पुरुषसूक्त, मन्त्र-८ की विशद हिन्दी व्याख्या
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः । गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ।। 8 ..
पूर्व मन्त्र में यज्ञस्वरूप भगवान् से अभिन्न चतुरानन ब्रह्मा जी द्वारा वेदों की सृष्टि बतलायी गयी –तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः —इत्यादि ।( पहले छठे तथा सातवें मन्त्र में ये दोनों भाग आये हैं । यदि वहां पूर्वोक्त रीति से सर्वहुतः को यज्ञात् पदबोध्य यज्ञ का विशेषण मानते हैं जैसा कि कहा जा चुका है । तब प्रथमान्त सर्वहुतः का पञ्चम्यन्त यज्ञात् इसके साथ अभेदान्वय नही हो सकता ;क्योंकि उसके लिए समान विभक्तिक होना अनिवार्य है । जैसे –नीलो घटः । अतः सर्वहुतः की व्युत्पत्ति –सर्वं = अपना सब कुछ,जुहोति = हवन करते हैं जो उन्हे सर्वहुत् कहते हैं क्विप् तथा तुक् आदि होकर बने सर्वहुत् शब्द के पञ्चमी विमक्ति का रूप सर्वहुतः है । जिसका पञ्चम्यन्त यज्ञात् के साथ समान विभक्ति होने से अभेदान्वय पूर्वोक्त रीति से सम्पन्न हो जायेगा ।
पांचवे मन्त्र की व्याख्या में सप्रमाण बताया जा चुका है कि ब्रह्मा जी अपना सर्वस्व भगवान् अनिरुद्ध रूपी अग्नि में समर्पित कर चुके हैं । अतः इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही सर्वहुतः शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है । पूर्वमन्त्र के सर्वहुतः शब्द को भी ऐसा ही समझना चाहिए ।
अब इस 8वें मन्त्र में आयें । चूंकि यज्ञ भगवान् का स्वरूप है इसलिए उस यज्ञ से सम्बद्ध विशेष पशु एवं पक्षी आदि की उत्पत्ति इस मन्त्रसे दिखलायी जा रही है —- तस्माद् =उन यज्ञस्वरूप परमात्मा से अभिन्न चतुरानन ब्रह्मा जी से,अश्वा = घोड़े, श्यामकर्ण आदि अश्वमेधोपयोगी अश्व, वैसे छठे मन्त्र में —पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये -इस पंक्ति से ग्राम्य पशुओं की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से कही जा चुकी है जिनमें इस 8वें मन्त्रमें कहे जाने वाले सभी -घोड़े ,गधे,गाय,बकरे और भेड़ आ ही जाते हैं– गौरजाविमनुष्याश्च अश्वाश्वतरगर्दभाः । एते ग्राम्याः समाख्याताः पशवः सप्त साधुभिः ।। फिर यहां इनकी उत्पत्ति पुनः क्यों
बतायी जा रही है —ऐसी शंका होनी स्वाभाविक है ।
इसका उत्तर यह है कि छठे मन्त्र में ग्राम्य पशुओं की जो उत्पत्ति कही गयी है. 7 ही हैं ? क्या कुत्ते बिल्ली आदि ग्राम में रहने वाले पशु नही हैं ? उत्तर मिलेगा -अवश्य हैं । दूसरी बात यह कि उस मन्त्र में आये आरण्या ग्राम्याः आदि शब्दों के विशेषण रूप में भी सप्त संख्या नही लिखी गयी है । अतः उस मन्त्र के द्वारा मात्र सात ही नही अपितु जितने पशु ग्राम या अरण्य में रहने वाले हैं उन सबकी उत्पत्ति बतलायी गयी है और इस 8वें मन्त्र में केवल यज्ञ से सम्बद्ध पशु आदि की उत्पत्ति। किन्तु ऐसा क्यों ? ये सभी ग्राम या जंगल में रहते हैं अतः उसी 6ठे मन्त्र से सभी पशुओं के साथ इनकी उत्पत्ति का कथन भी सिद्ध हो जायेगा ।
सुनें–ब्राह्मणवशिष्ठन्याय से इनका पृथक् कथन इस मन्त्र में है। जैसे किसी ने कहा –सभी ब्राह्मण आ गये और वशिष्ठ जी भी आ गये । अब प्रश्न यह है कि वशिष्ठ जी क्या ब्राह्मण नही हैं जो उनका पृथक् उल्लेख किया गया । इसका उत्तर यह है कि वशिष्ठ जी भी यद्यपि विप्र ही हैं तथापि अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षा वे विशिष्ट हैं अतःउनका वैशिष्ट्य बतलाने के लिए ही यहां उनका पृथक् कथन है । इसी न्याय से इस 8वें मन्त्र में भी विशिष्ट पशु एवं पक्षी आदि का कथन है ; क्योंकि ये भी कुत्ते बिल्ली आदि की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, अशवमेधादि यज्ञों में उपयोगी होने के कारण ।
अजायन्त = उत्पन्न हुए । और ये = जो, भी, के= कोई अश्व से भिन्न पशु हैं, वे, उभयादतः –उभय =दोनों अर्थात् ऊपर नीचे दोनों ओर, दतः = दांत हैं जिनके वे पशु , सूकर आदि । इन्द्राय राज्ञे सूकरः -इस अनुवाक में देवराज इन्द्र के लिए सूकर पशु हविरूप में बतलाया गया है । —वा0रा0बा0का014/28 की भूषण टीका । उभयोः = उभयभागयोः = ऊपर नीचे दोनों भागों में ,दन्तः = दन्ताः= दांत हों जिनके , दत् शब्द हलन्त पुल्लिंग और दांत का वाचक शब्दचन्द्रिका में कहा गया है । यहां बहूब्रीहि समास होने पर उभयदतः होना चाहिए, दीर्घ कैसे हो गया–इसका उत्तर है–वेद में जैसा दृष्ट है वैसा ही विधान होता है –छन्दसि दृष्टानुविधिः–महाभाष्य । अतः छान्दसत्वात् दीर्घ हआ–उभयादतः ।
गावो = गायें, गोशब्द पुल्लिंग होने पर सूर्य और चन्द्र का भी वाचक है –गौर्नादित्ये बलीवर्दे-सिद्धान्तकौमुदी,उणादि प्र0गमेर्डोः, गौः स्वर्गे—-चन्द्रे पुमान् भवेत् -तत्त्वबोधिनी, अतः एकशेष करके बना हुआ गावः शब्द का गायों के साथ सूर्य और चन्द्र भी अर्थ कर सकते हैं पर 12वें मन्त्र में इनकी उत्पत्ति कही जायेगी । अतः यहां गावः का अर्थ गायें ही लेना उचित है ।
ह=यह शब्द प्रसिद्धि का द्योतक है अर्थात् यह बात अन्य स्थल में भी कही गयी है । अथवा ह शब्द पाद की पूर्ति कर रहा है –ऐसा भी मान सकते हैं –तु हि च स्म ह वै पादपूरणे —अमरको
ष-3/4/5. तस्मात् = उन्ही चतुर्मुख ब्रह्मा जी से, जज्ञिरे =उत्पन्न हुईं ।और,तस्मात् = उन्ही चतुरानन से, अजावयः —अज =बकरे ,अवि = भेड़ आदि उत्पन्न हुए ।
अजावयः को 2 शब्द भी कहा जा सकता है । 1-अजाः 2-वयः , अजाः = बकरे,और वयः = अनेक पक्षी , ये सब उत्पन्न हुए । इस अर्थ में बहुवचनान्त अजास् के जस् विभक्ति के स् को वयः शब्द बाद में होने के कारण रुत्व और उसे य् करके लोप करने पर अजावयः शब्द सिद्ध हो जायेगा और वि शब्द एकाक्षरकोष से पक्षी का वाचक विनिर्णीत है । अतः यह अर्थ भी हो सकता है । पर ऐसी स्थिति मे हमें पितृदेवों को हवि रूप में अभीष्ट(वाल्मीकि रामायणबा0का049वां सर्ग में इन्द्र की कथा देखें) मेष= भेड़ रूप अर्थ से वञ्चित होना पड़ेगा और इस मन्त्र में यज्ञसम्बन्धी पशुओं का ही साक्षात् नामोल्लेखपूर्वक कथन किया जा रहा है । अतः इस पक्षी वाले अर्थ को मानना उचित नही ।यज्ञोपयोगी पक्षी सर्प आदि अर्थ हमें किस प्रकार उपलब्ध होंगे —इसे निम्नलिखित पंक्तियों में देखें——
यहां मन्त्र के चोभयादतः शब्द में च शब्द है जो न कहे गये यज्ञ सम्बन्धी अन्य जीवों का भी ग्राहक है —चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः । अतः वे सब ‘च’ शब्द से गृहीत हो जायेंगे । वे कौन हैं ?—-सर्प,पक्षी और जलचर कछुए आदि। इनका भी यज्ञ में उपयोग होता है। चक्रवर्ती दशरथ जी के अश्वमेध यज्ञ में इनका उल्लेख हुआ है —
नियुक्तास्तत्रपशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम् । उरगाः पक्षिणश्चैव यथशास्त्रं प्रचोदिताः।।
शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये । ऋषिभिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा ।।
–वाल्मीकि रा0बा0का0सर्ग14,30-31.
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar