महाभारत की माधवी पृथिवी है कोई महिला नहीं -एक सप्रमाण विवेचन
महाभारत के उद्योगपर्व में चर्चा आयी है कि विश्वामित्र जी की तपश्चर्या के समय गालव ऋषि उनकी सेवा में लगे रहे । स्वयं धर्म वशिष्ठ के रूप में उनके समक्ष आये । विश्वामित्र जी ने उनके स्वागत में चरु का निर्माण किया किन्तु अन्य तपस्वियों से प्राप्त भोजन से तृप्त होकर वे बोले -तुम अभी प्रतीक्षा करो और वे चले गये । विश्वामित्र वैसे ही खड़े रहे । १०० वर्ष वीतने के बाद पुन: आकर उन्होंने वह भोग ग्रहण किया । और बोले विश्वामित्र ! तुम्हारा क्षत्रियत्व चला गया और ब्राह्मणत्व की प्राप्ति तुम्हें हो गयी –
क्षत्रभावादपगतो ब्राह्मणत्वमुपागत: । धर्मस्य वचनात् प्रीतो विश्वामित्रस्तथाSभवत् ।।
-उद्योगपर्व-१०६/१८,
तथाSभवत्-जैसा धर्म ने कहा वैसे हो गये अर्थात् ब्राह्मण हो गये ।
इस तपश्चर्या काल में गालव ऋषि उनकी सेवा में थे । विश्वामित्र जी उनकी सेवा से प्रसन्न होकर जाने को कहे । तो उन्होंने कहा कि मैं आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ –
दक्षिणा: का: प्रयच्छामि भवते गुरुकर्मणि।-१०६/२१,
मेरे ब्रह्मचर्यव्रत की समाप्ति हुई है अत: आपको क्या गुरुदक्षिणा दूँ ? महर्षि ने समझाया किन्तु वार वार गालव के हठ करने पर कुछ क्रोधित होकर बोले ।
मुझे चन्द्र के समान देदीप्यमान ८०० श्यामकर्ण घोड़े दक्षिणा के रूप में प्रदान करो । विलम्ब नहीं होना चाहिए–
एकत: श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम् । अष्टौ शतानि मे देहि गच्छ गालव मा चिरम् ।।-१०६/२७,
गालव इस कार्य की गुरुता से मन ही मन खिन्न हो गये । और अपनी असामर्थ्यं समझकर उत्कृष्ट उपायों से प्राणत्याग का विचार करने लगे –
सोSहं प्राणान् विमोक्ष्यामि कृत्वा यत्नमनुत्तमम् ।-१०७/१३,
यदि कोई पर्वत-शिखर से लुढ़ककर या नदियों के संगम आदि में गिरकर मृत्यु का वरण करता है तो उसकी अधोगति नहीं होती है । अन्यथा प्रेतयोनि अवश्यम्भावी है ।
उस समय उनके मित्र पक्षिराज गरुड़ आकर मिलते हैं और उन्हें भूमण्डल के अनेक भागों में लेकर जाते हैं । सभी दिशाओं में भ्रमण करते हुए वे ”ऋषभ” नामक पर्वत पर शाण्डिली नामक महातपस्विनी के आश्रम पर पहुँचे । शाण्डिली ने उनका आतिथ्य-सत्कार किया । विश्राम के बाद दोनों जब सोकर उठे तो गरुड़ ने देखा कि उनके पंख नष्ट हो गये हैं और वे एक माँस के लोथड़े के समान दिख रहे हैं ।
गालव ने पूछा तुमने क्या अपराध किया ? जिसका यह परिणाम मिला । गरुड़ ने कहा कि मैं इस तपस्विनी को निकृष्ट जगह पर समझकर उत्तम स्थान पर पहुँचाना चाहता था । यह भावना मेरे अन्तस्तल में प्रकट हुई थी । शाण्डिली ने कहा कि तुमने इस प्रकार जो मेरे प्रति भावना बनायी उसी का परिणाम पक्षविनिपात है । जो मेरे प्रति किंचित् भी दुर्भावना करेगा उसकी यही दुर्गति होगी –
न च ते गर्हणीयाSहं गर्हितव्या: स्त्रिय: क्वचित् ।-११३/१६,
मैं तुम्हारे द्वारा निन्दा के योग्य नहीं हूँ । और कहीं भी स्त्रियाँ निन्दा के योग्य नहीं हैं । उन्हें पंख प्रदान करके विदा किया गया । मार्ग में विश्वामित्र जी मिले और दक्षिणा की याद दिलाई ।
अन्तत: गरुड़ जी उन्हे लेकर प्रतिष्ठान पुर के महाराज ययाति के समीप पहुँचे । उन्होंने बड़ा आतिथ्यसत्कार किया । पक्षिराज ने उन्हें बताया कि ये मेरे मित्र गालव ऋषि हैं जिन्होंने विश्वामित्र जी के समीप सैकड़ों वर्षों शिष्यता स्वीकार करके निवास किया । और उन्हें हठात् क्रुद्ध करके ८०० श्यामकर्ण अश्वों को दक्षिणा के रूप में लाने का आदेश मिला । राजन् आप सहयोग करो । महाराज ययाति ने कहा कि मित्र ! मैं इस समय उस तरह धनवान् नहीं हूँ जैसा पहले था । मेरा धन नष्ट हो गया है–
न तथा वित्तवानस्मि क्षीणं वित्तं च मे सखे ।-उद्योगपर्व-११५/६,
फिर भी तुम्हें वह वस्तु दूँगा जो इस कार्य को सम्पन्न कर देगी । आप लोग मेरी इस माधवी पुत्री को ग्रहण करें–
स भवान् प्रतिगृह्णातु ममैतां माधवीं सुताम् ।।
यह चार वंशों की स्थापना करने वाली होगी । नृपगण इसका अच्छा शुल्क देंगे ।
माधवी स्वयं पृथिवी है कोई मानवी कन्या नहीं
ध्यातव्य है कि महाराज ययाति की देवयानी और शर्मिष्ठा नामक दो पत्नियों का उल्लेख भागवतादि पुराणों में मिलता है । जिनमें देवयानी के मात्र दो पुत्र हुए-यदु और तुर्वसु । तथा शर्मिष्ठा के केवल तीन पुत्र हुए–द्रुह्यु, अनु एवं पुरु । इसके अतिरिक्त ययाति को कोई सन्तान नहीं हुई थी । फिर यह माधवी नामक कन्या कहाँ से टपक पड़ी ??
विचारणीय है कि कोई सामान्य व्यक्ति आज भी अपनी कन्या पैंसे के लिए कई पुरुषों के पास भेजना नहीं चाहेगा
। फिर ययाति जैसे महाराज जिनके यदु और पुरु जैसे पुत्र हुए जिनके कुलपरम्परा में श्रीकृष्ण ने अवतार लिया ।
वे इतना घटिया कर्म कैसे कर सकते हैं ?
यहाँ कथा का अभिधावृत्ति से अर्थ करके लोगों ने बहुत गड़बड़ किया है । यह माधवी स्वयं पृथिवी है ।
महाराज ययाति के अधिकार में रहने वाली उपजाऊ और यज्ञोपयोगी भूमि । कन्या तो उनके किसी पत्नी को हुई ही नहीं थी–यह तथ्य पूर्व में सप्रमाण सुनिश्चित हो चुका है । अत: माधवी को कन्या मानकर अर्थ करना महाप्रज्ञापराध है ।
भूमि के लिए माधवी शब्द का प्रयोग देखें –
जब भगवती मैथिली अयोध्या की राजसभा में अपनी शुद्धता के लिए शपथ लेती हैं तब कहती हैं यदि मैं श्रीराम से भिन्न किसी पुरुष का मन से भी चिन्तन नहीं की हूँ । यह सत्य है तो माधवी देवी ( भगवती पृथिवी ) मुझे अपनी गोद में स्थान दे-
यथाSहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ।।
-वाल्मीकिरामायण- उत्तरकाण्ड-९७/१४
मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ।।–९७/१५,
यदि मैं मन, वाणी, क्रिया के द्वारा श्रीराम की ही आराधना करती हूँ । तो भगवती पृथिवी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दे ।
यथैतत् सत्यमुक्तं मे वेद्मि रामात् परं न च । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ।।
–वाल्मीकिरामायण- उत्तरकाण्ड-९७/१६,
भगवान् श्रीराम को छोड़कर मैं दूसरे किसी पुरुष को नहीं जानती, मेरी कही हुई यह बात यदि सत्य है तो भगवती पृथिवी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दे ।
ध्यातव्य है कि यहाँ भगवती जानकी ने माधवी देवी शब्द तीनों प्रतिज्ञाओं में रखा है । जो भगवती पृथिवी का वाचक है । इसीलिए माधवी देवी के नाम पर स्वयं भगवती पृथिवी ही दिव्य रूप में प्रकट होकर जनकनन्दिनी को हाथों से पकड़कर सिंहासन पर बिठायीं–
तस्मिंस्तु धरिणी देवी बाहुभ्यां गृह्य मैथिलीम् ।-वाल्मीकिरामायण-उत्तरकाण्ड-९७/१९,
भगवान् माधव की पत्नी होने से भगवती पृथिवी को माधवी कहा जाता है–
यस्येयं वसुधा कृत्स्ना वासुदेवस्य धीमत: । महिषी माधवस्यैषा स एव भगवान् प्रभु: ..
-वाल्मीकिरामायण-बालकाण्ड-४०/२,
यह सम्पूर्ण पृथिवी भगवान् वासुदेव की है । यह भगवान् माधव की महिषी है । यहाँ महिषी का तात्पर्य पट्टमहिषी से है; क्योंकि पृथिवी की अवतारस्वरूपा सत्यभामा जी भगवान् की पट्टमहिषी ही थीं । पट्ट शब्द का “विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्य:” वार्तिक से लोप हो गया है, सत्या, भामा, जैसे ।
इसीलिए वाल्मीकिरामायण के सभी प्रकाण्ड मनीषियों ने ” माधवी की व्याख्या पृथिवी ही की ।
माधवी=”माधवपत्नी भूमि:”–श्रीगोविन्दराज ,
माधवी देवी = “माधवपत्नी भूदेवी”-तिलककार नागेशभट्ट
अब आप महाभारत के माधवी का इस प्रकरण से मिलान कीजिए । वहाँ माधवी को “सुरसुतप्रख्या” कहकर देवी का ही संकेत किया गया है । और वहाँ स्पष्टतया अपनी उपजाऊ यज्ञकर्मोपयोगी भूमि को महाराज ययाति ने “माधवी” शब्द देकर पृथिवी का संकेत भी कर दिया है । आलंकारिक वर्णन करते हुए उस तथ्य को इस ढंग से प्रस्तुत किया गया कि उसके रहस्य को मर्मज्ञ ही समझ सकते हैं ।
और उस कथानक को अभिधाशक्ति से अर्थ करके इतना विद्रूप कर दिया गया कि लोग नाटकों के माध्यम से समाज को गुमराह तक करने लग गये ।
यह माधवी ययाति की भूमि है । जिस पर १-१ वर्ष चार राजाओं ने अपनी इच्छानुसार उसका उपभोग करके अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति की । भूमि का स्वामी होने के कारण ही राजा को “भूपति” कहा जाता है । यही पृथिवीस्वरूपा माधवी और उसके चार पतियों अर्थात् भूपतियों का उल्लेख महाभारत की माधवीकथा का रहस्य है । उत्तम भूमि से लाभ लेने का सबको अधिकार है-यह सूत्र भी यहीं से मिलता है ।
पृथिवी पर अनेक राजा हुए । पृथिवी सबकी प्रियतमा बनी । सब भूपति कहलाये । –
दीप दीप के भूपति नाना । आये सुनि हम जो पनु ठाना ।।
देव दनुज धरि मनुज शरीरा । विपुल वीर आये रनधीरा ।।
-रामचरितमानस-बालकाण्ड -२५१/७-८,
किन्तु वह व्यभिचारिणी नहीं कही गयी । राज्याभिषेक ही मानों पृथिवी के साथ विवाह है । इस प्रकार भगवती पृथिवी को आज तक नाना नृपों की पत्नीरूप में मानकर राजाओं को भूपति कहा गया । व्यभिचारिणी या जातपुत्रा होने से खण्डितकौमार्या नारी से विवाह नहीं किया जा सकता । अत: भूपति और भूमि के इन सम्बन्धों को ध्यान में रखकर महाभारत में माधवीकथा पृथिवी के द्वारा विकास की वर्णना है । किसी मानवी कन्या का यहाँ कोई सम्बन्ध ही नहीं ।
इसीलिए स्वयंवर के प्रसंग में पुरु और यदु के साथ भारी समाज में माधवी किसी पुरुष का पतिरूप में वरण नहीं करती हैं । अपितु सुन्दर वन का वरण करती है ।–
वरानुत्क्रम्य सर्वांस्तान् वरं वृतवती वनम् ।।-महाभारत, उद्योगपर्व-१२०/५,
तात्पर्य यह कि अन्त में उस भूमि पर सुन्दर वन लगवाया गया । जिसमें नाना प्रकार के आकर्षक हिरण इत्यादि विचरण करते थे ।
शंका- ययाति राजा थे । इसलिए अन्य राजाओं की भाँति उस भूमि का पति उन्हें भी क्यों न कहा जाय ?
समाधान- अर्धसत्य है किन्तु महाराज ने उस भूमि की गुणवत्ता और प्रभाव देखकर उसे सार्वजनिक विकास कार्य हेतु चुना था ।
और उस पर अनेक राजाओं के साथ महर्षि विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि ने अपना अभीष्ट प्राप्त किया । वस्तुत: चार वंशों की स्थापना (
तस्मात् चतुर्णां वंशानां स्थापयित्री सुता मम ।-उद्योगपर्व-११५/११, ) का तात्पर्य राजाओं द्वारा उस भूमि से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति से है ।
विश्वामित्र जी चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए ही गालव से बोले कि इसे पहले ही हमें क्यों न दे दिये । यह भूमि बहुत दिव्य है । चूंकि वह भूमि गंगा और यमुना के संगम पर थी । इधर नदियों के संगम पर साधना करने से भगवत्प्राप्ति में अभूतपूर्व सहयोग मिलता है । उस पर भी रमणीय वन हो तो कहना ही क्या !!
इसलिए माधवी ने पतिरूप में वन का वरण किया अर्थात् उस भूमि में वन लगाया गया । नदियों के तट या संगम
पर यज्ञ आदि होते थे । इसलिए चार राजाओं ने उस भूमि पर यज्ञ आदि किया । अन्त में उसे मोक्षोपयोगिनी साधना हेतु सुरम्य वन से युक्त कर दिया गया । यही भूमि द्वारा पतिरूप में वन का वरण है । अब गंगायमुना के संगम और अद्भुत रमणीय वन में मणिकाञ्चनयोग बन गया । जो सहज ही सबको अभीष्ट था । यही माधवी की कथा का रहस्यार्थ है ।
वह कोई मानवी नहीं जिसको भोग की वस्तु समझकर एक पिता चार चार राजाओं के पास भेज दे । और न ही इस प्रकार कोई प्रतिष्ठित संयमी व्यक्ति किसी भोगी हुई नारी को पत्नी ही बनाना चाहेगा । उस पर भी विश्रुत प्रभावशाली राजाओं की तो बात ही दूर है । हमें शकुन्तला और महाराज दुष्यन्त के कथानक का स्मरण करना चाहिए कि थोड़ी सी भूल होने पर उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया था ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar