श्रीसूक्त मन्त्र-५

श्रीसूक्त मन्त्र-५

ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् |
तां पद्मनीमीं शरणमहं प्रपद्ये अलक्षमीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ||५||

व्याख्या—चतुर्थ ऋचा द्वारा भगवती श्रीदेवी का आवाहन किया गया | किन्तु इस ऋचा द्वारा उनकी शरणागति की जा रही है | जिसका परिणाम है कि वे कभी मुझ उपासक का त्याग न करें क्योंकि शरणागत का त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए—

ऐसा हमारे आर्ष ग्रन्थों में समुपवर्णित है—शत्रु भी यदि भयभीत होकर शरण में आये तो उसे भी नही मारना चाहिए –

बद्धाञ्जलिपुटं दीनं याचन्तं शरणागतम् | 
न हन्यादानृशनस्यार्थमपि शत्रुं परन्तप ||

–यहाँ अपि शब्द से कैमुत्यन्यायेन यह द्योतित किया गया कि जब शरणागत शत्रु का भी हनन निषिद्ध है तब शत्रु से भिन्न प्राणी शरण में आ जाय तो उसे तो कभी मारना ही नही चाहिए अपितु रक्षा ही करना सबका पुनीत कर्तव्य है ||–२७, शत्रु यदि दुखी हो या अभिमानी, शरण में आने पर प्राणों का मोह त्यागकर उसकी रक्षा करनी चाहिए ||–२८, 

यदि शरणागत की रक्षा भय या मोह अथवा किसी अन्य किसी कारण न की जाय तो इस अरक्षणरुपी पापकर्म की लोक में बड़ी निंदा होती है ||-२९, यदि शरण में आया हुआ प्राणी रक्षक से रक्षित हुए विना उसके देखते हुए नष्ट हो जाय तो तो उसके सम्पूर्ण पुण्य को लेकर चला जाता है ||

३०,इस प्रकार शरणागत की रक्षा न करने में महान दोष है | शरणागत का त्याग स्वर्ग और सुयश को नष्ट करने वाला तथा बल वीर्य का विनाशक है ||–३१,–ये वचन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के हैं |–वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड, सर्ग १८, 

अतः यहाँ श्रीदेवी की शरणागति की जा रही है –चन्द्रां—चन्द्रमा के समान आह्लादित करने वाली |

अथवा चन्द्रमा से पृथक् न होने वाली, वाल्मीकि रामायण में भगवान् श्रीराम ने कहा है कि लक्ष्मी चन्द्र से भले ही चली जांय, हिमालय हिम का त्याग कर दे ओर सागर अपनी मर्यादा का अतिक्रमण ही क्यों न कर दे | पर मैं अपने पिता की (१४ वर्ष वनवास रूपी ) प्रतिज्ञा का त्याग नहीं कर सकता—लक्ष्मीश्चन्द्रादपेयाद्वा हिमवान् वा हिमं त्यजेत् |अतीयात् सागरो वेलां न प्रतिज्ञामहं पितुः ||- अयोध्याकाण्ड-११२/१८, 

यद्वा चदि आह्लादने धातु से सिद्ध चन्द्रां का अर्थ है –परमानन्दरूपिणी ,

प्रभासां—प्र—प्रकृष्टतया—उत्कृष्टरूपेण,भासां—भासमानां—“ यस्य भासा सर्वमिदं ” श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाली ब्रह्मस्वरूपा, 

यशसा- शरणागतरक्षण रूप यश से, भगवान् की अपेक्षा अधिक, ज्वलन्तीं— ख्याति के कारण देदीप्यमान | 

भगवान् श्रीराम की शरण में विभीषण जी के आने की सूचना मिलने पर प्रभु ने सुग्रीव आदि से विचार विमर्श किया कि “ उसे शरण में लेना चाहिए या नही ”—इस पर अपने अपने विचार प्रकट कीजिये—वाल्मीकि रामायण,युद्धकाण्ड,सर्ग-१७, 

किन्तु जिन राक्षसियों ने जानकी जी को अशोक वाटिका में अपने अस्त्र शस्त्रों से अनेक प्रकार का भय दिया, खा जाने तक की धमकी दी, देखें –वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड सर्ग-२४/३७से ४७ श्लोक तक | 

उन निशाचरियों को जब त्रिजटा ने समझाते हुए कहा कि यदि तुम लोग अपना जीवन चाहती हो तो जनकनंदिनी को प्रसन्न करो,क्योंकि श्रीराम से समस्त राक्षसों पर मृत्यु आ पहुंची है,वे निश्चित ही विजय प्राप्त करेंगे ,जैसा की मैंने स्वप्न देखा है |

अरी दुष्टाओं! ये मिथिलेशनन्दिनी केवल प्रणाम करने मात्र से प्रसन्न हो जाती हैं और तुम लोगों की मृत्यु रुपी महाभय से रक्षा कर लेंगी—“ प्रणिपातप्रसन्ना हि मैथिली जनकात्मजा | अलमेषा परित्रातुं राक्षस्यो महतो भयात् ||–वा.रा.सु .का.२७/४६, 

राक्षसियों ने प्रणाम भी नही किया पर श्री जी अपने स्वामी के विजय की बात सुनकर ही बोल पड़ीं—“ यदि ऐसी बात है तो मैं तुम सबकी रक्षा कर लूंगी ”—ततः सा ह्रीमती बाला भर्तुर्विजयहर्षिता | अवोचत् यदि तत् तथ्यं भवेयं शरणं हि वः ||-सुन्दर काण्ड, २७/५४, 

सुधी जन विचार करें कि विभीषण के शरण में आने पर श्रीराम ने सुग्रीवादि से वृहद् विचार किया कि विभीषण के विषय में आप सबकी क्या राय है ? किन्तु किशोरी जी ने शरण में आने की बात तो छोडिये, राक्षसियों के प्रणाम की भी अपेक्षा न करके सबको शरण में ले लिया –“ भवेयं शरणं हि वः ”– २७/५४, | 

इससे यह प्रमाणित हुआ कि प्रभु की अपेक्षा शरणागत के रक्षण में श्री किशोरी जी श्रेष्ठ हैं | 

अतः “ यशसा ज्वलन्तीं का अर्थ है कि प्रभु की अपेक्षा शरणागत रक्षणरुपी कीर्ति से प्रकाशित स्वरूप वाली | लोके –१४ लोकों में,  >

देवजुष्टां—देवैः –इन्द्रादिभिः –इन्द्र आदि देवों से, जुष्टां—सेविताम्—सेवित होने वाली अर्थात् इन्द्र आदि देव गण जिनकी सेवा करते हैं | अथवा देवेन—श्रीरामेण ,जुष्टां—प्रीतिविषयीकृतां, भगवान् की अतिशय प्रीतिभाजन ,

भगवान श्रीराम ने श्री जानकी जी से कहा है कि सीते ! इस समय तुम्हारे विना मुझे स्वर्ग भी अच्छा नही लगता— “ नेदानीं त्वदृते सीते स्वर्गोsपि मम रोचते ” |–वा.रा.अयोध्याकाण्ड,३०/४२, 

स्वयं जानकी जी ने अपने प्रति श्रीराम की प्रीति का वर्णन रावण से करते हुये कहा है—“ राघवस्य प्रियां भार्यामधिगन्तुं त्वमर्हसि ”-अरण्यकाण्ड,४७/४१, दुष्ट ! तू राघव की प्रिय पत्नी को प्राप्त करना चाहता है ? 

श्रीजानकी जी भगवान् राम को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं—“ ह्रियमाणां प्रिया भर्तुः प्राणेभ्योSपि गरीयसीम् |–अरण्यकाण्ड,४०/३४, जटायु ने भी श्री सीता जी को श्रीराम की प्रिय पत्नी कहा है—रामस्य महिषीं प्रियाम् ||-अर.का.५०/२६, 

श्रीराम की प्रीति श्रीजानकी जी में कितनी है –इसे जानने के लिए “ सीताSन्वेषण प्रकरण ” रामायण में ६० से ६७ सर्ग तक अरण्य काण्ड का पढना चाहिए | लक्ष्मण ! मैं सीता के विना जी नही सकता—“ न त्वहं तां विना सीतां जीवेयं हि कथञ्चन ”—अर.का.६२/१६, सीता मेरी प्रियतमा है—“ मम दयिततमा हृता वनात् ”—किष्किन्धा काण्ड,६/२७, 

हनुमान् जी से जानकी जी ने इसी तथ्य को बड़े सुस्पष्ट शब्दों में कहा है कि “ मेरे स्वामी को मुझसे अधिक या मेरे समान न तो माता प्रिय है और न पिता ही और न ही कोई अन्य—“ न चास्य माता न पिता न चान्यः स्नेहाद् विशिष्टोSस्ति मया समो वा ”|–सुन्दर काण्ड,३६/३०, 

यह केवल श्रीराम या सीता जी की ही बात नही है | अयोध्या की समस्त नारियां भी यह सत्य स्वीकार करती हैं—“ अमन्यन्त हि ता नार्यो रामस्य हृदयप्रियाम् ” |–अयोध्याकाण्ड,१६/४१, अतः “ देवजुष्टां ” का अर्थ है “ भगवान को अतिशय प्रिय | 

जानकी जी को श्री की भी श्री कहा गया है—“ श्रियः श्रीश्च भवेदग्र्या ”—वा,रा.अयोध्याकाण्ड,४४/१५, 

श्रियं—ऐसी भगवती श्री | श्री शब्द की अनेक प्रकार की व्युत्पत्तियां हैं— 

१–सेवार्थक श्रि धातु से “ श्रीयते –आश्रीयते सर्वैः इति श्रीः –जो सबके द्वारा आश्रय ली जाती हैं उन्हे श्री कहते हैं | 

२ – श्रयति—सेवते सर्वदा भगवन्तम् इति श्रीः—जो सर्वदा भगवान् की सेवा में रहती हैं, उन्हे श्री कहते हैं |

३ – श्रीञ् पाके धातु जो क्र्यादि मे पठित है उससे “ श्रीणाति— स्वगुणैः कारुण्यवात्सल्यादिभिः परिपक्वं करोति सकलं भुवनम् इति श्रीः –ऐसी व्युत्पत्ति करके श्री शब्द बनता है जिसका अर्थ है –“ सम्पूर्ण संसार को अपने कारुण्य वात्सल्यादि गुणों से परिपक्व अर्थात् पूर्ण रूपता प्रदान करने वाली, 

४ – भ्वादिपठित श्रु श्रवणे धातु से श्रिणोति आश्रितानां प्रार्थनामिति श्रीः –इस व्युत्पत्ति से जो भगवान् या अपने आश्रित भक्तों की प्रार्थना सुनती हैं उन्हे श्री कहा जाता है | इस श्री शब्द की निष्पत्ति औणादिक डी प्रत्यय से होती है | 

५ – इसी श्रवणार्थक श्रु धातु से णिच् प्रत्यय करके श्रावयति भक्तप्रार्थनां भगवन्तम् इति श्रीः –जो भगवान् को भक्तों की प्रार्थना सुनाती हैं कि आप इसके ऊपर कृपा कीजिये उन्हे श्री कहते हैं | सन्त महापुरुषों का कथन है कि जब कभी भगवान् जीव के कर्मों का सङ्केत करके कृपा करना नही चाहते हैं तो श्री जी अपने अनन्तानन्त सौन्दर्य से प्रभु को वश में करके उनकी कृपा करवाती हैं | 

६ – क्र्यादिपठित हिंसार्थक श्रृ धातु से श्रृणाति-हिनस्ति भक्तदोषान् इति श्रीः –ऐसी व्युत्पत्ति करके औणादिक डी प्रत्यय करने पर यह अर्थ निकला कि जो भक्तों के दोषों को अपनी कृपा द्वारा नष्ट कर देती हैं उन्हे श्री कहते हैं | इस प्रकार श्री शब्द के ६ अर्थ निकलते हैं जिनका उल्लेख श्रीगुणसुधासार में इस तरह किया गया है –

श्रितास्यन्यैः सर्वैः श्रयसि रमणं संश्रितगिरः,
श्रृणोसि प्रेयान्सं श्रितजनवचः श्रावयसि च |
श्रृणास्येतद्दोषाञ् जननि निखिलान् सर्वजगतीं, 
गुणैः श्रीणासि त्वं तदिह भवतीं श्रीरिति विदुः || 

हे भगवती श्रीजू सकल जगत आपका आश्रय लेता है , और आप अपने प्रियतम भगवान् की सतत सेवा करती हैं , भक्तों की प्रार्थना आप सुनती है तथा अपने स्वामी को भक्तों की प्रार्थना सुनाती भी हैं | आप भक्तों के सम्पूर्ण दोषों को अपने कृपा कटाक्ष से नष्ट कर देती हैं ,हे जगज्जननि ! आप अपने गुणों से सकल जगत को परिपक्व अर्थात् पूर्ण करती हैं , इसलिए तत्त्ववेत्ताओं ने आपको श्री इस नाम से जाना है |

उदारां—आप आकांक्षा से अधिक देती हैं |( उदारो दातृमहतोः –अमरकोष-३/३/१९२, उदार शब्द दाता और महान का वाचक है ) अतः अत्यधिक उदार हैं | 

पद्मिनीं—पद्म अस्ति अस्याः हस्ते इति पद्मिनीं –जो अपने कर में कमल धारण किये हुए हैं | 

ईम्—अस्य अकारवाच्यभगवतः स्त्री इति ई तां—अ भगवान् का वाचक है—“ अकारो वासुदेवः स्यादाकारास्तु पितामहः ” उनकी पत्नी श्री जी | अहं—मैं , शरणं –उनको आप मेरी रक्षक बन जांय –इस भावना से, शरण गृह और रक्षक का वाचक है –शरणं गृहरक्षित्रोः-अमरकोष-३/३/५२, 

प्रपद्ये –शरण में जाता हूँ | मैं आपका , वृणे –रक्षकत्वरूप से वरण करता हूँ |–इससे “ गोपतृत्ववरणं तथा ”—इस शरणागति के अङ्ग का उल्लेख किया गया | इस शरणागति का फ़ल बतला रहे हैं – मे – मेरी , अलक्ष्मीः – दरिद्रता , नश्यतां –नष्ट 
हो जाय |—जय श्रीराम 

—जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृतिः—- –

Gaurav Sharma, Haridwar

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