श्रीसूक्त : मन्त्र-2 की व्याख्या
ॐ तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥
अन्वय-जातवेदः ! तां अनपगामिनीं लक्ष्मीं मे आवह । यस्यां अहम् हिरण्यं गाम्
अश्वं पुरुषान् विन्देयम् ॥
अनुवाद–हे जातवेद-भगवन् ! अथवा अग्निदेव ! आप मेरे लिए अनपगामिनीं–मुझे छोड़कर अन्यत्र न जाने वाली अर्थात् सुस्थिर, लक्ष्मी को,आवह्–बुला दीजिए अर्थात् भेज दीजिए ।
यस्यां–यस्याम् –मद्गृहे आगतायाम्–जिनके मेरे घर आ जाने पर, अहम्–मैं ,हिरण्यं–स्वर्ण,गाम् -गौ अथवा पृथिवी,अश्वं–घोड़ा, पुरुषान्-पुत्र,पौत्र,मित्र,भृत्य आदि को, विन्देयम्–प्राप्त कर लूं ।
व्याख्या–हे भगवन् ! अथवा हे अरणिमन्थनसमुद्भूत अग्निदेव! मैं आप से प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे तां–पूर्व ऋचा में कहे गये अनेक गुणविशिष्ट उन लक्ष्मी जी को कृपा करके बुला दीजिए ।
वे कैसी है?-इसका उत्तर देते हैं -अनपगामिनीम्–विष्णु भगवान् को त्यागकर अन्यत्र जाने वाली नहीं हैं । इसमें विष्णुपुराण का वचन प्रमाण है कि वे श्रीरामावतार में श्रीसीता और श्रीकृष्णावतार में श्रीरुक्मिणी जी बनीं । अन्य अवतारों में भी वे प्रभु से पृथक् नहीं होतीं–
राघवत्वेऽभवत् सीता रुक्मिणी कृष्णजन्मनि । अन्येष्वप्यवतारेषु विष्णोरेवानपायिनी ॥
तात्पर्य यह कि प्रभु के चरणों में चञ्चला लक्ष्मी जी अपने स्वभाव को त्यागकर अचञ्चला अर्थात् स्थिर रहती हैं । वे मेरे यहां विना प्रभु के स्थिर नही रह सकतीं हैं और मैं स्थिर लक्ष्मी की कामना करता हूं । अतः उन्हें स्थिर रखने वाले श्रीहरि के सहित वे यहां पधारें ।
दूसरा रहस्य यह है कि जब लक्ष्मी जी एकाकिनी आती हैं तब अपने वाहन उल्लू पर बैठकर आती हैं । और उलूक को अन्धकार प्रिय है । अतः धन रहने पर भी जीवन अन्धकारमय हो जायेगा ।
इसलिए जिनके चरणों में लक्ष्मी जी स्थिर हैं उनके साथ जब आयेंगी तब उल्लू नही अपितु गरुड़ जी पर आसीन होकर पधारेंगी । गरुड़ जी के पंखों से वेदध्वनि निकलती है । और ” वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः ” -इस गीतोक्ति के अनुसार जीवन प्रकाशमय हो जायेगा । ऐसी स्थिर लक्ष्मी मुझे प्राप्त करायें ।
उलूकवाहिनी लक्ष्मी तो रावण कंस हिरण्यकशिपु के यहां भी थीं और आज देशद्रोहियों के पास भी हैं जिनसे उनका ही नही अपितु उनके कारण अन्य लोगों का भी जीवन नरक बन चुका है ।
ऋचा के अनपगामिनी और पुराण के अनपायिनी ये दोनों शब्द समानार्थक हैं । पूर्व शब्द में गम् धातु है और दूसरे में गत्यर्थक अय् धातु ।
हिरण्यं-हिरण्य का अर्थ स्वर्ण प्रसिद्ध ही है पर हिरण्य का अर्थ धन भी है –
द्रव्यं वित्तं स्वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु। हिरण्यं द्रविणंद्युम्नमर्थरैविभवा अपि॥
–अमरकोष-2/9/90,और धन में सोना चांदी आदि सभी आ जाते हैं अतः यहां हिरण्य का अर्थ धन ही है ।
शंका-यदि हिरण्य का अर्थ धन है तो गौ, अश्व भी धन के अन्तर्गत ही हैं क्योंकि “गोधन गजधन वाजिधन और रतन धन खान” प्रसिद्ध हैं फिर ऋचा में ” गामश्वं ” कहने की क्या आवश्यकता ?
समाधान-गाम् गोशब्द के कर्मकारक की द्वितीया के एकवचन का रूप है । और गो शब्द केवल गाय ही नहीं अपितु वाणी,भूमि ,इन्द्रिय आदि अर्थों में भी प्रयुक्त होता है–
” गौर्नादित्ये बलीवर्दे किरणक्रतुभेदयोः । स्त्री तु स्याद्दिशि भारत्यांभूमौ च सुरभावपि ॥
–अमरकोष की सुधाटीका –3/3/25,
गामाविश्य च भूतानि–गीता-15/13,में गाम् का अर्थ ” पृथिवी ” है । अर्थात् सुन्दर वाणी,जमीन आदि प्राप्त करूं ।
पूर्वमीमांसा में ” गोऽश्वेभ्यो अन्ये अपशवः ” इस वेदवाक्य को लेकर सिद्धान्त किया गया कि यहां गौ और अश्व से भिन्न भैंस आदि में अपशवः से पशुत्वाभाव नही बतलाया जा रहा है अपितु गौ और अश्व की प्रशंसा में इसका तात्पर्य है कि ये दोनों सभी पशुओं में श्रेष्ठ हैं ।
अत एव गाम् से गौ तथा अश्वं से अश्व का उल्लेख ऋचा में किया गया । चूंकि दोनों में एकवचन है इसलिए 1गाय और 1 घोड़े की प्रार्थना मत समझना ;क्योंकि यहां जातावेकवचनम् के अनुसार जाति में एक वचन हुआ है । अर्थात् गोत्वजाति से विशिष्ट की विवक्षा है । वह प्रार्थी के इच्छानुसार एक या अनेक हो सकती है । ऐसे ही अश्व के विषय में भी समझना चाहिए ।
पुरुषान्–यहां पुरुषान् का अर्थ है –पुत्र, पौत्र,सेवक,भगवान्,भगवद्भक्त और आचार्य ( गुरु )आदि पुरुषवर्ग । ये अर्थ ऐसे निकलेंगे–पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च पुरुषश्च इस प्रकार विग्रह करके द्वन्द्वसमास करने के बाद ” सरूपाणामेक एकविभक्तौ–1/2/64,सूत्र से एक शेष होकर पुरुष शब्द बचा । जिससे शस् विभक्ति आने पर पुरुषान् बना । जो शेष बचा वह लुप्त शब्दों के अर्थों को प्रस्तुत करेगा –” शिष्यमाणः लुप्यमानार्थाभिधायी ” । विग्रह में प्रत्येक पुरुष शब्द में यथेच्छ भगवान्,भगवद्भक्त,आचार्य, पुत्र, पौत्र, भृत्य आदि अर्थ लिए जायेंगे ।
पुरुष शब्द परमात्मा में अर्थ में आया है–
” वेदाऽहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः
परस्तात् “। -श्वेताश्वतरोपनिषद्,3/7,
सहस्रशीर्षा पुरुषः-पुरुषसूक्त-1,
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।
-गीता-10/12,आदि।
भगवद्भक्त का तात्पर्य ब्रह्मा ,नारदादि 12 महाभागवतों तक है ।
आचार्य का तात्पर्य गुरु से है जिसकी आवश्यकता अपरा,परा इन दोनो विद्याओं के लिए है । इसीलिए कहा गया कि परमात्मा को ब्रह्मनिष्ठ गुरु वाला व्यक्ति ही जान सकता है –
आचार्यवान् पुरुषो वेद-छा.उ.6/14/2,
अन्य पुत्रादि का पुरुषत्व प्रत्यक्षतः दृश्यमान ही है । ये सब भगवती लक्ष्मी के पदार्पण से प्राप्त होते हैं । बस अर्थानुसंधानपूर्वक इस ऋचा का सदुपयोग करना है । —जय श्रीराम—
—जयतु भारतम्,जयतु वैदिकी संस्कृतिः—
—आचार्य सियारामदास नैयायिक—

Gaurav Sharma, Haridwar