आजकल भागवत के श्लोकों का परम्परया अध्ययन न होने से लोग शास्त्रविरुद्ध अर्थ की कल्पना से अनेक भाव व्यक्त करते रहते हैं । भवाभिव्यक्ति प्रशंसनीय है । पर श्लोक का अर्थ तो पहले सही लगाया जाय । देखें—
प्रसंग उस समय का है जब भगवान् श्यामसुन्दर वछड़ों को चराते हुए बालकों के मध्य भोजन कर रहे हैं । देखें–
बिभ्रद्वेणुं जठरपटयो: शृंगवेत्रे च कक्षे वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्गुलीषु ।
तिष्ठति मध्ये स्वपरिसुहृदो हास्यन् नर्मभिक्या भगवान् कृष्ण ने बालकों के साथ वांये हाथ से भोजन किया था ??: स्वै: स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्बालकेलि: ..
–भागवतमहापुराण, १०/१३/११,
अर्थ- उन्होंने मुरली को कमर की फेंट में आगे की ओर खोस लिया था । सिंगी और बेंच बग़ल में दबा लिये थे । बांये हाथ में बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित ग्रास था । और अंगुलियों में अदरक, नींबू आदि के अचार-मुरब्बे दबा रखे थे । ग्वालबाल उनको चारों ओर से घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीच बैठकर अपनी विनोदमयी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहे थे । जो समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता हैं , वे ही
भगवान् ग्वाल बालों के साथ बैठकर इस प्रकार बाललीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्ग के देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे ।
रेखांकित पंक्तियों से यह स्पष्ट हो रहा है कि प्रभु बांये हाथ से भोजन कर रहे हैं । पर श्लोकार्थ पर विचार करें तो यह भ्रम दूर हो जायेगा । श्लोक में बिभ्रद् =धारण किये हुए, शब्द पर ध्यान देने से समाधान हो जाता है । श्रीशुकदेव जी यहाँ यह बतला रहे हैं कि भगवान् ने कौन वस्तु कहाँ धारण कर रखी है ? भागवत के प्रख्यात टीकाकार श्रीश्रीधर स्वामी जी लिखते हैं कि ” बिभ्रद् दधदिति सर्वत्र सम्बध्यते ” बिभ्रद् का सम्बन्ध वेणु की भाँति शृंगवेत्रे तथा मसृणकवलं के साथ भी है । जिसका अर्थ है कि उदरवस्त्र के मध्य में वेणु को धारण किये हुए, वाम कक्ष (भाग) में शृंग और वेंत धारण किये हुए तथा वामे पाणौ= बांये हाथ में, मसृणकवलं = स्निग्ध = (चिक्कणं मसृणं स्निग्धमित्यमर: ) दधिघृतादिमिश्रित, कवलं= ग्रास को धारण किये हुए ।
ध्यातव्य है कि भगवान् का दाहिना हाथ रिक्त है । क्योंकि उससे उन्हें भोजन जो करना है । बांये हाथ में केवल ग्रास ही नहीं अपितु उसकी अंगुलियों की संधियों में दध्योदन के उपयोगी अंचार आदि भी रखे हुए हैं — यह सुस्पष्ट किया गया है । अर्थात् भगवान् ने अपने भोजन का पात्र बांये हाथ को बनाया है । मानों परम वैराग्यवान्
करपात्री परमहंसों को भोजन करने की शिक्षा दे रहे हों कि तुम्हारे लिए भोजन रखने का पात्र तुम्हारा बाम हस्त ही है । ऐसे महापुरुष बांये हाथ में भोजन रखते हुए दांये हाथ से उसे खाते हैं । हमारे श्यामसुन्दर इस बाललीला में करपात्री स्वामी बने हुए हैं । ( शेष सखा करपात्री स्वामी से निम्न स्थिति में हैं । वे लोग अपने भोजन का पात्र वाम हस्त को नहीं अपितु वृक्षों के पत्ते आदि को बनाये हैं ।)
इसे और सुस्पष्ट करने के लिए प्रभु के सखाओं के भोजन का पात्र भी देख लीजिए । पहले उन लोगों में भी किसी ने अपना भोजन पत्तों में तो कोई पुष्पों में , कोई पल्लवों में , कोई अंकुशों में तो कोई फलों में, एवं कोई छींकों में तो कोई छाल में तथा कुछ सखा पत्थरों को ही पात्र बनाकर भोजन रखे हुए हैं–
केचित् पुष्पैर्दलै: केचित् पल्लवैरङ्कुरै: फलै: । शिग्भिस्त्वग्भिर्दृषद्भिश्च बुभुजु: कृतभाजना: ..
भागवतमहापुराण,१०/१३/९,
और वे सब भोजन कर रहे हैं । अब सुस्पष्ट हो गया कि “वामे पाणौ मसृणकवलं” से केवल वाम हस्त में भोजन रखने में ही तात्पर्य है । और बिभ्रद् का सम्बन्ध इसे प्रमाणों कर रहा है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar