रावण से भी अधिक ज्ञानी पक्षिप्रवर भक्तराज जटायु
जब श्रीराम ने मारीच का वध करने के बाद वैदेही के विना ही लक्ष्मण जी को आते देखा तो पूंछा -लक्ष्मण !
मैंने सीता की रक्षा का दायित्व तुम्हें सौंपा था । उनको छोड़कर अकेले ही यहाँ क्यों चले आये । लक्ष्मण जी ने जानकी जी द्वारा कहें गये वचनों को सुनाकर कहा कि आप के सदृश “लक्ष्मण ! मुझे बचाओ” -ऐसी वाणी सुनकर माँ मैथिली ने मुझे आपकी रक्षा हेतु आने के लिए प्रेरित किया ।
उस समय मैंने उन्हें समझाते हुए कहा -”जो सम्पूर्ण देवताओं की रक्षा में भी परम समर्थ हैं ऐसे मेरे श्रेष्ठ भाई ‘लक्ष्मण मेरी रक्षा करो’-इस प्रकार वीरों के लिए निन्दनीय वचन नहीं बोल सकते । यह वाणी उस नीच मारीच की ही है जो भैया के स्वर में बोल रहा है । देवि ़! आप चिन्ता न करें । तीनों लोकों में अब तक कोई वीर न हुआ है, न हो रहा है और न होगा ही जो युद्ध में श्रीराम को पराजित कर सके ।
मातः ! भैया अजेय हैं । देवराज इन्द्र भी समस्त देवों के साथ मिलकर उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकते । –
न चास्ति त्रिषु लोकेषु पुमान् यो राघवं रणे ।। जातो वा जायमानो वा संयोगे यः पराजयेत् ।
अजेयो राघवो युद्धे देवैः शक्रपुरोगमैः ।।-वा.रा.अर.का.-५९/१४-१५, इतना समझाने पर भी उन्होंने जो कटु वचन अपने मुख से निकाला उसे मैं सहन न कर सका और यहाँ चला आया ।। अस्तु।।
जब श्रीराम अनुज लक्ष्मण के साथ लौटे । तब आश्रम में जानकी जी को न पाकर उनका अन्वेषण करने
लगे । वृक्षों लताओं पशु पक्षियों से सीता जी का पता पूंछते हुए प्रभु आगे बढ़ रहे हैं । प्रभु के सीतावियोगोत्थ संताप का वर्णन महर्षि ने इस प्रकार किया है कि सहृदय का हृदय अश्रुमय होकर चक्षुरन्ध्रों से अवश्य बाहर निकल पड़ेगा ।
मृगों ने श्रीराम की वाणी सुनकर सीता जी का पता बताने की चेष्टा की । लक्ष्मण जी ने कहा भैया ! आपने जब जनकनन्दिनी के बारे में पूंछा तो ये मृग सहला उठकर खड़े हो गये और आकाश की ओर मुख करके दक्षिण दिशा की ओर चल रहे हैं तथा बार बार मुड़कर आपकी ओर देख रहे हैं । और कुछ बोल भी रहे है । इससे ये स्पष्ट कह रहे हैं कि विदेहनन्दिनी दक्षिण दिशा की ओर गयीं हैं । अतः हमें उनका अन्वेषण इसी दिशा में
करना चाहिए ।
आगे बढ़ने पर जानकी जी के धारण किये पुष्प, राक्षस के पैर तथा वैदेही के पादचिह्नों के साथ ही टूटा धनुष,तरकस,छत्र,कवच,पिशाचमुख गंधों के शव आदि पड़े हैं । लगता है सीता को खाने की इच्छा से राक्षसों में परस्पर युद्ध हुआ है । इन कामरूपी निशाचरों के साथ अब मेरा वैर सौगुना अधिक बढ़ गया है ।
धर्म या देवताओं ने भी सीता की रक्षा नहीं की । लोहित में तत्पर मृदु स्वभाव वाले मुझे इन देवताओं ने भी पराक्रमहीन समझ रखा है । आज मेरी मृदुता गुण न होकर दोष बन गयी है । तभी तो मुझे निर्बल समझकर मेरी पत्नी का अपहरण किया गया है ।
अब मैं अपने समस्त गुणों का संवरण करके अपना प्रचण्ड तेज प्रकट करता हूँ । जो सम्पूर्ण राक्षसों के विध्वंस का कारण होगा । अब यक्ष, गन्धर्व, किन्नर,पिशाच, देवता या दैत्य कोई भी नहीं बचेंगे । मेरी बाणवर्षा और दिव्यास्त्रों के प्रभाव से ग्रहों की गति नष्ट हो जायेगी, चन्द्र, सूर्य का तेज विनष्ट हो जायेगा । पर्वतों के शिखर छिन्न भिन्न हो जायेंगे । सम्पूर्ण समुद्रों को सुखाकर नष्ट कर दूँगा । अब कुछ भी नहीं बचेगा । देवता, दैत्य, यक्ष आदि सभी के लोकों को तहस नहस कर दूँगा । यदि इसी समय देवगण मेरी प्रियतमा सीता को मुझे नहीं
लौटाते ।
ऐसा कहकर क्रुद्ध श्रीराम ने वल्कल और मृदचर्म को कसकर बाँध लिया तथा जमाओं को बाँधकर त्रिपुर के विध्वंस हेतु उद्यत रुद्रवत् भयंकर दिखने लगे । उनके नेत्र क्रोध से लाल हो चुके थे और ओष्ठ फड़कने लगे ।
लक्ष्मण से अपना धनुष् लेकर उन्होंने तत्काल उस पर काल के समान भीषण बाण चढ़ाया और लक्ष्मण से बोले -सुमित्रानन्दन ! जिस प्रकार वृद्धावस्था,मृत्यु या काल को समस्त प्राणियों में कोई नहीं रोक सकता । उसी प्रकार आज मुझे कोई नहीं रोक सकता । मैं देवता,मनुष्य,नाग और पर्वतों तथा सम्पूर्ण जीवों के सहित इस संसार को नष्ट कर दूँगा । यदि मेरी प्रियतमा सीता मुझे नहीं दे दी जाती है ।
लक्ष्मण जी ने श्रीराम का ऐसा भयंकर स्वरूप कभी नहीं देखा था । भावीविनाश की घड़ी सामने प्रत्यक्ष देखकर उनका मुख सूख गया । उन्होंने हाथ जोड़कर कहा -प्रभो ! आप समस्त प्राणियों के हित में सदा तत्पर, जितेन्द्रिय और परम सरल रहे हैं । आज आप अपने स्वभाव का परित्याग न करें । सूर्य में प्रभा, वायु में गति और पृथ्वी में क्षमा की भाँति समस्त सद्गुण तथा अनुपम यश ने आपका आश्रय ले रखा है । केवल एक के अपराध से सम्पूर्ण संसार को आपको नष्ट नहीं करना चाहिए । पहले हमें इन टूटी हुई वस्तुओं के विषय में पता लगाना चाहिए । जैसे यज्ञ में दीक्षित पुरुष का अहित उसके ऋत्विज नहीं कर सकते । वैसे ही समस्त प्राणियों के हित में तत्पर आपका अहित नदी, पर्वत, समुद्र ,देवता एवं दानव भी नहीं कर सकते ।
हम पहले सम्पूर्ण स्थलों में जनकपुत्री का अन्वेषण करेंगे । फिर भी वे यदि नहीं मिलीं तब आप अपने तीक्ष्ण बाण से सम्पूर्ण लोकों का नाश कर डालियेगा । इस पर भी श्रीराम का क्रोध शान्त नहीं हुआ तब लक्ष्मण जी ने कहा -भैया ! आपत्तियाँ किस पर नहीं आतीं । गुरुवर वशिष्ठ ने १०० पुत्रों को १ही दिन में खो दिया । सम्पूर्ण प्राणियों की आश्रयस्वरूपा इस पृथिवी को भी भूकम्प से पीड़ित देखा जाता है। लोकोपकारक सूर्य और चन्द्रमा भी राहु द्वारा ग्रसे जाते हैं । संसार में सामान्य प्राणी से लेकर देवता तक दुःख प्राप्त करते हैं । अतः धीर पुरुष को आपत्ति के समय घबड़ाकर कोई अनुचिक कार्य नहीं कर बैठना चाहिए ।
भैया ! आपने ही पहले ये बांते मुझे बतलायीं थीं । आपकी बुद्धि साक्षात् बृहस्पति के समान है । आपको कौन शिक्षा दे सकता है । इस समय शोक के कारण आपका ज्ञान सुप्तप्राय जैसा हो गया है । इसलिए मैं मात्र स्मरण दिला रहा हूँ । आपको उसी शत्रु का विनाश करना चाहिए जिसने देवी सीता का हरण किया है । आप अपने दिव्य और मानवोचित पराक्रम का विचार करके शत्रुवध हेतु तत्पर हो जांय ।
अनुज लक्ष्मण की प्रार्थना का प्रभाव प्रभु पर पडा । वे धनुष् पर बाण चढ़ाये हुए शत्रु का अन्वेषण करने लगे कि
उनकी दृष्टि भूमि पर पड़े हुए रक्त से लथपथ पर्वत के समान विपुलकाय जटायु पर पड़ी । वे लक्ष्मण जी से बोले -सुमित्रानन्दन ! ये सीता का भक्षण करके गीधरूप में बैठा हुआ कोई निशाचर है । इसे मैं अभी मार डालता हूँ -ऐसा कहकर जटायु की ओर बढ़े । तब जटायु ने फेनयुक्त रक्त वामन करते हुए कहा-श्रीराम ! जिसे तुम औषधि की भाँति ढूँढ रहे हो उन सुकुमारी सीता और मेरे प्राण इन दोनों का हरण रावण ने किया है ।
उन्होंने युद्ध का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा कि जब मैं युद्ध करते करते थक गया तब दुष्ट दशग्रीव ने अपनी तलवार से मेरे पंख काट डाले और पुत्री सीता को लेकर आकाशमार्ग से चला गया ।
जटायु की इस अवस्था को देखकर प्रभु ने अपना धनुष फेंक दिया और उनसे लिपटकर रुदन करने लगे। पिता की भाँति पक्षिराज के प्रति प्रेम प्रकट करते हुए प्रभु ने उनका स्पर्श किया । जटायु ने मरणासन्न
अवस्था में श्रीराम से कहा कि रावण ने अपनी माया फैलाकर महान् झंझावात तथा मेघों की घटा उत्पन्न करके पुत्री जानकी का हरण किया है । मैं युद्ध में जब अत्यधिक थक गया तब उसने खड्गप्रहार से मेरे पंख काट डाले । और दक्षिण दिशा में चला गया । “वस्तुतः युद्ध के नियमानुसार थके हुए योद्धा पर प्रहार वर्जित
है । किन्तु राक्षसों की युद्धपरिभाषा ही दूसरी है । वे विजय चाहते हैं चाहे जैसे मिले आज के आतंकवादी मुसलमानों की तरह ।”
पक्षिराज जटायु का अद्भुत ज्योतिषज्ञान
राघव जिस मुहूर्त में रावण ने पुत्री सीता का हरण किया है । वह “विन्द” नामक मुहूर्त था । किन्तु हे काकुत्स्थ ! वह दुष्ट इसे समझ न सका । इस मुहूर्त में चुराया गया धन उसके स्वामी को शीघ्र ही प्राप्त होता है ।-
येन याति मुहूर्तेन सीतामादाय रावणः । विप्रणष्टं धनं क्षिप्रं तत्स्वामी प्रतिपद्यते ।।
विन्दो नाम मुहूर्तोSसौ न च काकुत्स्थ सोSबुधत् ।-वा.रा.अर.का.-६८/१२-१३,
वह साक्षात् विश्रवा का पुत्र तथा कुबेर का भाई है-इतना कहकर पक्षिराज जटायु ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया ।
भगवान् राम ने कहा-सौमित्रे ! देखो- ये पक्षिराज कितने उपकारी थे । इन्होंने पितृपितामह की परम्परा से प्राप्त राज्य की चिन्ता न करते हुए मेरे लिए अपने प्राणों को निछावर कर दिया । लक्ष्मण ! धर्मात्मा,वीर,साधु,और शरणागतरक्षक प्राणी प्रत्येक योनि में मिलते हैं चाहे वह तिर्यक् योनि ही क्यों न हो । मुझे सीताहरण का उतना दुःख नहीं है जितना मेरे पिता के परम मित्र जटायु की मृत्यु से ।
ये मेरे पिता दशरथ के समान ही मान्य और पूजनीय हैं । पिता का और्ध्वदैहिक संस्कार तो मैं न कर सका किन्तु इनका संस्कार अवश्य करूँगा । भगवान् राम ने वैदिक विधि से जटायु का दाहसंस्कार आदि
सम्पन्न किया । और उन्हें अपना परम धाम प्राप्त कराया । वे श्रीहरि के समान रूप धारण करके भगवद्धाम
चले गये –
संस्कारमकरोत्तस्य रामो ब्रह्मविधानतः । स्वपदं च ददौ तस्मै सोSपि रामप्रसादतः ।।
हरेः सामान्यरूपेण प्रययौ परमं पदम् ।-वा.रा.अर.का.६८/२९ की तिलकटीका ।
महर्षियों के लिए जो विधान है उस विधान से भक्तप्रवर जटायु के सब संस्कार सम्पन्न हुए –
“महर्षिकल्पेन च संस्कृतस्तदा”–वा.रा.अर.का.-६८/३७,
इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि मृत्यु के समय जिसकी स्मृति के लिए आजीवन महर्षिगण विविध तपश्चर्या के साथ श्रवण,मनन और निदिध्यासन करते हैं । वे प्रभु सच्चिदानन्द ब्रह्म श्रीराम स्वयं
भक्त जटायु का अपने करकमलों से संस्कार कर रहे हैं । धन्य हैं पक्षिराज जटायु जिनके जन्म से भारतीय वसुन्धरा धन्य हो गयी ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar