महाव्याहृतियुक्त गायत्री मन्त्र का विशद अर्थ

महाव्याहृतियुक्त गायत्री मन्त्र का विशद अर्थ

ॐ=परमात्मा का प्रसिद्ध नाम,

“तस्य वाचकः प्रणवः”-योगदर्शन, परमात्मा का वाचक प्रणव अर्थात् ओङ्कार

भूर्भुवःस्वः–

भूः —भूलोक

भुवः —भुवर्लोक

स्वः—स्वर्गलोक

यहां इन तीनों लोकों के वाचक क्रमशः भूर्भुवःस्वः ये तीनों शब्द हैं ।

किन्तु लोक तो १४ हैं । अतः इन तीनों लोकों से भिन्न अन्य लोकों का

उपलक्षण स्वः शब्द है ।

उपलक्षण उसे कहते हैं जो अपने वाच्य अर्थ का बोध कराते हुए अन्य अर्थ

का भी बोध कराये —

“स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम्”

अथवा स्वः पद की पूर्वोक्त दोनों लोकों से भिन्न अन्य समस्त लोकों

में लक्षणा है ।

जैसे किसी ने बच्चे से कहा कि ” काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् ” कौओं से दही की

रक्षा करना । अब वह बालक कौओं से दही बचाये और बिल्ली या कुत्ते आदि से उसकी रक्षा

न करे—इसमें तो “काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्” इस कथन का तात्पर्य नहीं है ।

अतः उस वाक्य में काक पद की दध्युपघातक में लक्षणा स्वीकृत है । अर्थात दही

को हानि पहुंचाने वाले कौआ बिल्ली आदि सभी जीवों का बोधक वहां काक पद

को माना गया ।

ठीक इसी प्रकार स्वः पद केवल स्वर्ग का नहीं अपितु महः जनः तपः

सत्यलोक तथा नीचे के तल, वितल, सुतल,तलातल, रसातल और पाताल

इन सभी लोकों का उपलक्षणविधया बोधक है ।

अब “भूर्भुवःस्वः” का अर्थ हुआ पूर्वोक्त चौदहों लोकों को,

सवितुः –उत्पादयितुः –उत्पन्न करने वाले,

षूड़् प्राणिप्रसवे –प्रसवार्थक सू धातु से तृच् प्रत्यय करके “सवितृ” शब्द बनता है। उसकी षष्ठी विभक्ति

का रूप है –सवितुः ।

देवस्य —देव के

अर्थात् चतुर्दश ( १४ ) लोकों के उत्पादक परमात्मदेव के अर्थात् सम्पूर्ण विश्व–अनन्तानन्त ब्रह्माण्ड के

उत्पादक परब्रह्म देवाधिदेव भगवान् के

तत् –उस

वरेण्यं –वरण करने योग्य सर्वश्रेष्ठ

भर्गः –तेज का

धीमहि —हम ध्यान करते हैं ।

यो–जो अर्थात वे भगवान्

नः –हम लोगों की

धियः —बुद्धियों को

प्रचोदयात्—सत्कर्म –माता पिता , परिवार समाज और राष्ट्र आदि की सेवा तथा अपने दिव्य सच्चिदानन्दघन

स्वरूप में प्रेरित करें अर्थात् लगायें ।

इस प्रकार गायत्री महामन्त्र का कितना उदात्त भाव है कि इसका जापक “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से

ओतप्रोत होने के साथ सहिष्णुता आदि सद्गुण से युक्त होकर समग्र विश्व किम्वा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कल्याण

करने में सक्षम हो जाता है ।

समाज किंवा समग्र विश्व के समक्ष जटिल समस्याओं के रूप में उभरे हुए जातिवाद, भाईभतीजावाद, उत्कोचवाद,

पार्टीवाद, आतंकवाद जैसे समस्त विषमय वादों से ऊपर उठकर सम्पूर्ण विश्व को एक नई दिव्य चेतना देकर सबका

मित्र बन जाता है ।

उसकी इस दिव्यता का प्रभाव चारों तरफ फैल जाता है । जिससे प्रभावित होकर हिंसक क्रूर जीव भी अपने जन्मजात

स्वभाव को त्यागकर परस्पर मैत्रीभाव से संसिक्त हो जाते हैं ।

जिसका उदाहरण हमारे ऋषियों के आश्रम में नेवला और सर्प का एक साथ क्रीडा करना गौ और सिंह का एक साथ

प्रेमपूर्वक पानी पीना आदि है । ऐसे परम प्रभावशाली गायत्री महामन्त्र के उपासकों के कारण ही भारत विश्वगुरु बना

हुआ था ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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