भक्तप्रवर पक्षिराज जटायु
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के अनुसार भगवान् राम जब पंचवटी प्रस्थान कर रहे थे । उस समय मार्ग में उन्हें पक्षिराज “जटायु” मिले । उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा–”वत्स ! मुझे अपने पिता का मित्र समझो”–
“उवाच वत्स मां विद्धि वयस्यं पितुरात्मनः ।।” -वाल्मीकि रामायण,अरण्यकाण्ड-१४/२,
पुत्र ! यदि तुम यहाँ निवास करो,तो मैं तुम्हारी सहायता करूँगा । जब लक्ष्मण के साथ तुम पर्णशाला से कहीं चले जाओगे तब मैं सीता पुत्री की रक्षा करूँगा; क्योंकि यह वन जंगली जीवों तथा राक्षसों से भरा हुआ है–
“सोSहं वाससहायस्ते–,–सीतां च तात रक्षिष्ये त्वयि याते सलक्ष्मणे ।।” –१४/३४,
भगवान् राम ने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें गले लगाया तथा उनके समक्ष नतमस्तक हुए–
“जटायुषं तं प्रतिपूज्य राघवो मुद्दा परिष्वज्य च सन्नतोSभवत् ।” -१४/३५, जटायु से पिता दशरथ की मित्रता कैसे हुई-इस तथ्य को उन्होंने जटायु के मुख से पुनः पुनः सुना-१४/३५,
मैंने सन्तों के मुख से सुना है कि एक बार अयोध्या के कुलुगुरु महर्षि वशिष्ठ को चिन्तित देखकर महाराज दशरथ ने इसका कारण पूंछा तो उन्होंने कहा कि शनि एक ऐसे ग्रह का वेधन करना चाहता है जिससे संसार में १२ वर्ष तक वर्षा नहीं होगी । ऐसा सुनते ही महाराज दशरथ शनि पर आक्रमण करने के लिए धनुष् बाण से सुसज्जित होकर रथ में बैठकर शनिमंडल की ओर प्रस्थान कर दिये । किन्तु शनि की दृष्टि पड़ते ही उनका रथ जल गया और महाराज स्वयं भूमण्डल की ओर गिरते हुए आ ही रहे थे कि बीच आकाश में ही पक्षिराज जटायु ने उन्हें अपनी पीठ पर रोक लिया ।
महाराज मूर्छा टूटते ही पक्षिराज से अपने प्राणों की रक्षा के कारण मित्रता स्थापित कर लिए और उन्हें पुनः शनिमंडल पर पहुँचाने के लिए प्रेरित किये । इस बार महाराज सावधान थे और उनके हाथ में एक ऐसा दिव्यास्त्र था जो शनि का विध्वंस करने में पल भर की भी देरी न लगाता । शनि ने महाराज के शौर्य की प्रशंसा की और अपना निर्णय बदल दिया । महाराज पक्षिराज जटायु के साथ ही लौट आये । यह है एक पक्षिराज और नरराज की मित्रता का कारण ।
स्वयं पक्षिराज ने ही अपने मुख से अपनी वंशपरम्परा का परिचय श्रीराम को इस प्रकार दिया है कि पूर्व में १७ प्रजापति हो चुके हैं जिनमें १७वें प्रजापति महर्षि कश्यप थे । उनकी अनेक पत्नियाँ थीं जिनमें ताम्रा के गर्भ से ५ कन्यायें हुईं जिनमें शुकी की पौत्री विनता से गरुड़ और अरुण नामक २ पुत्र हुए । जिनमें अरुण से मैं और मेरे बड़े भाई सम्पाति का जन्म हुआ । ताम्रा की पुत्रियों में जो श्येनी थी उसी परम्परा में उत्पन्न श्येनी मेरी माँ का नाम है ।-वाल्मीकि रामायण,अरण्यकाण्ड-१४/७ से ३३,
जटायु का प्रबल पराक्रम और रूपपरिवर्तन की सिद्धि
विन्ध्याचल से नीचे अंगदादि के द्वारा उतारे जाने पर जटायु के बड़े भाई सम्पाति ने पहले अपने अनुज जटायु को जलांजलि दी । तत्पश्चात् वानरवीरों को जटायु तथा अपने पराक्रम के विषय में बतलाते हुए कहा कि जब हम लोगों ने सुना कि देवराज इन्द्र ने वृत्तासुर का वध कर दिया है । तब उन्हें पराक्रमी समझकर मैं और जटायु देवेन्द्र को जीतने की इच्छा से स्वर्गलोक की ओर प्रस्थान किये । तथा देवराज को जीतकर लौटते समय मध्य में सूर्यमण्डल पड़ने हम दोनों में पहले कौन सूर्य तक पहुँचता हैं ? जो पहुँच गया वह हम दोनों में प्रबल माना जायेगा -”ऐसी प्रतिज्ञा भी कैलाश पर्वत पर मुनियों के समक्ष पहले करके चले थे ।”-वा.रा.कि.का.६१/४,
जब हम दोनों सूर्य के समीप पहुँचे तो भगवान् भास्कर की प्रचण्ड रश्मियाँ से अनुज जटायु व्याकुल हो गये । मैंने वात्सल्यलशात् उनको बचाने के लिए अपने पंखों से उन्हें ढक लिया वे तो बच गया किन्तु मेरे पंख जल गये । और निर्दग्ध पक्ष होकर मैं यहाँ विन्ध्यगिरि पर गिरा । -वा.रा.किष्किन्धाकाण्ड,
यहाँ निशाकर नामक एक महर्षि थे । मैं किसी प्रकार उनके पास पहुँचा । उन्होंने मुझे पक्षहीन देखकर कहा कि वायु के समान वेगशाली पक्षियों के राजा २भाइयों को जो गीध और कामरूपी थे जिनके नाम सम्पाति तथा जटायु थे । वे मानवरूप धारण करके मेरे चरणों का स्पर्श करते थे । उनमें तुम निश्चित ही सम्पाति हो । ये तुम्हारे पंख कैसे जल गये ?
मैंने ऋषिवर को पूरी घटना सुनायी । उन्होनें मुझे समझाते हुए कहा कि मैं अपनी तपश्चर्या के प्रभाव से तुम्हें अभी पक्षयुक्त कर सकता हूँ किन्तु भविष्य में तुम्हारे द्वारा मानवरूप में अवतरित भगवान् श्रीराम का एक कार्य सम्पन्न करना है । तब तक उनके दूतों हनुमान् आदि की प्रतीक्षा यहीं करो । और उन्हे रामपत्नी सीता का पता बतलाते ही तुम पंखयुक्त हो जाओगे । बल का अनुभव भी पूर्ववत् ही होगा ।
चाहता तो मैं भी हूँ कि लक्ष्मण सहित श्रीराम का दर्शन करूँ । किन्तु शरीर इतना जीर्णोद्धार शीर्ष हो चुका है कि इसे अधिक दिनों तक धारण करने में असमर्थ हूँ ।
ऋषि तो स्वर्ग चले गये और मैं ८००० हज़ार वर्षों से आप लोगों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मेरा पुत्र सुपार्श्व प्रतिदिन मेरे आहार की व्यवस्था करता था । एक दिन शाम को वह ख़ाली हाथ लौटा तो मैंने कारण पूंछा । उसने कहा कि महेन्द्र पर्वत पर मैं मार्ग रोककर आहार के लिए खड़ा था तभी एक कृष्णकाय पुरुष जो एक रोती हुई नारी को लेकर जा रहा था उसे पकड़ने के लिए मैंने ज्यों ही प्रयास किया कि उसने विनीत भाव से मुझसे मार्ग की याचना की । मैंने उसे छोड़ दिया । उसी समय आकाश में मुनियों की वाणी सुनायी पड़ी कि श्रीरामभार्या जानकी जीवित बच गयीं । वह लंका का राजा राक्षस रावण था जो रामपत्नी का हरण करके जा रहा था । वे शोकाकुल होकर राम और लक्ष्मण का नाम लेकर विलाप कर रहीं थीं ।
जब पुत्र के मुख से मैंने यह बात सुनी तो मैंने उसे खूब फटकारा कि तूने समर्थ होकर भी श्रीराम की पत्नी को रावण के हाथ से नहीं बचाया । महाराज दशरथ के प्रेम से मैं विह्वल हूँ । तूने अच्छा नहीं किया । –
पुत्रः संतर्जितो वाग्भिर्न त्राता मैथिली कथम् । तस्या विलपितं श्रुत्वा तौ च सीतावियोजितौ ।। न मे दशरथस्नेहात् पुत्रेणोत्पादितं प्रियम् ।-वा.रा.कि.का.-६३/७-८,
इसलिए मैंने सदा के लिए उसका त्याग कर दिया ।
आज मैं आपको सीता पुत्री का समाचार पूर्णरूपेण बतलाकर धन्य हो गया । देखो ! मेरे पंख पुनः पूर्ववत् हो गये हैं । मेरे पंखों का पुनः उग आना यह विश्वास दिलाता है कि आप वानरवीर जनकनन्दिनी का पता लगाने में अवश्य सफल होंगे -ऐसा कहकर जटायु के अग्रज सम्पाति अपने गगनगति की जिज्ञासा से उड़ गये ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar