हनुमानचालीसा में “संकरसुवन” पाठ के औचित्य में प्रमाण
किसी भी महापुरुष के ग्रन्थ में पाठपरिवर्तन महापराध है । लिपिकारों से प्रमाद की सम्भावना हो सकती है । पर उन्हें भी अनौचित्य का भान होने पर “यथा मिलितं तथा लिखितं मम दोषो न दीयताम्”–”जैसा मिला वैसा लिखा, मेरा दोष मत देना”–ऐसा लिख देते थे ।
–यह बात अध्ययनकाल में पंडितराज की उपाधि से विभूषित अनेक ग्रन्थों के व्याख्याकार एवं सम्पादक मेरे पूज्य गुरुदेव उदासीन संस्कृत विद्यालय मीरघाट के स्वामी योगीन्द्रानन्द जी महाराज कहते थे ।
आजकल गणमान्य मनीषी भी कह रहे हैं कि “हनुमान् चालीसा” में “संकरसुवन केसरीनन्दन” चौपाई में “संकरसुवन” पाठ नहीं अपितु “संकर स्वयं” पाठ है अर्थात् “संकर स्वयं केसरीनन्दन” ही पढ़ना वे उचित मानते हैं ।
वेदों से लेकर हनुमान् चालीसा तक के ग्रन्थों का प्रामाण्य मानने वाले अभिनव शंकराचार्य श्रीस्वामी करपात्री जी महाराज ने भी “संकर स्वयं” पाठ की कल्पना नहीं की ।
अब हम यह समीक्षा करते हैं कि “संकर स्वयं” पाठ की कल्पना का आधार क्या है ? और इस शब्द का अर्थ क्या “संकरसुवन” शब्द से नहीं निकल रहा है ? जो नूतन पाठ की कल्पना की गयी ?
विनयपत्रिका में –”वानराकारविग्रह पुरारी”,–27,आदि जैसे गोस्वामी जी के वचन तथा स्कन्दमहापुराण रेवाखण्ड-८४/१०,में “हरो निजांशभाजं कपिमुग्रतेजसम् ।” से मारुति को शिव जी का अवतार कहा गया है ।
हनुमन्नाटक में भी ये रुद्रावतार कहे गये हैं-५/३३, ६/३, ६/२७, रुद्रयामल में इन्हें साक्षात् शिव ही बतलाया गया है -हनुमान् स महादेव: कालकाल: सदाशिव: ।-८, वहीं इन्हें वायुदेवता का अवतार भी कहा गया है –”अंजनीगर्भसम्भूतो वायुरूपी सनातन:” .
इसीलिए मध्वसम्प्रदाय में इन्हें वायुदेवता का अवतार माना जाता है । वायुमहापुराण के प्रमाण से हनुमान् जी स्वयं भगवान् शंकर के अवतार सिद्ध हैं–
“मेषलग्नेSंजनागर्भात् स्वयं जातो हर: शिव: ।”.
तथा “त्वं हि केसरिण: पुत्र: क्षेत्रजो भीमविक्रम: ..
मारुतस्यौरस: पुत्रस्तेजसा चापि तत्सम: ।-वाल्मीकि रामायण,किष्किन्धा काण्ड–६६/२९–३०, से हनुमान् जी वानरराज केसरी के क्षेत्रज पुत्र तथा वायु देवता के औरस सुत बतलायें गये हैं ।
इनसे भिन्न और भी प्रमाण हैं जो मुक्तकण्ठ से हनुमान् जी को शंकर जी का अवतार कहते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन प्रमाणों के रहते और स्वयं गोस्वामी जी ने अपनी लेखनी से हनुमान् जी को शंकर जी का अवतार “वानराकारविग्रह पुरारी” जैसे वचनों से घोषित करके भी “हनुमान् चालीसा” में उन्हें “संकरसुवन केसरीनंदन” चौपाई के “संकरसुवन” शब्द से शंकर जी का पुत्र कैसे कह दिया ???
गोस्वामी जी ने तो गणेश जी के लिए “संकरसुवन” शब्द का प्रयोग किया है– “गाइये गनपति जगबंदन । संकर सुवन भवानी नंदन ।।१।।-विनयपत्रिका-१/१,
बस पूर्वोक्त सम्पूर्ण प्रमाणों से विरुद्ध यही “संकर सुवन” शब्द है । इसीलिए कुछ मनीषी इस पाठ का परिवर्तन करके कहने लगे हैं कि यहाँ वस्तुत: संकर स्वयं” पाठ है अर्थात् “संकर स्वयं केसरी नंदन ।” पाठ मानने पर अब पूर्वोक्त वचनों से कोई विरोध नहीं ;क्योंकि इस पाठ से हनुमान् जी को शंकर जी का अवतार बतलाने वाले सभी प्रमाण संगत हो जाते हैं ।
और इस पाठपरिवर्तन का बीज बोने वाले अयोध्या के एक विशिष्ट रामायणी मानसतत्त्वान्वेषी श्रीरामकुमार दास जी महाराज थे । उनके छात्रों के मुख से मैंने इस पाठपरिवर्तन की बात सुनी थी । यह घटना सन् १९८१ के आस पास की है । उस समय मैं पूर्वमध्मा प्रथम वर्ष का छात्र था । गृहत्याग किये ४वर्ष बीते थे ।
किन्तु इस पाठपरिवर्तन को लेकर सन्त महात्मा उनकी निन्दा भी करते थे । पर जो प्रमाण अभी हनुमान् जी के शिवावतार के विषय में उद्धृत किया गया है । ये मुझे उस समय ज्ञात नहीं थे । अध्ययनोपरान्त भी इस विषय पर कोई ध्यान नहीं गया ।
हाँ कुछ दिन पूर्व मुझे मेरे एक प्रिय छात्र मकरधवज तिवारी ने मुझे इस विषय में मैसेज भेजकर पंूछा था “कि आजकल कथाओं में एक विशिष्ट गणमान्य विद्वान् ” हनुमान् चालीसा में संकर सुवन पाठ ग़लत बतला रहे हैं, वे कहते हैं कि यहाँ “संकर सुवन नहीं बल्कि ‘संकर स्वयं’ पाठ है ।” ।।अस्तु।।
संकर सुवन केसरी नंदन पाठ के औचित्य में प्रमाण
हनुमान् जी महाराज शंकर जी के जैसे अवतार बतलायें गये हैं । ठीक वैसे ही शंकर जी से समुत्पन्न भी । इसमें प्रमाण है प्रलयंकर शिव जी के स्वरूप का विशद वर्णन करने वाला – शिवमहापुराण ।
जब भगवान् विष्णु के मोहिनी रूप पर भगवान् शिव मोहित होकर उन्हें पकड़ने दौड़े तो उस समय उनके तेज़ का स्खलन श्रीरामकार्य के सिद्धि की इच्छा से हुआ । उस तेज़ को सप्तर्षियों ने गौतम महर्षि की पुत्री अंजना के गर्भ में कर्णरन्ध्र से पहुँचा दिया ।
प्रसवकाल आने पर साक्षात् भगवान् शिव ही महाबलशाली परम पराक्रमी वानररूप में उत्पन्न हुए। जिनका हनुमान् नाम पड़ा—
“चक्रे स्वं क्षुभितं शम्भु: कामबाणहतो यथा ।
स्ववीर्यं पातयामास रामकार्यार्थमीश्वरः ।।
तद्वीर्यं स्थापयामासुः पत्रे सप्तर्षयश्च ते ।
प्रेरिता मनसा तेन रामकार्यार्थमादरात् ।।
तैर्गौतमसुतायां तद्वीर्यं शम्भोर्महर्षिभिः ।
कर्णद्वारा तथाSञ्जन्यां रामकार्यार्थमाहितम् ।।
ततश्च समये तस्माद्धनुमानिति नामभाक् ।
शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबलपराक्रमः ।।”
–शिवमहापुराण, शतरुद्रसंहिता-२०/४-५-६-७,
यहाँ पर शंकर जी के तेज ( वीर्य ) से ही स्वयं शंकर जी को ही हनुमान् जी के रूप में अवतरित होने का वर्णन किया गया है । जो उनको शंकर जी का औरस पुत्र होना तथा साथ ही स्वयं शंकर स्वरूप ( शम्भुर्जज्ञे ) होना भी सिद्ध
करता है ।
अब इस शिवमहापुराण के प्रमाण से यदि गोस्वामी तुलसीदास जी ने महाराज हनुमान् जी को “शंकर सुवन” कह दिया तो क्या अनुचित है
जो अर्थ ✅ “संकर सुवन” ✅ इस पाठ से शास्त्रप्रमाणसिद्ध है और अन्य पूर्वोक्त प्रमाणों से अविरुद्ध ही नहीं उनका पोषक भी है । इसके स्थान पर “संकर स्वयं” पाठ की कल्पना मात्र गोस्वामी जी का ही नहीं अपितु शिवमहापुराण का भी अपमान करना है ।
—-जय श्रीराम—-
—-जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृतिः—
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar