श्रीसूक्त मन्त्र-४ की विशद हिन्दी व्याख्या
ॐ कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारमार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् |
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ||४||
व्याख्या – कां—सुखस्वरूपिणी, क शब्द का अर्थ है सुख –“ कं सुखं च प्रकीर्तितम-एकाक्षर कोष-७, कं-सुखमस्यास्तीति-ऐसी व्युत्पत्ति में सुखवाचक क शब्द से “ अर्श आदिभ्योSच् ”—५/२/२७, इस पाणिनि सूत्र से मत्वर्थीय अच् प्रत्यय होकर “ का ” शब्द बना , जिसके द्वितीया विभक्ति का रूप है कां- सुखस्वरूपिणी,
सोस्मितां – मधुर मुस्कान वाली, आ –ईषत्-कुछ , उत्-उत्कृष्ट , स्मितं-हास्यं—इति ओत्स्मितम्–तेन सह इति सोस्मिता ताम् –यहाँ सह को स आदेश तथा उत् के त का छान्दसत्वात लोप होकर सोस्मिता शब्द बना है जिसका अर्थ है –विलसित मन्द हास्य वाली |
हिरण्यप्राकाराम् –नानारत्नमय तथा स्वर्णमय परकोटा के अन्दर निवास करने वाली , आर्द्रां–दया से आर्द्र हृदय वाली, ज्वलन्तीं—दिव्य लावण्ययुक्त तेज से स्वतः देदीप्यमान , तृप्तां—भगवत्संसर्गजनित परमानन्द से पूर्ण तृप्त , तर्पयन्तीम्—प्रसन्न होकर वरदान आदि के द्वारा भक्तों की मनः कामना को पूर्ण करने वाली ,
पद्मे—कमल पर , स्थितां—विराजमान , पद्मवर्णां- पीतकमल के सदृश सुन्दर वर्ण वाली, ताम्—उन श्रुतिप्रसिद्ध, श्रियम् –भगवती श्री देवी को, इह—जहाँ मैं निवास करता हूँ उस स्थान पर , उप—अपने समीप ,ह्वये— मैं आवाहन करता हूँ ||
पुरश्चरण –श्रीं ऐं बीजद्वय से न्यास आदि करके ध्यान करें –जो कमल के आसन पर विराजमान हैं तथा अपने करकमलों में तोता और पुस्तक लिए हुए वर और अभय मुद्रा में स्थित हैं | ऐसी स्वर्ण वर्ण वाली ,स्मितवदना भगवती श्री देवी का ध्यान करता हूँ |
पुनः इस चतुर्थ ऋचा का ८ लाख जप करे | प्रतिदिन १००० जप करे किन्तु मृगशिरा नक्षत्र के दिन ३००० तथा पूर्णिमा को ५००० बार जप करना है |साधक को जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि का पालन करते हुए मात्र दुग्धपान से इस जप को पूर्ण करना होगा |
जप पूर्ण होने के पश्चात् पलाश की समिधा से गोदुग्ध और गोघृत द्वारा ८००० संख्या में होम करे | तथा ८०००० तर्पण एवं ८०० श्रेष्ठ विप्रों ( संध्या गायत्री करने वालों ) को भोजन आदि द्वारा पूजन करे | इस प्रकार अनुष्ठानरत साधक को विद्या और वैभव इन दोनों की प्राप्ति होती है | यह विद्या वैभव ५ पीढ़ी तक रहता है |
सूक्तार्थरत्नाकर के अनुष्ठानप्रकरण में यह विषय उल्लिखित है –
ऋचं चतुर्थीं श्रीसूक्ते प्रजपेदष्टलक्षकम् | सहस्रं प्रत्यहं जप्त्वा त्रिसहस्रं मृगादिने ||
राकायां पञ्चसाहस्रं क्षीराहारो जितेन्द्रियः | पलाससमिधाहोमःपयसा गोघृतेन च ||
तर्पणाशीतिसाहस्रं होमश्चाष्टसहस्रकः | ब्राह्मणाष्टशती पूज्या श्रीवाग्बीजयुतं न्यसेत् ||
संपत्सारस्वतप्राप्तिर्भविष्यति न संशयः | आपञ्चपूरुषं सिद्धौ नात्र कार्या विचारणा ||
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar