पुरुषसूक्त मन्त्र-३ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त मन्त्र-३ की विशद हिन्दी व्याख्या

भगवान् का वैभव –आचार्य सियारामदास नैयायिक

एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः । पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।३।।

मन्त्र का विषय– “भगवान् का वैभव”

पूर्व मन्त्र में समस्त जगत् को भगवान् का स्वरूप बतलाकर निखिल जीवों को मोक्षप्रद भगवान् प्रतिपादित किये गये । जड प्रकृति और चेतन जीव दोनों श्रीहरि के शरीर होने से उनके अधीन हैं । जैसे हमारा शरीर
हमारे अधीन है । हमारी इच्छा के अनुरूप ही इसकी क्रियायें होती हैं । यही स्थिति समग्र प्रकृतिमण्डल तथा जीवों की है । जीवों का बन्धन और मोक्ष सब भगवदधीन है । यही भगवान् का वैभव है ।

इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए इस तृतीय मन्त्र से परमात्मा की श्रेष्ठता बतला रहे हैं—”एतावान्—-”
के द्वारा ।

सर्वजगद्रूपता, सकल जीवों के लिए मोक्षप्रदत्व, जीव प्रकृति के शरीरी होने से निखिलब्रह्माण्डस्वामित्व आदि, एतावान् = इतनी, अस्य = इन परमात्मदेव की, महिमा = वैभव है। अतो =इसलिए, पूरुषः =ये भगवान्, प्रकृति तथा समस्त जीवों से, ज्यायान् = श्रेष्ठ हैं ।

यहां मन्त्र में च शब्द आया है । जो अकथित बातों को कहता है –”चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः” .
वे तथ्य हैं भगवान् के सर्वजगत्कारणत्व सर्वरक्षकत्व आदि । “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते—-” .
“विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता” । इन सबके कारण भी भगवान् जीव और प्रकृति से श्रेष्ठ हैं; क्योंकि
जन्य तथा रक्ष्य से जनक एवं रक्षक श्रेष्ठ होता है ।

मन्त्र की द्वतीय पंक्ति से भगवान् का विशिष्ट वैभव बतला रहे हैं –”पादो—”। अस्य = इन सर्वनियन्ता भगवान् का, विश्वाभूतानि = अनन्तानन्त जीव तथा अनन्त प्रकृतिमण्डल, पादः = सम्पूर्ण ऐश्वर्य का चतुर्थ भाग है । और, अस्य = इन श्रीहरि का, त्रिपादः = तीनों पाद अर्थात् तीनो भाग, अमृतं =अविनाशी हैं।

वे हैं अहड़्कार आदि से लेकर पृथिवी पर्यन्त तत्वों के अधिष्ठातृजीव, नित्यमुक्त = जो कभी संसार में आये ही नहीं और तीसरे हैं मुक्त जीव = जो भवबन्धन से छूटकर भगवदद्धाम पहुंच गये हैं ।

अथवा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न –ये तीनो पाद (चिन्मय भगवद्धाम में हैं) .

कहां हैं वे ?

इसका उत्तर देते हैं –दिवि।

दिव् शब्द का अर्थ है परमाकाश, स्वर्ग ,भगवद्धाम— “द्युशब्दः परमे व्योम्नि स्वर्गे वियति कथ्यते”-निघण्टु।

वास्तविक स्वर्ग भगवान् का धाम ही है ;क्योंकि वहां कभी भी दुःख का संस्पर्श नही होता । इन्द्र के स्वर्ग पर बार बार दैत्यादिकों का आक्रमण होने से वह दुःख का अनुभावक है अतः वह वास्तविक स्वर्ग नहीं।

स्वर्ग उस सुख को कहते हैं जो दुःख से मिश्रित न हो , सुख के बाद भी कभी दुःख न हो , सड़्कल्पमात्र से उपलब्ध हो—

यन्न दुःखेन सम्भिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम्। अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वः पदास्पदम् ।।

ऐसा सुख भगवद्धाम है । जो अनन्त योजन विस्तार वाला है । इसे भी भगवान् की त्रिपादविभूति के नाम से अभिहित किया गया है–

अनन्तायामविस्­तारो वैकुण्ठः संप्रकीर्तितः ।
तस्मादस्य त्रिपादांशो वैकुण्ठो भासतेतराम् ।।-वैकुण्ठसंहिता।

“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” .

सर्वव्यापक परमात्मा के उस परमधाम को मुक्तजन सदा देखते रहते हैं । इसे ही साकेत, गोलोक,शिवलोक आदि नामों से तत्तदुपासक कहते हैं।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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