श्रीसूक्त मन्त्र-7 की व्याख्या
ॐ उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह । प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्टेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥
व्याख्या –हे भगवती श्री ! मां –मेरे पास,मणिना -कुबेर के कोषाध्यक्ष मणिभद्र अथवा चिन्तामणि के (साथ),
यहाँ यद्यपि मणिना शब्द ही है मणिभद्रेण या चिन्तामणिना नही,तथापि ” विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्लोपो वाच्यः ” वार्तिक से मणि का उत्तर भद्र पद अथवा मणि के पूर्वपद चिन्ता का लोप होकर मणि शब्द बचा ,उसके तृतीया में मणिना होगा ।
सह –साथ, कीर्तिश्च –यश की अभिमानिनी देवी दक्षकन्या कीर्ति और ,देवसखः–भगवान् महादेव के सखा कुबेर,
यहाँ देव शब्द का अर्थ महादेव है । कैसे ? क्योंकि देव शब्द का पूर्ववर्ती पद महा का ” विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः ” वार्तिक से लोप होकर देव शब्द बचा । जो भगवान् महादेव का वाचक है । उनके सखा कुबेर हैं –इसमें अमरकोष प्रमाण है–
” कुबेरस्त्र्यम्बकसखा यक्षराड् गुह्यकेश्वरः “.–1/1/71,
भगवान् शिव के समीप बैठी जगन्माता पार्वती पर यक्षराज की दृष्टि कलुषित हो गयी ।उनके दिव्य तेज से इनका एक नेत्र दग्ध होकर पिंगल वर्ण का हो गया ।पुनः इनकी आराधना से तुष्ट भोलेनाथ ने इन्हें ” एकाक्षिपिंगली ” नाम से विभूषित करके अपना सखा बना लिया –
तत्सखित्वं मया सौम्य रोचयस्व धनेश्वर । तपसा निर्जितश्चैव सखा भव ममानघ ॥
–वाल्मीकि रामायण –7/13/29,
अतः ऋचा में ” देवसखः ” का अर्थ महादेव के मित्र कुबेर हैं । उपैतु –आयें ।
यह भगवती श्री से प्रार्थना है ;क्योंकि श्री जी जिस जिस जिस पर अनुग्रह करती हैं उसके पीछे कुबेर दौड़ते हैं –अनुगृह्णाति यं यं श्रीस्तं कुबेरोऽनुधावति –ईशान संहिता, और कीर्ति आदि भी महालक्ष्मी की सेविकायें हैं –कीर्तिर्मतिर्द्युतिः पुष्टिस्समृद्धिस्तुष्टिरेव
चिन्तामणि आदि रत्न भी भगवती श्री के ही आश्रित हैं –
“कामधेनुः कल्पवृक्षस्सुधा चिन्तामणिस्तथा । श्रियमेवोपजीवन्ति–”-॥–सौ
मैं , अस्मिन् –इस, राष्टे –भारतवर्ष में ,जिसमें जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते हैं –यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि नः ॥भागवत-5/19/21 से लेकर 28वें श्लोक तक देवताओं ने भारतवर्ष की प्रशंसा की है।
प्रादुर्भूतोऽस्मि –पैदा हुआ हूँ । और इस भारतवर्ष में आराध्य भगवान् नर नारायण हैं जो स्वयं श्रीपति के अवतार हैं।
अतः इस देवदुर्लभ अपनी और अपने स्वामी श्रीराम की अवतारस्थली में जन्मे मुझ दीन हीन से अपने अनेक सम्बन्धों का स्मरण कर आप अवश्य शीघ्र ही कृपा करके स्वानुचर कुबेर को प्रेरित करें, जिससे वे, मे –मुझे , कीर्तिं– धनादि के साथ दिग्दगन्तव्यापिनी कीर्ति ,तथा, ऋद्धिं–सम्पूर्ण समृद्धियों को,ददातु –प्रदान करें ।
पुरश्चरण — पहले इसका विनियोग करना चाहिए –
ॐ अस्य ” उपैतु मां देवसखः –” इत्यादि मन्त्रस्य कुबेर ऋषिः, अनुष्टुभ् छन्दः, मणिमालिनी लक्ष्मीर्देवता,श्रीं ब्लूं क्लीं बीजानि मम सर्वाभीष्टसिद्धये जपे विनियोगः |
न्यास –करन्यास,हृदयादिन्यास करते समय आरम्भ में ये नव बीज — ” आं ह्रीं क्रीं ऐं श्रीं ह्रीं आं ह्रीं क्रीं ” जोडना आवश्यक है |जैसे –आं ह्रीं क्रीं ऐं श्रीं ह्रीं आं ह्रीं क्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः |
इस ऋचा का 32 लाख जप पूर्ण होने पर कुबेरादि देवता प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं और चिन्तामणि आदि रत्न तथा नवों निधियां उपासक के वशीभूत हो जाती हैं |भूत, प्रेत, पिशाचादि तथा सभी ग्रहों की पीड़ा का निवारण होता है |सावधान होकर रात्रि के समय इसका जप करना चाहिए –
अनुष्टुभे च श्रीसूक्ते सप्तमीं प्रजपेद्बुधः | द्वात्रिन्शल्लक्षपर्याप्तं सिद्धिं प्राप्नोति नान्यथा ||
कुबेरद्यास्तस्य देवाः प्रत्यक्षाः स्युर्न संशयः |चिन्तामन्यादिरत्नानि नवापि निधयस्तथा ||
वशे तस्य भविष्यन्ति सिद्ध्मन्त्रस्य योगिनः |भूतप्रेतपिशाचादिग्रहपीडानिवारणम् ||
प्रयतः प्रजपेन्मन्त्रं रात्रिकाले विशेषतः |—श्रीरत्नकोष ।—–जय श्रीराम—–
—-जयतु भारतम् ,जयतु वैदिकी संस्कृतिः—-
—–आचार्य सियारामदास नैयायिक—–

Gaurav Sharma, Haridwar