श्रीसूक्त, मन्त्र-1
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥1॥
अन्वय- हे जातवेदः हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं मे आवह |
अनुवाद–
हे परमात्मन्! अथवा हे अग्निदेव! स्वर्ण के समान कान्ति वाली , श्रीहरि की प्रियतमा , सोने और चांदी के बने कमलों की माला धारण करने वाली, सम्पूर्ण जगत् को चन्द्रवत् आह्लाद देने वाली, प्रचुर स्वर्णप्रदायिनी, ज्ञान, ऐश्वर्य, सुख, आरोग्य, धन धान्य, विजय आदि जिनके चिह्न हैं –ऐसी भगवती लक्ष्मी को मेरे पास भेजें ॥–यह प्रार्थना भक्त की भगवान् से है।इससे प्रसन्न होकर भगवान् भक्त को पूर्वोक्त गुण विशिष्ट लक्ष्मी प्रदान करते हैं ।
व्याख्या–
जातवेदः–जाताः –निःश्वासभूतत्वेन प्रकटिताः वेदाः यस्मात् सः सर्वव्यापकः
परमात्मा ,जिनके निःश्वास रूप वेद हैं उन सर्व्यापक परमात्मा विष्णु को जातवेदः कहा जाता है ।
भागवत में भगवान् को इस सूक्त में आये ” जातवेदः ” की भांति ” जातवेदः ” कहा गया है–
ॐ परो रजःसवितुर् ” जातवेदो ” देवस्य भर्गो मनसेदं जजान ॥«5/7/14»
यहां जातवेदः का अर्थ श्रीधर स्वामी ने कर्मफलप्रद परमात्मा किया है–
” जातं वेदो -धनं- कर्मफलं यस्मात् ~कर्मफलदमित्यर्थः ” .
सोलहवीं ऋचा फलश्रुति में ” जुहुयादाज्यमन्वहम् ” से श्रीसूक्त द्वारा हवन का
विधान बतलाया गया है । जिसका सम्बन्ध अग्नि से है । अतः ” जातवेदः ” अग्निदेव का सम्बोधन
है ।–जातेषु–उत्पन्नेषु सर्ववस्तुसु विद्यते इति जातवेदाः ,सम्बोधने जातवेदः, सम्पूर्ण उत्पन्न
वस्तुओं में जो विद्यमान हैं–ऐसे अग्निदेव। प्रमाण–
” अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपंबभूव |«कठ-5/9»
कृपा करके आवह-बुला दीजिए ।
अग्निपक्ष के अर्थ का अनुसन्धान उस साधक को करना चाहिए जो इस सूक्त के मन्त्रों से
हवन कर रहा हो । जो पाठमात्र करते हैं उन्हे पूर्वोक्त भगवत्परक अर्थ लेना चाहिए ।
हरिणीं–हरिण शब्द पीतसंवलिशुक्ल वर्ण का वाचक है–«अमरकोष-1/5/13,»
अर्थात् हलके पीले रूप वाली,अथवा मृगी का रूप धारण करने वाली –
” श्रीर्धृत्वा हरिणीरूपमरण्ये संचचार ह ” -«इति पुराणात्–«श्रीविद्यारण्यभाष्य»
लक्ष्मी जी ने हरिणी का रूप धारण करके वन में विचरण किया ।
किंवा हरिणीं –परमसौन्दर्यशालिनी ;क्योंकि हैमकोष में हरिणी शब्द का प्रयोग सुन्दर
स्त्री के लिए कहा गया है–हरिणी चारुयोषिति–«अ.को.1/5/12 की सुधा टीका» ।
यद्वा हरिणीं –हरिणा–श्रीरामरूपविष्णुना नीयते स्वेन सह वने यां तां हरिणीं सीतारूपिणीं लक्ष्मी ,
” सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुः ” -«वा.रा.यु.का.117/27»इति प्रमाणात् –
श्रीरामरूपी विष्णु जिन्हे अनुनय विनय करने पर अपने साथ वन ले गये -ऐसी सीतारूपिणी लक्ष्मी ।
यहां स्वेन सह लंकातः अयोध्यायां यद्वा स्वेन सह मिथिलातः अयोध्यायाम् ऐसी
व्युत्पत्ति करके श्रीरामचरित को समेटे हुए अनेक रहस्य ” हरिणीं ” शब्द से निकल सकते हैं ।
भगवान् श्रीकृष्ण स्वयम्वर से श्रीरुक्मिणी रूपी लक्ष्मी को हरण करके अपने साथ
द्वारका लाये अतः श्रीरुक्मिणीरूपिणी लक्ष्मी भी ” हरिणीं ” शब्द का रहस्यात्मक अर्थ है ।
इस शब्द से लक्ष्मी जी के अनेक अवतारों का स्पष्ट संकेत मिलता है ।
अथवा हरिं -भगवन्तं नयति-प्रापयति पुरुषकाररूपतया भक्तान् इति हरिणी -जो
भक्तों को उनकी ओर से भगवत्प्राप्ति हेतु प्रार्थनादि द्वारा भगवान् की प्राप्ति कराती हैं उन्हे हरिणी
कहते हैं । यहां हरि उपपदपूर्वक णी धातु से कर्त्रर्थक क्विप् प्रत्यय होकर हरिणी शब्द बना है ।
हरिणी शब्द का एक अर्थ स्वर्णप्रतिमा भी होता है–
” हरिणी स्यान्मृगी हेमप्रतिमा हरिताच या “
–«अमरकोष-3/3/50»
” हरिणी हरितायां च नारीभिद्वृत्तभेदयोः । सुवर्णप्रतिमायां च “
-«मेदिनी कोष–3/3/50» अमरकोष की सुधा में उद्धृत,
जनकात्मजा के त्याग के बाद प्रभु ने किसी दूसरी स्त्री से विवाह नही किया, पत्नी के स्थान की पूर्ति के
लिए सीतारूपिणी लक्ष्मी की स्वर्णप्रतिमा का निर्माण प्रत्येक यज्ञ में भगवान राम ने करवाया है –
” यज्ञे यज्ञे च पत्न्यर्थं जानकी काञ्चनीभवत् ॥– «वाल्मीकि रामायण,उ.का.99/8»
जानकीरूप स्वर्ण प्रतिमारूपिणी लक्ष्मी,
ध्यातव्य–यहां ऋग्वेद के अष्टक-4,मण्डल-5, अनुवाक-6 में विद्यमान ” श्रीसूक्त ”
की प्रथम ऋचा के ” हरिणीं ” शब्द का अर्थ स्वर्णप्रतिमा होने से उन समाजियों का
मुखभञ्जन हो रहा है जो वेदों में मूर्तिचर्चा का निषेध बतलाते हैं ।
चन्द्रां–आह्लादार्थक और दीप्त्यर्थक चद धातु से रक् प्रत्यय होकर टाबन्त चन्द्रा रूप
बना । तां- जिसका अर्थ है आह्लादिका और प्रकाशिका । अर्थात् आह्लाद और ज्ञानरूप प्रकाश देने
वाली ।
हिरण्मयीं – –यहां हिरण्यशब्द से प्राचुर्य अर्थ में मयट् प्रत्यय होकर स्त्रीत्व विवक्षा
में हिरण्मयी शब्द बना जिसका अर्थ है प्रचुर स्वर्ण वाली,अर्थात् स्वर्णादिसम्पत्तिदायिनी,
लक्ष्मीं–लक्ष दर्शनांकनयोः-लक्ष धातु से औणादिक मुट् प्रत्यय होकर स्त्रीत्वविवक्षा में
लक्ष्मी शब्द बना । जिनके ज्ञान,ऐश्वर्य, सुख, आरोग्य, धन धान्य, विजय आदि चिह्न हों ऐसी
सर्वलक्षणविशिष्ट भगवती को लक्ष्मी कहते हैं –
ज्ञानैश्वर्यसुखारोग्यधनधान्यजयादिकम् ।
लक्ष्म यस्याः समुद्दिष्टं सा लक्ष्मीति निगद्यते ॥
तां –ऐसी लक्ष्मीं जी को,
हे भगवन् ! अथवा हे अग्निदेव! आप उन्हें ,मे-मह्यम् –मेरे लिए, या मे–मम -मेरे
अभीष्ट सिद्धि के लिए, आवह– बुला दें अर्थात् आवाहन करें । उनके आगमन मात्र से मेरे
सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जायेंगे ।
पुरश्चरण—
साधक शुद्ध होकर श्रीं, ह्रीं , क्लीं इन तीनों बीजों से युक्त इस ऋचा द्वारा न्यास करने के बाद स्वर्णमयी भगवतीलक्ष्मी की प्रतिमा में उनका पूजन करे | पुनः स्वर्णनिर्मित पद्माक्ष की माला से पद्मासन की स्थिति में होक%A

Gaurav Sharma, Haridwar
यहां श्रीसऊक्त के मन्त्रों की व्याख्या और उनके पुरश्चरण की विधि भी प्रस्तुत की गयी है । जय श्रीराम