भगवान् का धाम या नित्यविभूति

मुक्तों से प्राप्य प्रभु के दिव्य धाम का उल्लेख “यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम” (जहाँ जाकर प्राणी नहीं लौटता वही मेरा परम ( सर्वश्रेष्ठ)धाम है )से स्वयं श्रीहरि ने किया है । सम्पूर्ण अविद्या का नि: शेष विनाश इस धाम की विशेषता है ।    “आदित्यवर्णं तमस: परस्तात्”- से (तमस:=प्रकृति से ऊपर, आदित्यवर्णं= आदित्य के समान वर्ण वाले दिव्यमंगल विग्रह सम्पन्न भगवान् को बतलाया गया है ।

 

“ते ह नाकम्” में नाक शब्द से नित्यविभूति जिसे वैकुण्ठ साकेत गोलोक अयाध्या आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है । उसका उल्लेख है ।  “क्षयन्तमस्य रजस: पराके” से रजोगुणयुक्त प्रकृति से ऊपर भगवान् का निवास कथित है । 

वही नित्यविभूति या अयोध्या किम्वा”तदहरेव परमे व्योमन्” से परमात्मा को उसी धाम में प्रतिष्ठित बतलाया गया है । वैकुण्ठ है । “योSस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्” से इस दिव्य धाम का स्वामी भगवान् को कहा गया है । इसी को प्राप्त करके मुक्त पुरुष संसार में नहीं लौटता । जिसका संकेत भगवान् गीता में “यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम” से किये हैं ।

“तद्धाम परमं मम” से भगवत्स्वरूप का कथन है –ऐसा नहीं कह सकते ; क्योंकि “तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:” से विष्णो: में षष्ठी विभक्ति द्वारा उनमें और उनके धाम में भेद दर्शाया गया है ।

“पद्यते= गम्यते इति पदम्” व्युत्पत्ति से प्राप्तव्य स्थान विशेष ही पद शब्द से ज्ञात होता है ।

“राहो: शिर:” इत्यादि स्थलों में जहाँ भेद बाधित है वहाँ षष्ठी अभेदार्थिका भी स्वीकृत है । पर प्रकृत स्थल में प्रभु एवं उनके धाम का भेद  “योSस्याध्यक्ष: परमे व्योमन्” द्वारा शास्त्रसिद्ध होने से षष्ठी अभेदार्थिका कथमपि नहीं मानी जा सकती । इसलिए गीता में भगवान् ने मुक्कों से प्राप्य अपने सर्वश्रेष्ठ 

धाम का निर्देश किया । भगवद्धाम सभी लोकों से सर्वश्रेष्ठ है । अतएव मोक्ष धर्म में अन्य लोकों को इसकी अपेक्षा नरक बतलाया गया है –“एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मन:” हे तात ! परमात्मा के स्थान= धाम के समक्ष ये स्वर्गादि लोक नरक के समान हैं ।

भगवान् का दिव्य धाम प्रकृतिमण्डल से परे होने के कारण ऊपर अनन्त है । पर प्रकृतिमण्डल से इधर नहीं है । अत: प्रकृति मण्डल से परिच्छिन्न है । इसी प्रकार प्रकृतिमण्डल प्रधान से परिच्छिन्न और नीचे अनन्त है; क्योंकि पूर्ववचनों “क्षयन्तमस्य रजस: पराके” द्वारा ऐसा ही सुनिश्चित होता है ।”पादोSस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” इस पुरुषसूक्त के द्वारा अस्मदादि सभी प्राणियों को परमात्मा का एकपाद तथा अप्राकृत दिव्य धाम में विराजमान तत्त्वाभिमानी ,नित्य सूरि तथा मुक्त जीवों को त्रिपाद शब्द से कहा गया है । यद्यपि यह तारतम्य प्रकृतमण्डल और दिव्यधाम में विराजमान जीवों का कहा गया है । तथापि एकपादविभूति और त्रिपादविभूति में यह उन जीवों के आधार से स्वत: सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार त्रिपादविभूति से अभिहित नित्यविभूति किम्वा वैकुण्ठापरपर्याय अयोध्या ऊपर अनन्त और नीचे प्रकृति से परिच्छिन्न है ।

 नित्यविभूति का लक्षण–

त्रिगुणद्रव्यभिन्नत्वे सति सत्त्ववत्त्वम् नित्यविभूतित्वम् ।

 त्रिगुणद्रव्य से भिन्न होने के साथ जो सत्त्गुणयुक्त हो उसे नित्यविभूति कहते हैं । भगवद्धामापरपर्याय नित्यविभूति सत्वरजस्तमोमयी प्रकृति से भिन्न और सत्त्व गुण से युक्त है । अत: लक्षण समन्वय हो जाता है । प्रकृति में अतिव्याप्त निरसनहेतु “प्रथम दल है ; क्योंकि सत्त्वमयी प्रकृति भी है अत:  त्रिगुणद्रव्यभिन्नत्व का निवेश किया गया । 

केवल त्रिगुणद्रव्यभिन्नत्व ही कहा जाता तो जीवों में लक्षण अतिव्याप्त हो जाता; क्योंकि वे भी प्रकृति से भिन्न हैं । अत: सत्त्ववत्त्वम् इस विशेष्यदल का निवे किया गया । वे प्रकृति से बिन्न होने पर भी सत्त्वविशिष्ट नहीं हैं । अत: अतिव्याप्ति नहीं ।

“स्वयं प्रकाशत्वे सति सत्त्ववत्त्म् नित्यविभूतित्वम् ।जो स्वयं प्रकाश होते हुए सत्त्वगुणयुक्त हो उसे नित्यविबूति कहते हैं । यह नित्यविभूति अचेतन होते हुए स्वयं प्रकाश आनन्दस्वरूपा तथा जीव और ईश्वर से विलक्षण है ।

“तत्रानन्दमया लोका भोगाश्चानन्दलक्षणा:।  आनन्दं नाम तं लोकं परमानन्दलक्षणम् ॥

तयोर्नौ परमं व्योम निर्द्वन्द्वं सुखमुत्तमम् । षाड्गुण्यप्सरो नित्यस्वाच्छन्द्याद्देशतां गत: ॥”

नित्यविभूति में आनन्दमय लोक और आनन्दमय भोग हैं । आनन्द नाम से प्रसिद्ध यह लोक परमानन्दस्वरूप है । हम दोनों ( भगवान् और उनकी प्रियतमा श्री जी ) के लिए द्वन्द्वरहित उत्तम सुखरूप है । ज्ञान, शक्ति, बल ऐश्वर्य, तेज और वीर्य इन छहो गुणों का प्रसार ही देशरूपता को प्राप्त हुआ है ।

 अनुकूल ज्ञान ही आनन्द है । इसलिए नित्यविभूति ज्ञानस्वरूप सिद्ध होती है ।

रहस्याम्नाय ब्राह्मण में प्रश्न प्रतिप्रश्न किया गया कि भगवान् का विग्रह कैसा है ? उतार दिया गया -” यदात्मको भगवान्” -जिस प्रकार भगवान् हैं । “किमात्मको  भगवान्”–भगवान् किस प्रकार हैं ? पुन: उत्तर किया गया–“ज्ञानात्मक:” । भगवान् ज्ञानस्वरूप हैं । अर्थात् भगवान् का मंगलमय श्रीविग्रह ज्ञानात्मक है । भगवद्विग्रह, जीव और नित्यविभूति सभी ज्ञानात्मक होने से स्वयंप्रकाश हैं । 

जैसे ज्ञानस्वरूप जीवात्मा स्वयंप्रकाश होने पर भी धर्मभूत ज्ञान के विना निर्विषयक ही रहता है । वैसे ही नित्यविभूति भी निर्विषयक  और कृर्तृत्वशून्य है ।  धर्मभूत ज्ञान की भाँति जीव और ईश्वर के लिए प्रकाशित होती है । अत: “परस्मै भासमानत्वरूप ” पराक्त्व इसमें सूपपन्न है ।

जैसे सुसषुप्त्यवस्था में जीव का धर्मभूत ज्ञान नहीं प्रकाशता ठीक वैसे ही संसारदशा ( बद्धावस्था ) में नित्यविभूति भी स्वयं प्रकाशित नहीं होती । भगवत्स्मरण के प्रभाव से केवल उनके धर्मभूत ज्ञान का विषय बन पाती है ।पर बन्धरहित अवस्था में वह उनके ज्ञान की अपेक्षा न रखती हुई ही प्रकाशित होती है ।

कतिपय चिन्तकों कथन है कि नित्यविभूति जड़ है स्वयंप्रकाश नहीं । शास्त्रों में उसके स्वयंप्रकाशत्व कथन का तात्पर्य अत्यन्त दीप्तियुक्त तथा प्रकृति की भाँति आवरण डालने वाली नहीं है–इसे बतलाने में है ।

इसलिए लक्षण है —  तमोरहितत्वे सति सत्ववत्वत्त्वम् नित्यविभूतित्वम् ।

जो तमोगुण से शून्य और सत्त्वगुण से युक्त हो उसे नित्यविभूति कहते हैं । लक्षणसमन्वय पूर्ववत् कर लेना चाहिए ।

जय श्रीराम

#आचार्यसियारामदासनैयायिक

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