सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।
-वाल्मीकिरामायण,युद्धकाण्ड,18/33,
जो, सकृदेव –एकबारमेव –अनावृत्तिलक्षणाम् –जिसमें आवृत्ति नही करनी पड़ती ,केवल एक बार ही प्रपत्ति कर लेता है उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय दे देता हूं ।
प्रपन्नाय –प्रपत्तिं कुर्वते –कायिकी शरणागति करने वाले को ,तवस्मीति –मैं आपका ही हूं–ऐसी मानसी शरणागति करने वाले को ,तथा ,Yacate –मैं आपका हूं मेरी रक्षा कीजिये –इस प्रकार याचना करने वाले अर्थात् वाचिकी शरणागति करने वाले को ,सर्वभूतेभ्यः -सम्पूर्ण प्राणियों से , अभयं -अभय, ददामि -दे देता हूं ।
एतद् -यह, मम-मेरा ,व्रतं -व्रत है ।
यहां सर्वभूतेभ्यः में चतुर्थी और पञ्चमी दोनों विभक्तियां हो सकती हैं ।
चतुर्थी विभक्ति के पक्ष में यह अर्थ है कि सबको अभय देता हूं ,केवल विभीषण को ही नहीं । सबको अभय कहने से यह भाव निकला कि शरणागति में देव, मनुष्य,पशु पक्षी आदि सभी का अधिकार है । अत एव भगवान् ने शरणागत गजेन्द्र आदि की रक्षा की ।
पञ्चमी विभक्ति पक्ष में यह अर्थ निकला कि भयहेतुक सभी से अभय देता हूं यहां तक कि अपने से भी अभय दे देता हूं ;क्योंकि सर्वभूतेभ्यः के अर्थ में संकोच किया जाय -इसमें कोई प्रमाण नही है ।
सबसे अभय वही दे सकता है जो सबको अपने वश में रखने वाला तथा सबका स्वामी हो । इससे भगवान् में ” सर्ववशी सर्वस्येशानः ” इत्यादि गुण सूचित हुए ।
व्रतं मम- से यह सूचित किया गया कि किसी भी स्थिति में शरणागत का त्याग मैं नही कर सकता । सर्वसमर्थ भगवान् शरणागत के त्याग में असमर्थ हैं ।
अभयम्–अभय मोक्ष का नाम है –”अथ सोऽभयं गतो भवति ” ” आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन ” श्रौतवचन इसमें प्रमाण हैं । यही अभय–मोक्ष- ब्रह्मवविद्या का फल बतलाया गया है ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar