
इसीलिए मनीषीजन कहते हैं कि सन्ध्या न करने पर पाप लगता है; क्योंकि रात्रिकृत दुष्कृत नष्ट नहीं हुआ । और करने पर पुण्य नहीं होता है ; क्योंकि स्वर्गादि की भांति किसी फलविशेष के लिए सन्ध्या कर्म का विधान नहीं है ।
नित्य कर्म में कुछ अंग यदि समय न होने से छूट भी जांय तो कोई हानि नहीं है; क्योंकि सूर्यशच् इत्यादि मन्त्र से किया जाने वाला पापप्रणाश द्रुपदादिव मन्त्र से हो जाता है । सूर्यश्च–, तथा द्रुपदादिव ये दोनों मन्त्र पापक्षालक हैं । किन्तु यही कार्य अघमर्षण मन्त्र से भी होता है । अघमर्षण तान्त्रिक सन्ध्या में विशेष बतलाया गया है ।
सन्ध्या अनिवार्य है । द्विज मात्र को प्राणायाम अघमर्षण सूर्यार्घ्य तथा गायत्री जप ये सब प्रतिदिन करना चाहिए ।
जहां उत्तम और अनुत्तम दोनो शब्द आये हों वहां अनुत्तम का अर्थ होगा निकृष्ट । जैसे अनुत्तमेषु लोकेषु उत्तमेषु लोकेषु इति ज्योतिष: –” यहां एक स्थान पर लोक का विशेषण अनुत्तम और द्वितीय स्थान पर लोक का विशेषण उत्तम शब्द आया है । उत्तम लोक और निकृष्ट लोक ये अर्थ है । अनुत्तम का अर्थ सर्वोत्कृष्ट होता है और निकृष्ट भी । हम
गायत्री जप की संख्या
साधक को प्रतिदिन समय को देखकर संख्या निर्धारित करनी चाहिए । जो वैष्णवादि मन्त्रों से दीक्षित नहीं हैं । वे नित्य १००० संख्या में गायत्री जप करें । कम समय हो तो १०० जप और अतिस्वल्प समय वालों को १० की संख्या में गायत्री जप अनिवार्य है ।–
सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां शतावराम् । गायत्रीं यो जपेन्नित्यं न स पापैर्हि लिप्यते ।।
— नरसिहंपुराण, अध्याय ५८/८६
इस प्रकार जापक पापों से लिप्त नहीं होता है ।
#आचार्यसियारामदासनैयायिक
