उत्पत्तिपालनप्रलयकारिणी पराम्बा भगवती “कूष्माण्डा”
“कूष्माण्डेति चतुर्थकम्”
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भगवती दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप “़कूष्माण्डा” देवी कहते हैं । इनकी आठ भुजाएं हैं । अत: ये अष्टभुजा
देवी के नाम से विख्यात हैं । इनके सात हाथों में क्रमश: कमण्डल, धनुष बाण, कमल, पुष्प, अमृतपूर्ण कलश,
चक्र तथा गदा हैं, आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है । तथा इनका वाहन
सिंह है-
“सिंहारूढामष्टभुजां कूष्माण्डां यशस्विनीम् ।
भास्वरभानुनिभामनाहतस्थितां चतुर्थदुर्गां त्रिनेत्राम् ॥
कमण्डलुचापबाणपद्मसुधाकलशचक्रगदाजपवटीधराम् ॥”
इनका स्वरूप सूर्य के समान तेजस्वी है ओर मानो आठों सिद्धियां ही इनकी आठ भुजाओं के रूप में प्रकट
होकर हमें कर्मयोगी जीवन अपनाकर तेज अर्जित करने की प्रेरणा देती हैं । इनकी मन्द मुस्कान हमारी जीवनी
शक्ति का संवर्धन करते हुए हमें हंसते हुए कठिन से कठिन मार्ग पर चलकर सफलता पाने को प्रेरित करती है ।
माँ के दिव्य स्वरूप का ध्यान हमें आध्यात्मिक प्रकाश प्रदान करते हुए हमारी प्रज्ञा शक्ति को जागृत करके
उचित तथा श्रेष्ठ कार्यो में प्रवृत्त करता है ।
“कूष्माण्डा नाम पड़ने का कारण”
गुप्तवती टीकाकार कूष्माण्डा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुये लिखते हैं-
“कूष्माण्डेति -कुत्सितः ऊष्मा –तापत्रयरूपो यस्मिन् संसारे स संसारो अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याः, त्रिविधतापरूपसंसारभक्षणकर्त्रीत्यर्थः” .
तात्पर्य यह कि कूष्माण्डा शब्द में कु, ऊष्मा ओर अण्ड ये तीन शब्द हैं, जिनमे कु का अर्थ है कुत्सित-खराब,ऊष्मा
ताप (गर्मी) को कहते हैं, ताप तीन प्रकार के प्रसिद्ध हैं दैहिक,दैविक और भौतिक, ये तीनों ताप हैं जिसमें उसका नाम
है-संसार, वह संसार जिनके अण्ड-मांसपेशी रूप उदर में है, उन्हें कूष्माण्डा कहते हैं ।
अर्थात् प्रलय काल उपस्थित होने पर भगवती कूष्माण्डा चराचर जगत को भक्षण करके उदरस्थ कर लेती हैं ।
तात्पर्य यह कि ये प्रलयङ्कर देवी हैं । और इससे यह भाव निकला कि ये अपने उपासकों के अन्तः शत्रु काम
क्रोधादि तथा बाह्य जगत के सभी शत्रुओं को सद्यः भक्षण कर लेती हैं ।
किन्तु भगवती का पूर्वोक्त व्युत्पत्ति से मात्र प्रलयकारी रूप स्वीकार करने पर इनके द्वारा धारण किये गये कमण्डल, कमल, अमृतपूर्ण कलश और सिद्धिप्रद जपमाला का वैयर्थ्य सिद्ध हो जाएगा; क्योंकि प्रलयकारी को
इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता नही होती ।
अतः गुप्तवतीकार का तात्पर्य केवल प्रलयङ्कर रूप बताने में नही है । उनकी व्युत्पत्ति में “यस्याः” की भांति पञ्चम्यन्त “यस्याः” तथा “यया-ये तृतीयान्त शब्द भी कुछ शब्दों को हटा करके जोड़ लेना चाहिए ।
अब देखें “कूष्माण्डा” शब्द की व्युत्पत्ति”
“कु -कुत्सितः ऊष्मा-तापत्रयरूपो यस्मिन् संसारे स संसारः एव अण्डः ( ब्रह्माण्डः, ब्रह्माण्ड शब्द के लिए अण्ड
शब्द का प्रयोग मानस में देखा गया है-”अण्ड कटाह अमित लयकारी ।” और “ विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा
लोपो वाच्यः”- वार्तिक से भी सत्यभामा के लिए भामा, सत्या, जैसे शब्दों का प्रयोग होता है वैसे ही ब्रह्माण्ड के
लिए भी अण्ड शब्द का प्रयोग किया जा सकता है ) यस्याः सा कूष्माण्डा” .
“कु-कुत्सितः, ऊष्मा-तापत्रयरूपो यस्मिन् संसारे स संसारः एव अण्डः(पाल्यते) यया सा कूष्माण्डा” । एवञ्च “कु-कुत्सितः, ऊष्मा-तापत्रयरूपो यस्मिन् संसारे सः संसारः एव अण्डः यस्यां सा कूष्माण्डा”-इन व्युत्पत्तियों से यह
अर्थ होगा कि
“त्रिविध तापयुक्त जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनसे पालित पोषित होता है और अन्त में जिनमें लीन हो जाता
है उन पराम्बा भगवती को “कूष्माण्डा” कहते हैं ।”
इस व्युत्पत्ति से वेदान्तप्रोक्त “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते-” इत्यादि ब्रह्म के लक्षण इनमें संघटित होने से ये साक्षात् ब्रह्मस्वरूपिणी हैं । भक्तों की वृद्धि करके पालन पोषण करने वाली तथा उनके समस्त शत्रुसंघ को विदलित
करने वाली हैं भगवती पराम्बा ।
इनके नाम के अनुसार इन्हें कद्दू की बलि बड़ी प्रिय है । संस्कृत में कूष्माण्ड कद्दू (कुम्हड़ा) को कहते हैं । “अर्शआदिभ्योऽच्”-५।२।१२७, सूत्र से “कूष्माण्डो विद्यते बलिरूपेण अस्याः” इस व्युत्पत्ति में अच् प्रत्यय करके कूष्माण्डा शब्द सिद्ध होता है । अर्थात् कूष्माण्ड जिसे बलि रूप में प्रिय हो उन्हें कूष्माण्डा कहते हैं ।
किन्तु इस व्युत्पत्ति से भगवती का कोई विशेष वैशिष्ट्य प्रकट नही होता,भले ही उन्हें कुम्हड़ा क्यों न पसंद हो । अतः गुप्तवतीकार से अभिमत व्युत्पत्ति ही सर्वोत्तम है, जो भगवती कूष्माण्डा के भक्तोपयोगी अनेक गुणों को प्रकट
करती है ।
ध्यान
“वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम् । सिंहारूढामष्टभुजां कूष्माण्डां यशस्विनीम् ॥
भास्वरभानुनिभामनाहतस्थितां चतुर्थदुर्गां त्रिनेत्राम् ।
कमण्डलुचापबाणपद्मसुधाकलशचक्रगदाजपवटीधराम् ॥”
इस प्रकार अनाहतचक्र की स्वामिनी होने से इनके ध्यान, स्तोत्र और कवच का पाठ करने से अनाहत चक्र
स्वयं जागृत हो जाता है । जिससे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं तथा आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है
और साधक इनकी कृपा से जीवन का परम और चरम लक्ष्य प्राप्त कर लेता है ।
जयतु जगज्जननी कूष्माण्डा
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar