त्र-१६ की विशद हिन्दी व्याख्या -आचार्य सियारामदास नैयायिक

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।। 16।।

 

पूर्व मन्त्रों में बतलाया गया कि इस विशालकाय सृष्टि को सम्पन्न करने के लिए चतुरानन ब्रह्मा जी ने “आत्मनिवेदनभक्ति”रूप मानस यज्ञ किया जिनमें यजमान के रूप में स्वयं उनकी इन्द्रियां और पशु के स्थान पर वे स्वयं थे।उन इन्द्रियरूपी देवताओं द्वारा भगवान् अनिरुद्ध को ही अग्निरूप से ध्यान किया गया । 21 समिधाओं के रूप में यज्ञकर्ता इन्द्रियरूपी देवताओं ने मन बुद्धि सहित सब कुछ भगवान् को समर्पित कर दिया ।तत्पश्चात् सृष्टि की सामर्थ्य प्राप्त करके चतुरानन ब्रहमा जी ने सृष्टि की । इस मानस यज्ञ में मानवमात्र का अधिकार है ;क्योंकि यह बाह्य द्रव्यप्रधान यज्ञ नही है और न ही इसमें वैदिक मन्त्रों की आवश्यकता ही है ।

वैदिक द्रव्यप्रधान बाह्य यज्ञादि हेतु यजमान को विद्वान् समर्थ और अधिकारी होना अनिवार्य है –यह पूर्वमीमांसा में निर्णीत हो चुका है ।उसमें किसी प्रकार की त्रुटि क्षम्य नही है चाहे वह मन्त्र, तन्त्र, देश, काल और वस्तु इनमें किसी भी एक ही के कारण क्यों न हुई हो । अत एव उस न्यूनता की पूर्ति हेतु याज्ञिक –
“यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । 
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ||”

 -इत्यादि मन्त्रों से 3 बार भगवान् का स्मरण करते हैं। तब वह पूर्ण होकर फलप्रद होता है ।

इधर इसमें निरन्तर हरिस्मरण ही चलता रहता है. “आत्मनिवेदनभक्ति”रूप मानस यज्ञ में बाह्य साधनों तथा वैदिक मन्त्रों की अनिवार्यता न होने से इसे मानवमात्र करके अपने जीवन का परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति अनायास कर सकता है । जैसा कि ब्रह्मा जी ने किया। इसी रहस्य को इस मन्त्रमें बतला रहे हैं ——-
देवाः = ब्रह्मा जी की इन्द्रियरूपी देवताओं ने , यज्ञं = “यज्ञो वै विष्णुः” सर्वव्यापक यज्ञपुरुष भगवान् को , यज्ञेन = पूर्वोक्त आत्मनिवेदनभक्तिरूप मानस यज्ञ से, अयजन्त = पूजा अर्थात् प्रभु की पूजा की । तानि = वह “आत्मसमर्पणभक्ति”रूप मानस यज्ञ, प्रथमानि = सभी यज्ञों में प्रधान, धर्माणि = धर्म, आसन् = था।

प्रधान इस लिए कि अन्य यज्ञादि सभी कर्म भगवान् को समर्पित किये विना स्वर्गादि सांसारिक फल देते हैं जिससे “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्” जन्म मरण का चक्र चलता रहता है और यह मानस यज्ञ “आत्मनिवेदनभक्ति”रूप होने सेभगवान् की प्राप्ति स्वतः करा देता है जिससे जीव सदा के लिए जन्ममरण रूपी चक्र से मुक्त हो जाता है । इसे इसी मन्त्र के “ते ह नाकं –पंक्ति से आगे स्पष्ट दिखाया जायेगा ।
जिस मानस यज्ञ को “यज्ञेन” शब्द से पूर्व में कहा गया है उसी के लिए आगे “तानि”इस बहुवचनान्त सर्वनामसंज्ञक तत् शब्द का प्रयोग किया गया । पुनः पुल्लिंग “धर्म” शब्द का नपुंसक लिंग में बहुवचनान्त प्रयोग–ये सब क्यों हुआ ? आदर प्रकट करने के लिए । आदर प्रकट करने हेतु एक के लिए भी बहुवचन का प्रयोग प्रसिद्ध है – जैसे एक लड़के और अपने एक गुरु के लिए –लड़का आया था , गुरूजी आये थे ।

इस लिए भगवान् वेद उस सर्वजनोपयोगी “आत्मनिवेदनभक्ति”रूप मानस यज्ञ को अन्य सभी यज्ञों की अपेक्षा अधिक आदर दे रहे हैं ।अत एव “प्रथमानि” शब्द का प्रधान अर्थ किया गया –प्रथते प्रसिद्धो भवति, प्रथेरमच् -उणादिसूत्र-5/68. से प्रथ धातु से अमच् प्रत्यय होकर प्रथम शब्द बनता है । जिसका अर्थ है प्रधान —

“आदौ प्रधाने प्रथमः” –अमरकोष–3/3/144,

और इस अर्थ में इसका प्रयोग महाकवि कालिदास ने किया है—

“राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः । नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममंगलम् ।।“

–रघु0-10/67. 

यहां “प्रथममंगलम्” में प्रथम शब्द प्रधान अर्थ का वाचक कहा गया है । 

भगवान् वेद इस “आत्मनिवेदनभक्तिरूप” मानस यज्ञ को अन्य सभी यज्ञों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ बतला रहे हैं इसलिए बहुवचन का प्रयोग हुआ । किन्तु जिस यज्ञ का तत् शब्द से ग्रहण करना है उसका वाचक “यज्ञ”शब्द पुल्लिंग है अतः “ते धर्माः प्रथमा आसन्” इस प्रकार प्रयोग पुल्लिंग में होना चाहिए था । इसका समाधान यह है कि छान्दसत्वात् यहां नपुंसक लिंग में प्रयोग हुआ है ।

इस “आत्मनिवेदनभक्तिरूप” मानस यज्ञ से पूर्वकाल में जो भी ब्रह्मा हुए हैं उनको भगवान् के धाम की प्राप्ति हुई है —इस तथ्य को प्रकट कर रहे हैं —ते ह नाकं द्वारा ।

ते = ब्रह्मा जी के उन इन्द्रियरूपी देवों ने , ह = निश्चित है कि,नाकं = जहां कभी भी दुःख नही होता उस भगवद्धाम को, सचन्तः = प्राप्त किया अर्थात् ब्रह्मा जी भगवान् के उस दिव्य धाम को प्राप्त करते हैं जहां से कभी संसार में लौटकर आना नही पड़ता—

“यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम |” —गीता ।

निघण्टु में नाक शब्द भगवद्धाम का वाचक कहा गया है—

“नाकोऽम्बरेऽपि च स्वर्गै परमव्योम्नि च स्थितः “.

एकाक्षर कोष में “क” शब्द सुख का वाचक कहा गया है –

“कं सुखे च प्रकीर्तितम्”—श्लोक-7,

         न कं = सुखम् इति अकं = दःखमित्यर्थः । जो सुख से भिन्न है अर्थात् दुःख । न अकं दुःखं यत्र तत् नाकं –जहां दुःख नही हो अर्थात् भगवान् का लोक । स्वर्ग में इन्द्रादि को दैत्यों से हमेशा भय बना रहता है और कभी कभी वहां से हटा भी दिये जाते हैं अतः वहां दुःख होने से उसे स्वर्ग नही कह सकते;क्योंकि वास्तविक स्वर्ग उसे कहते हैं जहां कभी दुःख न हो—-

   “यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वःपदास्पदम् ||”

         यत्र = जिस भगवद्धाम में ,(इसे भक्तजन वैकण्ठ,साकेत, गोलोक,शिवलोक,परमव्योम आदि नामों से कहते हैं ।), इस आत्मनिवेदनभक्तिरूप श्रेष्ठ यज्ञ को सम्पन्न करके, पूर्वे = पूर्व कल्प में, साध्या = साध्य नामक, देवाः = देवगण,पहुंचकर आज भी , सन्ति = विराज रहे हैं । साध्य नामक 12 देवों का एक समुदाय है ये एकादश रुद्र की भांति गणदेवता कहे जाते है। अग्निपुराणादि में इनकी चर्चा है ।

यह “आत्मनिवदनभक्ति” रूप मानस यज्ञ सम्पूर्ण जीवों को भगवान् की प्राप्ति कराता है –इस विषय को स्पष्टतया दिखाया गया और मोक्षप्रद मात्र एक भगवान ही हैं—-

इसे “उतामृतत्वस्येशानो” इस द्वितीय मन्त्र से बतला चुके हैं। वे ही अनेक देवों के रूप में भास रहे हैं- — एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ,एको देवः सर्वभूतेषु गूढः । अतः किसी भी सात्विक रूप में “आत्मनिवेदनभक्ति” कोई भी प्राणी कर सकता है । इसमें जाति पांति आदि के विचार की किञ्चित् भी आवश्यकता नही । इससे तो एक गज का उद्धार हो गया , फिर मानव का क्या कहना । 

जय श्रीराम

भक्त और भगवान ग्रुप के संस्थापक तथा एडमिन

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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