श्रीसूक्त मन्त्र–८ की हिन्दी व्याख्या एवं पुरश्चरण

 

 ॐ क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् | अभूतिमसमृद्धिं मे सर्वां निर्णुद मे गृहात् ||8||

व्याख्या—भक्त  को अपने भूख प्यास ,सुखादि-संसाधनों के अभाव को दूर करने के लिए भगवती श्री से किस प्रकार की प्रार्थना करनी चाहिए –यह इस ऋचा से दिखाया जा रहा है—क्षुत्—क्षुधा, पिपासां—प्यास, मलां—मल हों जिसके ऐसी दरिद्रता को , इससे यह दिखलाया गया कि ये दरिद्रा देवी भूंख प्यास के कारण अत्यंत कृश—कमजोर हैं और जिस पर इनका कुप्रभाव होता है व्ही इनके बल को समझ सकता है |  ये दरिद्रा देवी कैसी हैं ?—इसे बतला रहे हैं—ज्येष्ठां—लक्ष्मी जी से ज्येष्ठ हैं अर्थात् उनकी बड़ी बहन हैं |

जिस समय क्षीर सागर का मंथन हुआ उस समय लक्ष्मीजी से पूर्व इनका प्राकट्य हुआ था |इसलिए इन्हें उनसे ज्येष्ठ कहा गया है |अलक्ष्मीं —जो लक्ष्मी जी से सर्वथा भिन्न हैं | तात्पर्य यह कि इन दोनों के स्वरूप, स्वभाव और प्रभाव में महान विरोध है |

नाशयाम्यहम्— हे श्री जी आपकी कृपा से मैं नष्ट करता हूँ |अर्थात् आपकी प्रार्थना एवं चिंतन के बल से ही ये नष्ट होंगी, किन्तु लोग समझेंगे कि यह सब इस व्यक्ति के परिश्रम से हुआ है | इसी भाव को दर्शाने के लिए यहाँ नाशयामि –क्रिया प्रयुक्त हुई है |

देन्य भाव देवता को आराधक के ऊपर कृपा करने के लिए विवश कर देता है |–

“ न वै साधनसंपत्या हरिः तुष्यति कस्यचित् | भक्तानां दैन्यमेवैकं हरितोषस्य कारणम् ||

सर्वां—सम्पूर्ण, अभूतिम्— गृह,क्षेत्र, बाग ,सेवकादि रूपऐश्वर्य के अभाव को , भूति ऐश्वर्य का नाम है—“ विभूतिर्भूतिरैश्वर्यम् “—अमरकोष-१/१/३६,उसका अभाव अभूति है | च—और , असमृद्धिं—धन धान्य ,स्वर्ण आदि वस्तुओं के अभाव को , मे—मेरे , गृहात्—घर से , कृपा करके ,निर्णुद—निकाल दीजिये |

पुरश्चरण –“ सर्वप्रथम रं ह्रीं श्रीं ह्रीं रं इन पाचों बीज मंत्रों को इस ऋचा के आगे लगाकर अंगन्यास करना चाहिए | इसके बाद लक्ष्मी जी के चरणकमल का ध्यान करें| वे कैसे हैं –अज्ञान और पापरूपी अंधकारसमूह के लिए प्रचण्ड सूर्य की किरण तथा दुर्भाग्यरुपी पर्वत को विदीर्ण करने के लिए साक्षात् वज्र हैं | वे रोग और कष्ट रुपी भयंकर सर्प का मर्दन करने के लिए पक्षिराज गरुड़ हैं— समस्त अनर्थों को नष्ट करने वाला यह ध्यान सुखाभिलाषी को करना चाहिए— 

अज्ञानपातकतमस्ततितीव्ररश्मिं दौर्भाग्यभूधरविदारणवज्रमीडे |रोगार्तिघोरफ़निमर्दनपक्षिराजं लक्ष्मीपदद्वयमनर्थहरं सुखार्थी ||

केवल चरण ही नही अपितु भगवती श्री के साङ्ग स्वरूप का भी ध्यान करना चाहिये |–वे अपने हाथों में खड्ग, चक्र ओर कमल धारण किये हुये हैं ओर एक हाथ वरमुद्रा में है—ऐसी चन्द्रमुखी श्री जी का ध्यान करना चाहिये |इसके बाद वीरासन से बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस ऋचा का ३२ हजार जप करने के साथ ही गायत्रीं मन्त्र का भी ३२ हजार जप करना  है |तत्पश्चात गायत्री मन्त्र का तिल से दशांश और घृत से ऋचा की शतांश अर्थात् ३२० आहुतियाँ देनी हैं, इसमें ऋतुकाल से भिन्न काल की स्त्री का भी सहयोग हवन में लेना पडता है—“ विरजामपि हावयेत् ” | अर्थात् जो मासिक धर्म (यम सी पीरियड ) में नही है |

लाभ—इस पुरुश्चरण से सम्पूर्ण दुर्भाग्यों का विनाश होकर सौभाग्य की प्राप्ति होती है | अधिक क्या कहा जाय, निःसंदेह विधाता के लेख को मिटाने की सामर्थ्य इसमें है ”|–

“ प्रजपेद्विधिना नित्यं श्रीसूक्ते चर्चमष्टमीम् | प्रत्यक्षरसहस्रं च गायत्रीमपि तावतीम् || श्रीगायत्रीदशांशं तु लक्ष्मीमन्त्र शतांशकम् | अनिष्टपरिहारार्थो मन्त्रोऽयं परिकीर्तितः ||

दौर्भाग्यं शमयेदेव दुर्लिपिं परिमार्जयेत् |वीरासनसमासीनः अग्निहोत्रपुरस्कृतः |

फ़लाशी प्रजपेन्मन्त्रं भक्त्या रुद्राक्षमालया |

तिलहोमं प्रकुर्वीत विरजामपि हावयेत् ||

घृतेन जुहुयाल्लक्ष्मीं दौर्भाग्यं तस्य नश्यति |

सौभाग्यं जायते तस्य नात्र कार्या विचारणा ||

–लक्ष्मीयामलम्

 

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

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