स्त्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों को भगवद्गीता के अनुसार पापयोनि कहना मात्र अज्ञान है

“स्त्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों को भगवद्गीता के अनुसार पापयोनि कहना मात्र अज्ञान है”

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में –

“मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥-भ.गी. ९/३२,

अर्थ-”हे पार्थ ! जो भी पापयोनि स्त्री, वैश्य तथा शूद्र हैं । वे भी मेरी उपासना द्वारा मेरा आश्रय लेकर श्रेष्ठ गति
अर्थात् मेरे धाम को प्राप्त होते हैं ।”

यहाँ “पापयोनयः” जो स्त्री वैश्य तथा शूद्र के विशेषणरूप में प्रयुक्त हुआ है उसके आधार पर शास्त्रानभिज्ञ या
हठधर्मी स्त्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों को पापयोनि कहने लगे हैं । पापी को सभी पापयोनि ही दिखते हैं ।

छान्दोग्योपनिषद् में उत्तम और निम्न योनि के प्राणियों का दिग्दर्शन नाम लेकर कराया गया है–
“तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत् ते रमणीयां योनिमापद्येरन्, ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं
वा ।”-५।१०।७,

परलोक स्वर्गादि से इस लोक में आने वालों में जो रमणीयचरणा – सुन्दर कर्म वाले हैं अर्थात् स्वर्गसुख को भोगकर अवशिष्ट शुभ कर्मों के आधार पर जिनका जन्म होता है । वे प्राणी रमणीयां-उत्तम, योनिं-शरीर को, आपद्येरन्-प्राप्त
करते हैं । जैसे ब्राह्मण या क्षत्रिय अथवा वैश्य की योनि ।

यहाँ उत्तमयोनि में ब्राह्मण क्षत्रिय के साथ वैश्य की गणना की गयी है । तब भगवान् स्वयं अपने श्रीमुख से वेदविरुद कहें कि यहाँ शूद्र का उल्लेख न होने से उसे ही पापयोनि का प्राणी मान लें, तो मैं उस कथयिता से यही कहूँगा कि इसके आगे ही पापयोनि के प्राणियों की भी गणना की गयी है जिसमें कुत्ता, सूअर और कुत्ते को खाने वाले चाण्डाल का नाम लिया गया है –

” य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत् ते कपूयां योनिमापद्येरन्, श्वयोनिं वा, सूकरयोनिं वा चण्डालयोनिं
वा ॥-५।१०।७,

कपूयां योनिं – कुत्सित-निन्दित अर्थात् पापयोनि । कौन ? वही जो नरक भोगने से बचे हुए पापकर्म से इस लोक में
जन्में हैं वे ही पापयोनि के प्राणी हैं । जैसे कुत्ता या सूअर अथवा श्वपाक चण्डाल । इसमें भी शूद्रों का नाम नहीं लिया
गया । मानवों में केवल चण्डाल का नाम लिया गया है ; क्योंकि चण्डाल के स्पर्श होने पर स्नान का विधान है-

“दिवाकीर्तिम् —स्पृष्ट्वा स्नानेन शुद्ध्यति ॥-मनुस्मृति-५।८५,

जबकि शूद्र त्रैवर्णिक की सेवा में अधिकृत है । अतः पापयोनि में चण्डाल ही धर्मशास्त्र से अनुमोदित है । और “यह वर्णसंकर जाति में भी परिगणित है”-पराशरपद्धति,

अतः छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार पापयोनि में न तो वैश्य ही आते हैं और न ही शूद्र । अर्थात् ये सब उत्तमयोनि
के प्राणी हैं । अतः वैश्य या शूद्रकुल की स्त्रियाँ भी पापयोनि में नहीं गिनी जा सकतीं हैं । अतः चारों वर्ण के स्त्री
,पुरुष पुण्ययोनि के ही प्राणी हैं । भले ही इनमें तारतम्य क्यों न हो । लोक में भी सभी बली, धनी या विद्वान् आदि
एक ही स्तर के नहीं होते । उनमें भी न्यूनाधिक्य दिखता है । यही स्थिति यहाँ भी है ।
और भगवान् ने स्वयं इस तथ्य को “अपि” शब्द से प्रकट कर दिया है-

“येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ –

इस वचन में भगवान् कह रहे हैं कि ” ये स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्राः पापयोनयः अपि स्युः –जो स्त्री, वैश्य तथा शूद्र पापयोनि भी हों अर्थात् पापपरायण ( पाप करने वाले-पापरत) भी हों । वे भी मेरे आश्रय से श्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेते
हैं । ( “अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ -गीता-९/३० के सुदुराचारो शब्द को ध्यान में रखकर अर्थ पर विचार करना होगा । )

पापयोनयः का विग्रह है–पापानां योनयः-कारणभूताः-अर्थात् पाप करने वाले-पापपरायण । योनि शब्द का अर्थ

कारण भी होता है-”शास्त्रयोनित्वात्”-ब्रह्मसूत्र-१।१।३।३, के “योनि” शब्द का अर्थ “कारण” सभी भाष्यकारों ने
किया है ।

“उत्तररामचरितम्” में राक्षसी वाणी को सभी वैरों का कारण “योनि” शब्द से कहा है-

“ऋषयो राक्षसीमाहुर्वाचमुन्मत्तदृप्तयोः । सा योनिः सर्ववैराणां सा हि लोकस्य निष्कृतिः ॥”-५।२९,

अमरकोष की रामाश्रमी व्याख्या में भी योनि शब्द की कारणवाचकता सुस्पष्ट है–”योनिः कारणे भगतोययोः”
-इति हैमः–२।६।७६,

इन प्रमाणों को प्रस्तुत करने का कारण यह है कि योनि शब्द मात्र शरीर का ही वाचक नहीं है कि “पापयोनयः”
शब्द से हम पापीशरीरों को ग्रहण करके स्त्री, वैश्य और शूद्रों को उनमें रखकर श्रुति का अपलाप कर दें ।
अतः भगवान् यही कह रहे हैं कि स्त्री, वैश्य तथा शूद्र ये सब यदि पापों के कारण अर्थात् पापलिप्त भी हों तो वे
भी ( तेऽपि ) मेरा आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त कर सकते हैं । इसीलिए राघवेन्द्र सरकार ने
“कोटि विप्र वध लागै जाहू । आये शरन तजउं नहि ताहू ॥” कहा ।
और पूज्यपाद गोस्वामी जी ने –

“पाई न केहि गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना । गनिका अजामिल व्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे । कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥-रामचरितमानस,उत्तरकाण्ड-१३०।१,

इन पंक्तियों में सभी पापपरायणों का ग्रहण किया । चाहे वे स्त्रियों में वेश्या हों या ब्राह्मणों में अजामिल, व्याध आदि
तथा कुत्सित योनियों के प्राणी चण्डाल, गीध प्रभृति ।

यदि भगवान् का तात्पर्य स्त्री आदि को पापयोनि ही बतलाना होता तो “येऽपि” में अपि शब्द का प्रयोग क्यों करते ?

और स्वयं श्रुतिशिरोभाग उपनिषद् में उत्तमयोनि में परिगणित वैश्य आदि (तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत् ते रमणीयां योनिमापद्येरन्, ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वा ।”-५।१०।७,) को वेदविरुद्ध पापयोनि का प्राणी कैसे कह सकते हैं ??

अतः प्रभु यही कह रहे हैं कि पापपरायण स्त्री,वैश्य तथा शूद्र भी यदि मेरा आश्रय लें तो उन्हें परम धाम की प्राप्ति
सुनिश्चित है । यदि यही पापविरत हों और मेरा भजन करें तो कहना ही क्या है ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *