रुक्मिणी जी का प्रेमपत्र

रुक्मिणी जी का प्रेमपत्र

रुक्मिणी जी ने भगवान् श्रीकृष्ण को एक प्रेमपत्र भेजा जिसकी चर्चा भागवत दशम स्कन्ध में है । यदि आज कोई लड़की किसी लड़के से ऐसा करती है तो समाज या परिवार में बुरा क्यों माना जाता है ?

उत्तर –
प्रश्न सामयिक और सटीक है | भागवत के दशम स्कन्ध अध्याय ५२ में इस पत्र की चर्चा है जो रुक्मिणी जी द्वारा एक विश्वस्त विप्र के हाथ भिजवाया गया है | किन्तु क्यों भिजवाया ?
इसका उल्लेख भी वहीँ है |

वे श्रीकृष्ण के अनुपम रूप ,प्रभाव,भक्तवात्सल्य आदि गुण तथा अलौकिक संपत्ति की चर्चा अपने यहाँ आये नारदादि ऋषियों एवं अन्य लोगों से सुन चुकी थीं | अतः उन्हें अपने अनुरूप समझकर पति रूप में मन ही मन वरण कर लिया –

” सोपश्रुत्य मुकुन्दस्य रूपवीर्यगुणश्रियः | 

गृहागतैर्गीयमानास्तं मेने सदृशं पतिम् ||–भा.पु. १०/५२/२३, 

उनकी इस भावना का सम्मान उनके माता पिता आदि ने भी किया,
किन्तु उनका भाई रुक्मी श्रीकृष्ण से द्वेष के कारण उन्हे रोककर
अयोग्य शिशुपाल के साथ उनका विवाह करना चाहा –

” बन्धूनामिच्छतां दातुं कृष्णाय भगिनीं नृप | 
ततो निवार्य कृष्णद्विड्रुक्मी चैद्यममन्यत ||-१०/५२/२५,

इस बात से रुक्मिणी जी का मन बड़ा खिन्न हुआ और उन्होंने भगवान्
कृष्ण के पास पत्र देकर एक ब्राह्मण को भेजा –

” तदवेत्यासितापाङ्गी वैदर्भी दुर्मना भृशम् |
विचिन्त्याSSप्तं द्विजं कञ्चित् कृष्णाय प्राहिणोद्द्रुतम् ||१०/५२/२६, 

रुक्मिणी जी अपने पत्र के ३९वें श्लोक में यह स्पष्ट लिखती हैं कि ” हे
प्रभो ! मैंने पतिरूप में आपको वरण कर लिया है अपने आपको आपको समर्पित कर दिया है | आप आकर मुझे अपनी पत्नी बना लें, हे कमलनयन ! जैसे सिंह के भाग को सृगाल ( सियार ) नहीं स्पर्श कर सकता, वैसे ही मुझे सृगालवत् तुच्छ शिशुपाल स्पर्श न कर सके –

तन्मे भवान्खलु वृतः पतिरङ्ग जायामात्माSर्पितश्च भवतोSत्र विभो विधेहि |

मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्यआराद्गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमम्बुजाक्ष ||
–१०/५२/३९, 

–इस पङ्क्ति से सुस्पष्ट हो रहा है कि ” रुक्मिणी जी को अयोग्य वर के हाथ में सौंपने का निश्चय रुक्मी के कारण सब लोग कर चुके थे , अत एव उन्होंने पूर्व निर्णीत पतिरूप में स्वीकृत श्रीकृष्ण के पास पत्र भेजा और इस स्थिति में प्रत्येक कन्या ऐसा कर सकती है –

” अयोग्यं दातुमुद्युक्ते पित्रादौ कन्यका स्वयम् |
योग्यं पतिं प्रवृण्वीत न च सा दोषभागिनी ” || 

अर्थ –यदि माता पिता आदि अयोग्य लड़के को कन्या देने को तैयार हो जांय तो कन्या को चाहिए कि वह स्वयं योग्य पति का वरण कर ले | ऐसा करने पर वह दोषी नही मानी जा सकती |–यह वरतन्तु ऋषि का वचन है और इसे भागवत की श्रीधरी पर वंशीधरी टीका लिखने वाले श्रीवंशीधर जी ने उद्धृत भी किया है | देखें –१०/५२/३९,

किन्तु आजकल ” किस डे” आदि मनाने वाले , मातापिता के प्रति निष्ठा न रखने वाले इस पत्र की कशौटी पर कितना खरे उतरते हैं ,वे स्वयं विचार करें | रुक्मिणी जी जैसी स्थिति होने पर कोई भी कन्या पूर्वोक्त कार्य कर सकती है | पर अयोग्य को ही योग्य समझने की भूल में यह मान्य नही है |

जय श्रीराम

#आचार्य सियारामदास नैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar

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