व्याकरणदृष्ट्या भी “संकर सुवन” पाठ ही “हनुमानचालीसा” में सर्वथा प्रामाणिक है, अन्य नही
शब्दकल्पद्रुम में प्रमाणपूर्वक यह तथ्य प्रस्तुत किया गया है –
मङ्गलकारके, त्रि, यथा–
“क्षेमङ्करोSरिष्टतातिःस्याद्भद्रङ्करशङ्करौ।।”-इति त्रिकाण्डशेषः । और शङ्कर शब्द के मङ्गलकारक अर्थ में महाभारत का प्रमाण भी प्रस्तुत किया गया है — “हिरण्यगर्भ भद्रं ते लोकानां शङ्करो भव ।।”-३/२२८/६, । मङ्गल और कल्याण पर्यायवाचितया पठित हैं–” कल्याणं मङ्गलं शुभम् ।।”-अमरकोष-१/४/२५
इधर हनुमान् जी के आराध्य करुणानिधान भगवान् श्रीराम का नाम समस्त कल्याणों का निधान है । स्वयं
आञ्जनेय इस तथ्य का वर्णन “हनुमन्नाटकम्” के मङ्गलश्लोक से करते हुए कहते हैं –
कल्याणानां निधानं कलिमलमथनं पावनं पावनानां पाथेयं यन्मुमुक्षोः सपदि परपदप्राप्तये प्रस्थितस्य ।
विश्रामस्थानमेकं कविवरवचसां जीवनं सज्जनानां बीजं धर्मद्रुमस्य प्रभवतु भवतां भूतये राम नाम ।।१।।
अर्थ–जो समस्त कल्याणों का आश्रय है , कलि के मलों को नष्ट करने वाला, और पवित्रों को भी पवित्र करने वाला है । जो सद्यः मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रस्थान करने वाले मुमुक्षुओं के लिए मार्ग का पाथेय है और श्रेष्ठ वाल्मीकि आदि कवियों के वाणी का मुख्य विश्राम स्थान है अर्थात् रामनाम के जप से ही उनकी श्रान्त वाणी को विश्रान्ति का अनुभव होता है । जो सत्पुरुषों का जीवन है अर्थात् रामनाम जप के विना वे अपने को प्राणहीन समझते हैं ।
( इसीलिए “श्रीरामानन्दसम्प्रदाय” में “रामनाम” को आहार कहा गया है । आश्रमों में प्रवेश करने पर सन्तों से पहले टकशाल पूंछा जाता था । जिसमें “सन्तों का आहार क्या है ?”-ऐसा पूंछने पर यदि “रामनाम” उत्तर मिलता था तब आश्रम में प्रवेश मिलता था । आज वह प्रक्रिया लुप्तप्राय हो चुकी है । )
जो राम नाम धर्मरूपी वृक्ष का बीज है अर्थात् रामनाम का आश्रय लेने से प्राणी का जीवन धर्ममय हो जाता
है । इस प्रकार रामनाम की महत्ता बुलाकर हनुमान् जी महाराज हम सबको आशीष् दे रहे हैं कि ऐसा प्रभावशाली रामनाम आप लोगों के सर्वविध सम्पत्ति के लिए हो अर्थात् कल्याण के लिए रामनाम का आश्रय लो, सभी विघ्नों को दूर मैं करूँगा ।।
अतः सर्वविध कल्याणकारक रामनाम है जिसे “संकर सुवन” शब्द में शङ्कर शब्द के अपभ्रंस संकर शब्द से कहा गया है । शङ्करं-कल्याणकारकं रामनाम, सु-सुष्ठु, वनति-शब्दयति कीर्तयति इति शङ्करसुवनः–जो कल्याणप्रद रामनाम का सुन्दर कीर्तन करने वाले हैं । ऐसे हनुमान् जी “संकर सुवन” – शब्द से बोध्य हैं । और इस अभिप्राय को गोस्वामी जी “सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ।।”-मानस,१/२६/६ से प्रकट कर चुके हैं ।
यदि कोई कहे कि नामस्मरण और नामजप में भेद है अतः मानस का उक्त प्रमाण ठीक नहीं, तो मैं उस कथयिता से यही कहूँगा कि वह उसके पूर्व की ४-५ चौपाइयों पर दृष्टिपात करे जिसमें प्रह्लाद और ध्रुव द्वारा नामजप की ही बात कही गयी है ।
स्मरण या कोई भी ज्ञान हो वह शब्द से असंसृष्ट नहीं होता –
“न सोSस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते ।।”
—वाक्यपदीय,ब्रह्मकाण्ड-१२३,
अर्थात् हनुमान् जी केसरीनन्दन हैं और मंगलमय रामनाम का सुन्दर कीर्तन करने वाले हैं । ऐसा कीर्तन जिससे प्रभु राम उनके वश में हो गये । यही कीर्तन की सुन्दरता भी है । वह कीर्तन क्या ? जिससे भगवान् राम की कौन कहे, अपना मन भी वश में न हुआ हो ।
अतः व्याकरणदृष्ट्या भी गोस्वामी जी का “संकर सुवन” शब्द विलक्षणकीर्तनकारित्वरूपवैशिष्टयविशेष के साथ हनुमान् जी का अभिधायक है । अत एव किसी प्रकार विरोधाभास के लेश मात्र की भी सम्भावना न होने से तद्विरुद्ध स्वकपोलकल्पित “संकर स्वयं” पाठ सर्वथा अनुचित एवं अप्रामाणिक ही है । और “संकर सुवन” पाठ ही “नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् –” –मानस-१/श्लोक-७,की प्रतिज्ञा करने वाले गोस्वामी जी के अनुसार शिवमहापुराण से भी प्रमाणित भी किया जा चुका है ।
जय श्रीराम
जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृतिः
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar