दयानन्दीयभ्रान्तिगिरि –भङ्ग,पृष्ठ ४
महर्षि आपस्तम्ब और कात्यायन से समर्थित ब्राह्मण भाग हमारे वैदिक धर्म में सदा संहिता के सामान ही वेदरूप में मान्य रहा है | इस पर
स्वामी दयानन्द जी इस प्रकार आक्षेप किये हैं—
“ भाष्यकारेण छन्दोवन्मत्वा ब्राह्मणानामुदाहरणानि प्रयुक्तानि |
अन्यथा ब्राह्मणग्रन्थस्य प्रकृतत्वाच्छन्दोग्रहणमनर्
–ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका-पृष्ठ—३७७,
अर्थ—भाष्यकार ने ब्राह्मण ग्रंथों को वेद के समान मानकर उनको
उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है |अन्यथा—यदि ऐसा न मानें तो
“ द्वितीया ब्राह्मणे ” सूत्र से अनुवृत्ति द्वारा ब्राह्मण ग्रन्थ प्राप्त हो
जाने से “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “ सूत्र में छन्दोग्रहण अनर्थक
हो जायेगा |अतः वेद से ब्राह्मण भाग भिन्न है |
समाधान—-
आचार्य सियारामदास नैयायिक—
नहीं स्वामी जी ! ऐसा कथमपि नही, मैंने आपसे प्रमाणतया प्रस्तुत “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “ में प्रश्न करके सिद्ध कर दिया है कि छन्दसि
का अर्थ मन्त्र और ब्राह्मणभाग—एतदुभय रूप ही विवक्षित है | वैसे जो आप यह मानसिकता बनाकर विचार करने चले हैं कि “ छन्दस् का अर्थ मन्त्रभाग रूप वेद होता है ”—
बस यही आपके भ्रम का कारण है | दूसरी बात यह कि आप पहले तो महाभाष्यकार पतंजलि जी को “ महाभाष्यकृत् “-पृष्ठ ८६ में लिखे हैं
और अब उनके महत्त्व को कम क्यों कर दिए “ महा “ शब्द हटाकर ? आप अपने पक्ष से उन्हें हटता हुआ देखकर तो ऐसा नही किये ?
श्रीमान् जी ! ध्यान दें –वैदिक प्रक्रिया में इसी सूत्र की तरह अनेक सूत्रों में छन्दसि शब्द आया है | छन्दसि शब्द युक्त सूत्र से जो भी कार्य
वेद में किये जाते है वे सभी मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों भागों में होते हैं, केवल मन्त्र भाग में ही नही , जैसे “” क्त्वाsपि छन्दसि “—७/१/३८, से छन्दसि उसके बाद वाले सूत्र “ सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड
“ सविता प्रथमेsहन् “-यजुर्वेद-३९/६, मन्त्र के अहन् चतुर्थी विभक्ति का लुक् हुआ है |ठीक इसी प्रकार यह सूत्र शतपथ ब्राह्मण के—
“ यश्चाsयं दक्षिणेsक्षन् पुरुषः-१४/६/८/३,
इस अन्श के अक्षन् के चतुर्थी डे. विभक्ति का भी लुक् करता है | स्वामी जी ! आपके अनुसार यदि छन्दसि का अर्थ केवल मन्त्र भागात्मक वेद लें तो कहीं भी ब्राह्मण भाग में सूत्र की प्रवृत्ति न होने से इन इन प्रयोगों की सिद्धि कथमपि नही हो सकती |
अतः छन्दसि का अर्थ मन्त्र और ब्राह्मण भाग दोनों ही हैं , जैसा कि आपस्तम्ब और महर्षि कात्यायन ने पहले ही कह दिया है | उस समय न आप अवतरित हुए थे न ही मैं | अतः छन्दसि का अर्थ इन प्रयोगों को देखते हुए मन्त्र और ब्राह्मण भाग– दोनों मानना पड़ेगा | इसी से सकल प्रयोगों की सिद्धि और सभी ऋषियों के वाक्यों की पुष्टि भी होगी |
और ऋषियों का विरोध अपने को एक ऋषि रूप में स्वीकार करने वाला भला कैसे कर सकता है | लोक और वेद ये दो पक्ष प्रयोगसाधुत्व की दृष्टि से वैयाकरणों में विशेष समादृत हैं |
” प्रथामायाश्च द्विवचने भाषायाम् “-७/२/८८, सूत्र से भाषा अर्थात् लोक में युष्मद् और अस्मदद् शब्द को आकार अन्तादेश होता है ,वेद में नहीं |और इसका प्रत्युदाहरण जैसे मन्त्र भाग है वैसे ही ब्राह्मण भाग भी |-
“ युवं सुराममश्विना “—यजुर्वेद २०/७६, मन्त्रघटक युवं मे जैसे आकार अन्तादेश नही हुआ | वैसे ही “ युवं वै ब्रह्माणौ भिषजौ “- शतपथ-८/२/१/३, ५/५/४/२५, “ युवमिदं निष्कुरुतम् “-ऐतरेय ब्राह्मण-२/२८, में भी आकार अन्तादेश “युवां “-ऐसा नही हुआ |
अतः मन्त्र और ब्राह्मण दोनों ही भाग वेद सिद्ध होते हैं | अर्थात् ब्राह्मणभाग में आतिदेशिक वेदत्व नही अपितु साक्षात् वेदत्व है |
इन प्रमाणों और युक्तियों की अवहेलना पुच्छविषाणहीन पशु के अतिरिक्त और कोई भी नही कर सकता |
>>>>>जय वैदिक सनातन धर्म , जय श्रीराघवेन्द्र<<<<<
—-ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का खण्डन—आचार्य सियारामदास नैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar