“सर्वधर्मान् परित्यज्य” से भगवान् ने गीता में क्या सभी धर्मों का त्याग कहा ?
भगवान् ने गीता में पार्थ से कहा कि “सम्पूर्ण धर्मों को छोड़कर तुम मात्र मेरी शरण में आ जाओ । मैं तुम्हें समस्त पापों से छुड़ा दूँगा । अत: शोक मत करो–
“सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:..”
विचारणीय है कि जिन धर्मों का विधान श्रुति स्मृति से किया गया है जैसे सत्य बोलो-सत्यं वद, धर्म का आचरण करो -धर्मं चर, माता पिता देवता हैं -मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, क्या इन सब धर्मों का परित्याग करने का आदेश “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”-से स्वयं अपने अवतार का प्रयोजन धर्मसंरक्षण बतलाने वाले प्रभु कर सकते हैं ? उत्तर मिलेगा -”नहीं” .
तब वह कौन सा धर्म है जिसके परित्याग की बात बलपूर्वक परमात्मा ब्रजेन्द्रनन्दन कर रहे हैं ? इस पर विचारकों का कथन है कि भगवान् की प्राप्ति में २प्रतिबन्धक हैं–पुण्य और पाप । पुण्य स्वर्णशृंखला के समान तो पाप लौहशृंखला की भाँति भगवत्प्राप्ति में प्रतिबन्धक है ।अनन्त जन्मों के पापों का प्रायश्चित्त करके “धर्मेण पापमपनुदति”( धर्म से पापों का विनाश करता है ) उनसे छूटने का प्रयास हमारे सम्पूर्ण समय को लेकर भी कतिपय मात्रा में पाप अवशिष्ट ही रहेंगे । जिससे हम भगवान् की प्राप्ति नहीं कर सकते ।
विरक्तशिरोमणि स्वामी श्रीवामदेव जी महाराज की घटना
स्वामी जी महाराज ने इस विषय में अपने जीवन की एक घटना मुझे भीलवाड़ा में चातुर्मास्य के समय सुनायी थी । उन्होनें बतलाया कि ” एक बार वे माँ दुर्गा की उपासना सप्तशती के माध्यम से कर रहे थे । निष्कामभाव की
प्रगाढता और एकाग्रता का परिणाम यह कि रात्रिवेला में भगवती उनके समक्ष प्रकट हुईं और जब उन्हें गोद में लेने
के लिए आगे बढ़ीं तब एक चाण्डाल बीच में प्रकट हुआ और माँ अन्तर्धान हो गयीं ।
स्वामी जी को इससे बड़ा क्षोभ हुआ । वे पूर्ववत् उपासना में लगे रहे । एक बार वह स्वर्णिम अवसर पुनः आया । जगज्जननी प्रकट होकर पुनः: गोद में लेने के लिए जब आगे बढ़ीं तो इस बार बीच में एक ब्राह्मण प्रकट हो गया ।
इस बार माँ अन्तर्धान तो नहीं हुईं पर रुक अवश्य गयीं ।
स्वामी जी ने इन दोनों घटनाओं अर्थात् गोद में लेने के समय इन वेशों में विघ््न करने वाले दोनों कौन हैं ? पूछा तो माँ ने उत्तर देते हुए कहा- पुत्र ! पहले जब मैं आयी थी तो तुम्हें गोद में लेने से रोकने वाला तुम्हारे पूर्व जन्म का पाप था । उस समय मैं अन्तर्धान हो गयी । और इस समय जो रोक रहा है यह ब्राह्मण नहीं अपितु इस रूप में तुम्हारा पुण्य है । इतना बताकर जगज्जननी अन्तर्धान हो गयीं ।”
अपनी यह घटना सुनाते हुए श्रीस्वामी जी ने मुझसे कहा कि इसे मैं तुम्हें ही बतलाया हूँ । भगवान् की प्राप्ति में पाप के समान ही पुण्य भी प्रतिबन्धक है ।
ध्यातव्य है कि यहाँ प्रायश्चित्त जैसे धर्मों के द्वारा समस्त पापों का प्रणाश तो समयाभाव से असम्भव है ही । वैसे ही सुखकारक पुण्य भी प्रचुर मात्रा में हैं । पापवत् पुण्य भी भगवत्प्राप्ति का प्रतिबन्धक होने से पाप ही माना गया है । जब तक ये दोनों हैं तब तक जीव भगवान् को प्राप्त नहीं कर सकता ।
पुण्यपुंज का उपयोग कथंचित् सद्गुरु की प्राप्ति का कारण बन सकता है-” पुण्यपुंज विनु मिलहि न सन्ता ” । किन्तु पापपुंज का विनाश हम भोग या प्रायश्चित्त रूप धर्म से नहीं कर सकते । इन दोनों के लिए अपेक्षित समय किसी भी जीव के पास पर्याप्त नहीं है । अत: जीव को भगवत्प्राप्ति कैसे हो ?
अर्जुन की इस विभीषिका को दूर करने के लिए भगवान् कहते हैं कि “अर्जुन ! तुम प्रायश्चित्त जैसे
सम्पूर्ण धर्मों का परित्याग करके केवल मेरी शरण में आ जाओ । मेरी प्राप्ति के प्रतिबन्धक सभी पापों से
मैं तुम्हें छुड़ा दूँगा । अत: तुम उनके विषय में शोक मत करो कि उन पापों के नाश हुए विना मैं श्रीहरि को
कैसे प्राप्त करूँगा ?”
यहाँ भगवत्प्राप्ति का तात्पर्य संसारनिवृत्तिपूर्वक उनके धाम की प्राप्ति से है, मात्र दर्शन से नहीं ? क्योंकि प्रभु का दर्शन भी अपना वास्तविक फल नहीं दे पाता यदि हमारे अन्दर भोगों की प्रबल कामना है या हमने भोगों के लिए उनकी आराधना की है । ध्रुव जी का दृष्टान्त यहाँ पर्याप्त है । भोग ही उनके परमपद की प्राप्ति में प्रतिबन्धक बन गया । और उन्हें इसके लिए बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।
पार्थ को प्रतिदिन प्रभु का दर्शन सुलभ है फिर भी भगवान् उन्हें सम्पूर्ण जीवों का प्रतिनिधि मानकर यहाँ पापप्रणाशिनी शरणागति का उपदेश दे रहे हैं । इसी को भगवान् श्रीराम के शब्दों में “सन्मुख होय जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि
अघ नासहिं तबहीं ।।” इस प्रकार कहा गया है ।
अब यह शरणागति क्या है ? इसका सांग वर्णन हम अग्रिम लेख में करेंगे ।
जय श्रीराम
जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृति:
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar