श्रीसूक्त मन्त्र -६
ॐ आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥
आदित्यवर्णे -हे सूर्य के सदृश कान्ति वाली !,तव -आपकी ,तपसः – तपश्चर्या से , भगवान विष्णु के साथ पतिसेवापरायणा भगवती लक्ष्मी तप कर रही थीं । उस समय उनके दाहिने हाथ से बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ –
महालक्ष्मीस्तपस्तेपे भर्तृसेवापरायणा । तदा बिल्वतरुर्जातो लक्ष्मीदक्षिणहस्ततः ॥
-स्कन्दपुराण की,सनत्कुमारसंहिता में बिल्वमाहात्म्य ।
वामन पुराण में भी महर्षि कात्यायन द्वारा कहा गया है कि बिल्व वृक्ष लक्ष्मी जी के करकमल से उत्पन्न हुआ -” बिल्वो लक्षम्याः करेऽभवत् “। बिल्वः -बिल्व, वृक्षः-पेड़ , अधिजातः -उत्पन्न हुआ ।
वनस्पतिः-वनानां-वृक्षसमूहानां पतिः, वनस्पतिः-सभी वृक्षों के अधिपति रूप से प्रसिद्ध ।
यद्यपि वनस्पति उन वृक्षों का नाम है जो विना पुष्प के फल देते हैं –अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः । -मनुस्मृति-1/47,
पर प्रत्यक्ष देख सकते है कि बिल्व वृक्ष में पुष्प के बाद ही फल होते हैं अतः इसे वनस्पति जातीय वृक्ष नहीं कह सकते । अतएव वनस्पतियों में उसकी गणना नही की जा सकती । इसलिए वनस्पति शब्द का पूर्वोक्त अर्थ किया गया । वनस्पति में सुट् का आगम ” पारस्कर प्रभृतीनि च संज्ञायाम् “-6/1/57 सूत्र से हुआ ।
अथ -यह वृक्ष मंगल रूप है –औंकारश्चाथशब्दश्च दवावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्वा विनर्यातौ तस्मान्मांगलिकावुभौ ॥-नारद पुराण, मंगलानंतरारम्भप्रश्नकात्स्नेर्ष्वथो अथ -अमरकोष -3/3/247,
श्री की कामना वाला व्यक्ति कमल और बिल्व फलों से अग्नि में आहुति दे -” श्रीकामो जुहुयादग्नौ पद्मैर्बिल्वैस्तथा फलैः ” । ऐसा करने पर, तपसा – होम आदि से प्रसन्न हुई आपके अनुग्रह रूपी तप से, ” यस्य ज्ञानमयं तपः ” से संकल्प आदि को ज्ञानमय तप कहा गया है ।
तस्य -उस बिल्व वृक्ष के ,फलानि – फल, माया – विपरीत ज्ञान, विपरीत प्रवृत्तिरूप, अन्तरा – अन्तरिन्द्रिय सम्बन्धिनी माया अर्थात् अज्ञान और उसके पापादि कार्यों को ,
यहाँ मायान्तरा शब्द में माया अन्तरा -ऐसा समझ कर व्याख्या की गयी। किन्तु मा या अन्तरा -ऐसा विभाग करने पर हमें 3 शब्द मिलते हैं जिनका अर्थ किया जा रहा है । –
मा -मां प्रति , मेरे प्रति,या – जो ,अन्तरा – हृदयादि के अन्तर्गत रहने वाली अज्ञान और तन्मूलक काम क्रोध लोभ तथा पापादि रूपी , और,बाह्या -बाहर की दारिद्र्यादि दुर्गति रूपी ,अलक्ष्मीः-लक्ष्मीविरोधी विघ्नों को, नुदन्तु – नष्ट करें ।
पुरश्चरण –इस ऋचा का विधिवत् 11 लाख जप करने पर सरस्वती जी सिद्ध हो जाती हैं । 44 लाख जप पूर्ण होने पर महान् ऐश्वर्य तथा भोग की प्राप्ति ओर भाग्य की अभिवृद्धि होती है । –जय श्रीराम
—जयतु भारतम् ,जयतु वैदिकी संस्कृतिः—
—आचार्य सियारामदास नैयायिक—

Gaurav Sharma, Haridwar