पुरुषसूक्त, मन्त्र-९ की विशद हिन्दी व्याख्या

पुरुषसूक्त, मन्त्र-९ की विशद हिन्दी व्याख्या

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः । 
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ।। 9 ..

पहले 5वें मन्त्र की व्याख्या में हम सप्रमाण बता चुके हैं कि ब्रह्मा जी ने भगवान् अनिरुद्ध रूपी अग्नि में अपने आप को हवि रूप में चिन्तन करके समर्पित कर दिया-यह आत्मनिवेदनात्मक भक्तिरूप यज्ञ है। 
इस मन्त्र में इसी यज्ञ का वर्णन किया जा रहा है । साथ ही मोक्षप्राप्ति के लिए मुमुक्षु को कैसा यज्ञ करना चाहिए –इसे भी यहां दिखाया जा रहा है–तं यज्ञं —-से ।

ब्रह्मा जी जब अनिरुद्ध भगवान् से उत्पन्न हुए तब वे स्वयं में सृष्टिरचना आदि की कोई सामर्थ्य न देखकर चुपचाप बैठे रहे । उनसे अनिरुद्ध भगवान् ने पूछा- ब्रह्मन्! मौन होकर क्यों बैठे हो ? वे बोले -प्रभो !अज्ञान के कारण। भगवान् ने कहा—तुम अपने इन्द्रियरूपी देवताओं को ऋत्विक् मानकर तथा अपने शरीर में हवि की भावना करके मुझ परमात्मा को अग्निरूप समझकर मुझ में अपने आप को समर्पित कर दो ।

मेरे अंग के स्पर्श मात्र से जगत्कोशरूप (सृष्टि के पूर्व सम्पूर्ण जीव ब्रह्मा जी के शरीर में रहते हैं -इसलिए इन्हे जगत्कोश भी कहा गया है) तुम्हारा शरीर बढ़ जायेगा और विलक्षण शक्ति से सम्पन्न होकर सृष्टि करने के योग्य हो जाओगे—-

“तमनिरुद्धनारायणोऽप्राक्षीत् । ब्रह्मन् किं तूष्णीं भवसीति । अज्ञानादिति होवाच । ब्रह्मन् ! तवेन्द्रियाणि ऋत्विजः कृत्वा त्वदीयं च कलेवरं हविः कृत्वा मां हविर्भुजं ध्यात्वा मय्यग्नौ निवेदय । मदंगस्पर्शमात्रेण जगत्कोशभूतः त्वत्कायो बृंहिष्यते । —स्रष्टा भविष्यसि ।” –शाकल्यब्राह्मण,पुरुषसूक्तसंहिता ।

पूर्व में विराजो अधिपूरुषः–इस 5म मन्त्र द्वारा अनिरुद्ध भगवान् से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति कही जा चुकी है ।इसी बात को कह रहे हैं —-अग्रतः = स्थावर और जंगम इन दोनो प्रकार की सृष्टियों के पूर्व, जातम् = उत्पन्न हुए, तं =उन,यज्ञं = यज्ञके साधन स्वरूप = आत्मनिवेदनरूपी मानस यज्ञ की सामग्रीरूप, पुरुषं = ब्रह्मा रूपी पुरुष को, प्रौक्षन् = प्रोक्षण करते हूए, प्रोक्षण का अर्थ है मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिड़कना, यज्ञादि में प्रोक्षण करके सामग्रियों को पवित्र किया जाता है–

“व्रीहीन् प्रोक्षति” -मीमांसान्यायप्रकाश।

यह एक संस्कारविशेष है । 

बर्हिषि =भगवान् अनिरुद्धरूपी अग्नि में, तेन = उन ब्रह्मा जी से, देवाः = उन्ही की इन्द्रियरूपी देवताओं ने, अयजन्त = मानस यज्ञ किया । वाराहपुराण तथा शाकल्यब्राह्मण से इन्द्रियरूपी देवों द्वारा इस यज्ञ की सम्पन्नता में प्रमाण भी प्रस्तुत किया जा चुका है ।

ध्यातव्य है कि यह आध्यात्मिक नरमेध यज्ञ है । इसमें कोई भी प्राणी अपने शरीर पर जल छिड़ककर पवित्रता प्राप्त करके शुद्ध भाव से अपने आपको हवि = शाकल्य मानकर और भगवान् को अग्नि समझकर उन प्रभु को अपने आप को समर्पित कर सकता है— तो यह नरमेध यज्ञ उसे भगवान् की प्राप्ति करा देता है ।

हवि डालते समय ब्रह्मा जी ने ओम् का उच्चारण किया । हम भी ओम् या किसी भी भगवन्नाम या मन्त्र का आश्रय ले सकते हैं । भक्त अपने इष्ट को अपना देह गेह सर्वस्व समर्पित कर देता है अपने को सेवक मानते हुए सभी कार्यों को करता रहता है। उसे ब्रह्मा जी की भांति भगवत्प्राप्ति अवश्य होती है ।

यह जरासन्ध द्वारा किये गये तामसी नरमेध से सर्वथा भिन्न बाह्य सामग्रीनिरपेक्ष सात्विक यज्ञ है । इसी को भक्तों की भाषा में शरणागति या आत्मनिवेदन भक्ति भी कहते हैं ।

इसीलिए इसे साध्यादि द्वादश देवों अन्य ऋषियों एवम् अन्य महापुरुषों ने भी किया है — 
च = यह शब्द उन महापुरुषों का संकेत कर रहा है जिनका इस मन्त्र में नामोल्लेख नही है, ये = जो, साध्याः = दक्षकी पुत्री साध्या द्वारा धर्म से समुत्पन्न साध्यसंज्ञक 12 देव हैं उन्होंने , (इनकी चर्चा वायुपुराण में है –

“साध्या पुत्रांस्तु धर्मस्य साध्यान् द्वादश जज्ञिरे।” —-उत्तरार्द्ध -5/4)

ऋषयः = और जो ऋषि जन हैं, वे भी, इसे ब्रह्मा जी की भांति, अयजन्त= किये ।

इसीलिए योगरत्न में कहा गया है कि जो मुमुक्षु वसुरण्य मन्त्र का उच्चारण करते हुए परमात्मा रूपी अग्नि में अपने आप की आहुति देते हैं। वे भी मुक्त हो जाते है–

“ये मुमुक्षवः—-वसुरण्य­मन्त्रम् उच्चारयन्तः आत्मानं तेजोमयमग्नौ परमात्मनि जुह्वति ।तेऽपि 
विमुक्ता भवन्ति।”–योगरत्नम् ।

वस्तुतःवाराहपुराण के –

“त्वमिन्द्रियैर्देवसञ्ज्ञैः कुरु यज्ञं समाहितः”

—भगवान् अनिरुद्ध के इस वचन में ब्रह्मा जी के प्रति कहे गये ‘इन्द्रिय नामक देव’ तथा शाकल्य ब्राह्मण के

“तवेन्द्रियाणि ऋत्विजः”

के ‘तुम्हारी इन्द्रियां’ इन शब्दों को ध्यान में रखकर मन्त्र के देवाः शब्द का अर्थ करें तो उससे ब्रह्मा जी की इन्द्रियों ने यज्ञ किया –यह अर्थ अनायास उपलब्ध हो जायेगा और साध्या को देवा का विशेषण भी मानने की कोई आवश्यकता नही होगी ।जैसा कि सायण आदि ने माना है।

तथा साध्या का वास्तविक अभिधेयार्थ भी नही त्यागना पड़ेगा । ऋषि भी साध्य देवताओं के समान चतुरानन के बाद ही उत्पन्न हुए हैं फिर इनके द्वारा किये गये यज्ञ का उल्लेख वैसे ही हुआ जैसे –सूर्य और चन्द्रादि की पूर्व में हुई उत्पत्ति का कथन –

“सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्”–ऋग्वेद,अ08/अ08/व0-48,

इस प्रकार इस यज्ञ की अक्षुण्ण परम्परा चली आ रही है अतः इस परम सात्विक नरमेध यज्ञ = आत्मनिवेदनरूपी भक्ति का आश्रय हम सबको लेना चाहिए ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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