श्रीसूक्त – भूमिका
यह सूक्त 15 ऋचाओं का है । इसके पाठ एवं सविधि हवन से धन,सम्पत्ति की प्राप्ति के साथ ही श्रीसूक्त भूमिकावाक्सिद्धि ,भगवत्प्राप्ति के बाधक मलों का नाश और यश की उपलब्धि होती है ।
श्रीसूक्त में भगवती श्री और लक्ष्मी जी इन दोनों की स्तुति है । जिसमें श्री जी तथा लक्ष्मी जी ये दोनों भगवान् श्रीहरि की पत्नियां हैं –
” श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ “–यह श्रौत वचन प्रमाण है ।
श्री और लक्ष्मी -ये दोनों दिव्यरूपिणी हैं । वाल्मीकि रामायण में जानकी जी को ” श्रीरिवापरा ” कहा गया — दूसरी श्री जैसे । यदि श्री का अर्थ मात्र जड़ सम्पत्ति ही होता तो महर्षि वाल्मीकि जैसे आप्त पुरुष सीता जी की उपमा श्री से नहीं देते ।
यही स्थिति लक्ष्मी जी के विषय में समझनी चाहिए ; क्योंकि ” सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुः ” –सीता जी लक्ष्मी और आप भगवान् विष्णु हैं –इससे लक्ष्मी का अर्थ केवल धन वैभव ही नही अपितु मंगलमयरूपिणी भगवती भी है ।
अतः हम भगवान् और उनकी प्रियतमा कल्याणकारिणी भवभीतिहारिणी इन दोनों के पादपद्मों मे प्रणाम करके स्वान्तःसुखाय इस श्रीसूक्त की विशद हिन्दी व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं ।
इसमें जो साद्गुण्य दिखे वह मेरे पूज्य गुररुजनों का और वैगुण्य स्वयं मेरा है –ऐसा मानकर सुधीजन इसे देखने की कृपा करेंगे ।
जयतु वैदिकीसंस्कृतिः जयतु भारतम्—
जय श्रीराम
आचार्य सियारामदास नैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar