पुरुषसूक्त, मन्त्र-७ की विशद हिन्दी व्याख्या
तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।। 7 ..
पूर्व मन्त्र की भांति इस मन्त्र में भी सर्वहुतः तक का अंश आया है । भगवान् वेद यहां कुछ रहस्य बतलाना चाहते हैं । वह यह कि यज्ञ —भगवान् का स्वरूप है —
“यज्ञो वै विष्णुः”—शतपथ ब्राह्मण.
निघण्टु 3/17 में भी यज्ञ के 15 नामो में एक नाम विष्णु आया है ।
महाभारत,अनुशासनपर्व, विष्णुसहस्रनाम में–“यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः “। -श्लोक104,
इससे यज्ञ भगवान् विष्णु का स्वरूप निश्चित हुआ । यही भगवान् इस मन्त्र में यज्ञशब्द वाच्य हैं। इधर ब्रह्मा जी भगवान् के अनन्य भक्त हैं। द्वादश महाभागवतों में इनका प्रथम स्थान है —
“स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः”—भागवतपुराण -6/3/20.
इन्ही 12 महाभागवतों के अन्दर आने वाले देवर्षि नारद अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं कि भगवान् और उनके भक्तों में कोई भेद नही होता दोनो अभिन्न हैं –
“तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्”–सूत्र-41.
अतः यज्ञस्वरूप भगवान् और परमभक्त ब्रह्मा जी को अभिन्न मानकर यह अर्थ किया जा रहा है—तस्मात् = उन,सर्वहुतः = सर्व =सब कुछ हवन के योग्य घृत आदि पदार्थ,हुतः = हवन कर दिये गये हों, जिसमें -ऐसे, यज्ञात् = यज्ञस्वरूप भगवान् से अभिन्न चतुरानन ब्रह्मा जी से,ऋचः = अग्निमीले पुरोहितम्–इत्यादि मन्त्र जो विशिष्ट एक अर्थ के प्रतिपादक और पादबद्ध होने से व्यवस्थित हैं उन्हें ऋक् कहते हैं —-
“तेषामृग्यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था”–पूर्वमीमांसा-अ02/1/32.
इन्ही का समूह जिसमें बहुत सी ऋचायें हैं—– (उसे ही यहां ऋचः इस बहुवचनान्त पद से कहा गया है) ऐसे ऋग्वेद को,और सामानि = रथन्तर आदि नाम वाली गीतियों = गान योग्यों को साम कहते हैं–
“गीतिषु सामाख्या”–पूर्वमीमांसा-अ02/1/33.
इनका ग्रन्थात्मकरूप सामवेद है-यह भी ,जज्ञिरे = उत्पन्न हुआ।
तस्माद् =उन्ही भगवदभिन्न ब्रह्मा जी से,छन्दांसि = गायत्री अनुष्टुप् आदि विविध छन्द,
छन्दांसि का मूल शब्द छन्दः यहां वेद का भी अभिधायक है —
“छन्दः पद्ये च वेदे च”– मेदिनीकोष,
अतः छन्दांसि इस बहुवचनान्त पद से मन्त्र और ब्राह्मण रूप सम्पूर्ण वेदों का भी कथन किया गया है ।
मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनो भागों को वेद कहते हैं —-
“मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्” –आपस्तम्ब ।
चारों वेदों के प्राकट्य का कथन लोकस्रष्टा चतुरानन के मुखों से हम आगे दिखलायेंगे। इधर श्रुतिशिरोभाग मुण्डकोपनिषद् आदि में ऋग् यजुः साम के साथ अथर्ववेद आदि की भी चर्चा आयी है–
“तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः”—1/5.
चत्वारो वेदाः —महाभाष्य1/1/1/.
अब चूंकि तीनो वेदों की नामोल्लेखपूर्वक उत्पत्ति पृथक् पृथक् बतलायी जा चुकी है अतः छन्दांसि पद से गायत्री आदि छन्दों के साथ मात्र अथर्ववेद और ब्राह्मण भाग का ही ग्रहण होगा । विभिन्नार्थक शब्दों का भी एकशेष –
“सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ”-पा0सूत्र1/2/64.
से होता है यदि किसी भी विभक्ति के परे रहते उनके रूपों में भिन्नता न हो । अतः एकशेष होने के पूर्व छन्श्च छन्दश्च छन्दश्च –इसमें प्रथम छन्दः शब्द अथर्ववेद, द्वितीय ब्राह्मण भाग तथा तृतीय शब्द गायत्री प्रभृति छन्दों का वाचक है । एकशेष होने पर बचा हुआ छन्दस् शब्द लुप्त हो चुके दोनो छन्दस् शब्दों के अर्थ का भी अभिधान करेगा–
“यः शिष्यते स लुप्यमानाभिधायी ।”
अवशिष्ट छन्दस् शब्द से विभक्ति आदि कार्य होंगे । तस्माद् = उन्ही से, यजुः = यजुर्वेद, अजायत= उत्पन्न हुआ ।
ब्रह्मा जी के पूर्वादि चारों मुखों से क्रमशः ऋग्यजुःसाम और अथर्ववेद उत्पन्न हुआ–
“ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः।
————————–व्यधात् क्रमात् ।।” –भा0पु03/12/37.
उनके पूर्व मुख से ऋग्वेद,दक्षिणमुख से यजुर्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद तथा उत्तर मुख से अथर्ववेद उत्पन्न हुआ –
“ऋचश्चैव —–निर्ममे प्रथमान्मुखात् ।।
यजूंसि —-दक्षिणादसृजन्मुखात् ।। सामानि—पश्चिमादसृजन्मुखात् ।।
अथर्वाणम्—-उत्तरादसृजन्मुखात् ।।” —विष्णुपुराण -1/5/54-55-56-57,
इतिहास और पुराणों की सहायता से ही वेदों का व्याख्यान करना चाहिए;क्योंकि इतिहास और पुराण के ज्ञान से शून्य व्यक्ति से भगवान् वेद डरते हैं कि यह मेरी प्रताड़ना करेगा अर्थात् अर्थ का अनर्थ कर देगा –
“इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति।।”
श्रुतिरूपिणी ज्योत्सना का प्रकाश पुराणरूपी पूर्ण चन्द्र के विना असम्भव है–
“पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्ना प्रकाशिता ।” –महाभारत आदिपर्व-1/86.
अतः इस मन्त्र में ब्रह्माजी के द्वारा गायत्री आदि छन्दों के साथ चारों वेदों की उत्पत्ति का कथन
किया गया है।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar