पुरुषसूक्त, मन्त्र-६ की विशद हिन्दी व्याख्या
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् । पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्या नारण्या ग्राम्याश्च ये ।।६।।
पूर्व मन्त्र में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, चतुर्मुख ब्रह्मा , भूर्भुवः आदि १४ लोकों तथा देव मनुष्यादि शरीरों की उत्पत्ति का निरूपण किया गया । अब इस मन्त्र में बतलाया जा रहा है कि किस प्रकार शक्ति प्राप्तकर उन्होंने जगत् के पदार्थों का सृजन किया —
तस्माद्यज्ञात्-यहां पूर्व मन्त्र से ब्रह्मा बोधक पूरुषः का अध्याहार कर लें । अर्थात् ब्रह्मा जी ने सृष्टिसामर्थ्य की प्राप्ति हेतु पहले यज्ञ किया । भगवान् अनिरुद्ध के विमल विग्रह को अग्नि और अपने शरीर को हवि(हवनीय द्रव्य) मानकर इन्द्रियों को एकाग्र करके ओम् का उच्चारण करते हुए अपने आप को उन भगवान् रूपी अग्नि में समर्पित कर दिया। और प्रभु के अंग का स्पर्श प्राप्त करके सृष्टि करने के योग्य हो गये –
तं प्रवृद्धमहाकायं ब्रह्माणं रचिताञ्जलिम्।। जगत्सृष्टिमजानन्तमनिरुद्धो हरिर्जगौ ।
त्वमिन्द्रियैर्देवसञ्ज्ञैः कुरु यज्ञं समाहितः ।। त्वच्छरीरं हविर्ध्यात्वा मां ध्यात्वा च हविर्भुजम् ।
प्रणवोच्चारणेनैव मय्यग्नौ त्वां निवेदय । मदंगस्पर्शमात्रेण स्रष्टुं योग्यो भविष्यसि ।। –वाराहपुराण
यहां निवेदय पर्यन्त शब्दों से भगवान् ब्रह्मा जी को नवधा भक्ति में अन्तिम भक्ति आत्मनिवेदन का संकेत कर रहे हैं। अर्थात् जीव भगवान् को पूर्वोक्त रीति से अपना सर्वस्व समर्पित कर दे तो विलक्षण कार्य करने की क्षमता प्राप्त कर सकता है । यहां सर्वस्वसमर्पण का भाव है कि अपनी समस्त वस्तुओं के साथ स्वयं का भी स्वामी भगवान् को ही समझना। सब कुछ भगवान् का मानकर स्वयं को उनका सेवक समझकर घर परिवार समाज और राष्ट्र की सेवा करना ।
अब मूल विषय पर आयें. –इसी तथ्य को प्रकट कर रहे हैं –तस्माद्–इस प्रथम पंक्ति से । सर्वहुतः –सर्वं = अपना सर्वस्व, हुतं = समर्पित कर दिया गया है, यस्मिन् =जिस भगवद्रूपी यज्ञ में , यह सर्वहुतःशब्द का तात्पर्य है । यज्ञात् = उन भगवान् रूपी यज्ञ से ,पृषदाज्यम् = दधिमिश्रित घृत का नाम पृषदाज्य है पर यहां ऐसा अर्थ नही लेना है ;क्योंकि यह यज्ञ का फल नहीं है । अतः यहां प्रकरण के अनुसार पृषदाज्य का अर्थ है –सृज्यमान प्राणियों को उत्पन्न करने की शक्तिविशेष, इसे ही ब्रह्मा जी ने , संभृतम् = प्राप्त किया ।
शंका — इस शक्ति के लिए पृषदाज्य शब्द का प्रयोग करने की क्या आवश्यक्ता ?सीधे ही कह देते ।
समाधान –भैया! वेद प्रत्यक्षरूप से सभी बात नहीं कहते हैं। ये प्रायः परोक्षवादी हैं —परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।–भागवतपुराण -११/३/४४,
पृषदाज्य-जैसे घृत और दधि एक में मिलाने से विलक्षणता आ जाती है । ठीक वैसे ही ब्रह्माजी को प्राप्त शक्ति में वैलक्षण्य है । तभी तो उनकी रची सृष्टि में विलक्षणताओं का अन्त नही है।
तान् = उस भगवत्प्रदत्त शक्ति से उन, वायव्यान् = वायु मार्ग में चलने वाले, पशून् = मृग,सिंह आदि की सृष्टि किये। ।
शंका —हा हा हा,ये पशु तो धरती पर चलने वाले हैं, आकाश में तो कथमपि नहीं चल सकते ।
समाधान —-देवताओं के वाहन जो पशु हैं । उनका ही यहां संकेत है । जैसे—दुर्गाजी का वाहन सिंह, वायुदेव का मृग,अग्निदेव का मेष= भेड़ (मत्स्यसूक्ततन्त्र ३९ पटल),इस प्रकार अन्य पशुओं को भी समझना चाहिए। ये सब अव्याहत गति से आकाश में विचरण करते हैं ।
ये = और जो, आरण्या = जंगल में रहने वाले पशु । इनमें 7मुख्य हैं –महिष,वानर,भालू ,सरीसृप= रेंगकर चलने वाले , रुरु,पृषत् और मृग । –दुर्गोत्सवतन्त्र । ग्राम्याः = ग्राम में रहने वाले,इनमें भी 7मुख्य हैं गिय,भेड़,बकरा(अज),अश्व,गर्दभ, खच्चर(ये घोड़ी द्वारा गधे से उत्पन्न होते हैं) और 7वें हैं मनुष्य । ये ७ ग्राम के मुख्य पशु हैं –शब्दकल्पद्रुम,भाग-३
यहां मनुष्यों की गणना पशुओं में– ज्ञानेन हीनः पशुभिः समानः,मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति जैसे अभिप्राय से अथवा पशु और पशुपालक में अभेद मानकर या नरमेध में पशु का कार्य नर से ही लिया जाता है–इस दृष्टि से की गयी है । वाल्मीकिरामायण में विश्वामित्रजी की तपश्चर्या के प्रसंग में शुनःशेप बालक को पशु का कार्य बलि देने के लिए ले जाते हुए अयोध्यानरेश अम्बरीष की चर्चा आयी है। —वा.रा.- बालकाण्ड –सर्ग-६१-६२
च = यह शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है । जिन पक्षी आदि का नाम मन्त्र में नही आया है। उनको इस शब्द से समझ लेना चाहिए ।चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थकः ।
यहां मन्त्र में आरण्या ग्राम्याश्च ये दोनो प्रथमान्त हैं अतः वायव्या ऐसा प्रथमान्त मान लें तो वायव्या नारण्या में ना = पुरुष, अर्थ करने पर पुरुष शब्द का अध्याहार करना नही पड़ेगा । ना नरौ नरः रूप नृ शब्द का है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar