श्रीसूक्त मन्त्र-१२ की व्याख्या
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे |
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ||१२||
व्याख्या—
आपः— जल, जलराशि समुद्र से १४ रत्न प्रकट हुये जिसमें अमृत मुख्य है क्योंकि इसी की प्राप्ति के लिये सागर– मन्थन शुरू हुआ था | अमृत शुष्क नही अपितु स्निग्ध पदार्थ है | अतः भगवान् के निवास आश्रय सागर से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे अमृत जैसे अनन्त स्निग्ध पदार्थों के उत्पादक, भगवान् नारायण के आश्रय स्वरूप जल,आप मेरे लिये, स्निग्धानि—अमृत जैसे घृत, दुग्ध आदि स्नेहिल वस्तुओं की, सृजन्तु—सृष्टि कीजिये |
शास्त्रीय प्रमाण से सिद्ध है कि जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई है | अतः स्निग्ध जितने भी पदार्थ हैं चाहे वे जलीय हों या पार्थिव | वे सब आप मुझे प्रदान करें | स्निग्ध का अर्थ चिक्कन होता है—
“चिक्कणं मसृणं स्निग्धम्”-«अमरकोष-२/९/४६»
चिक्लीत—हे भगवती श्री जी के पुत्र चिक्लित ऋषे ! मे-मेरे, गृहे—घर में, वस—आप निवास करें |
इससे पूर्व की ऋचा में श्रीपुत्र कर्दम से प्रार्थना की गयी थी और यहाँ श्रीजी के अन्य पुत्र चिक्लीत से वही प्रार्थना की जा रही है किन्तु अभिलषित वस्तुओं में भेद अवश्य परिलक्षित हो रहा है |
च—और, हे ऋषे चिक्लीत आप, मातरं— अपनी माँ, श्रियं—भगवती श्री को, देवीं—जो सम्पूर्ण लोकों में स्तूयमान हैं, उनको, मे—मेरे, कुले—कुल अर्थात् पुत्र, पौत्रादि सकल परम्परा में, निवासय—निवास कराओ |
आप के मेरे गृह में आने पर वे पुत्रवत्सला माता भगवती श्री अवश्य पुत्र प्रेम के कारण मेरे घर पधारेंगी |
पुरश्चरण—
इस ऋचा का अनुष्ठान सागरगामिनी गंगादि पवित्र नदियों के तट अथवा बिल्व वृक्ष के नीचे करना चाहिए | इस मन्त्र की सिद्धि ६४ हजार जप करने से होती है | इसके अनुष्ठान काल में सुवासिनी स्त्री और विप्रों तथा उनके पुत्रों के लिए जलशाला की व्यवस्था करे | तथा जल की व्यवस्था करे |
“आज कल के नेताओं की तरह चुनाव जीतने के बाद हैण्डपाईप लगाना और दुसरे चुनाव के लिए जीतूँगा तो पानी भी आ जाएगा—ऐसा कार्य न करे” | यथाशक्ति भोजन वस्त्र आदि की भी व्यवस्था करे |
प्राणियों की तृप्ति और उनकी रक्षा से प्रसन्न होकर भगवती श्री उस आराधक को सम्पूर्ण भोग्य वस्तुओं के साथ अन्य जो भी अभीष्ट होता है उसे प्रदान करती हैं और उस साधक के कुल-परम्परा में स्थिर हो जाती हैं |
विनियोगः –
“ॐ अस्याः आपः सृजन्तु इत्यादि ऋचायाःचन्द्रमाः ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः अमृतेश्वरी चिक्लीतमाता श्रीः देवता वं बीजं मम ऋचोक्तफ़लप्राप्तये जपे विनियोगः” |
“चन्द्रमा ऋषिरेतस्य देवता त्वमृतेश्वरी ||
चिक्लीतमाता श्रीश्छन्दोSनुष्टुब् वं बीजमुच्यते |
चतुःषष्टिसहस्राणि प्रजपेन्मन्त्रसिद्धये ||
नद्याः समुद्रगामिन्यास्तीरे बिल्वतरोस्तटे |
प्रपादानं प्रकुर्वीत दद्यात्पानीयमेव च ||
सुवासिनीभ्यो विप्रेभ्यस्तदपत्येभ्य एव च |
भूताप्यावनतो देवी तुष्यति श्रीहरिप्रिया |
तस्यान्नं भोग्यजातं च तदिच्छासमकालिकम् ||
हितं मृष्टं समृद्धं च शुद्धं यावदपेक्षितम् |
तत्कुटुम्बस्य पर्याप्तं तदाश्रितजनस्य च ||
तदावासे तत्कुले च महालक्ष्मीः स्थिरा भवेत्” ||
–«सूक्तार्थसंग्रह»
जय श्रीराम
आचार्य सियारामदास नैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar