सिद्ध विद्वान् सन्त श्रीशास्त्री जी महाराज

सिद्ध विद्वान् सन्त श्रीशास्त्री जी महाराज, रामघाट, अयोध्या

सन्तों की जन्मस्थली,कुल और जननी ये सब उन महापुरुषों की साधना,उदात्त भावना तथा उनके भगवत्साक्षात्कार से भाग्यशाली,पवित्र और कृतार्थ हो जाते हैं –“कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा भाग्यवती च तेन । इसीलिए इनके विषय में कहा गया है ।

श्रीशास्त्री जी महाराज का नाम “सीतारामदास” था । इनका शरीर विहार प्रान्त के भोजपुर ज़िले में स्थित ग्राम-पोस्ट “चिल्हौस” थाना-”संदेश” के भूमिहार ब्राह्मण कुल का था । आपका जन्म सन्-१९२० में हुआ । तथा गृहस्थ जीवन में २९ वर्ष बिताकर सन्-१९४९ में आप श्रीअवध में “मणिरामछावनी” के महान्त “श्रीराममनोहरदास” जी महाराज से विरक्त दीक्षा ग्रहण किये ।

आपने सन्तों की प्रेरणा से “रामचरितमानस” का अध्ययन तथा साथ ही गोस्वामी जी के अन्य ग्रन्थों का मनोयोग से अध्ययन किया । गोस्वामी जी के द्वादश ग्रन्थ आपको कण्ठस्थ थे । साथ ही शास्त्री कक्षा तक आपने व्याकरण के अध्ययनकाल में ही गीता,उपनिषद्,भक्तिसूत्र,अर्थपंचक एवं रहस्यत्रय का अध्ययन किया ।

हमारे मन्त्रोपदेष्टा गुरुदेव “श्रीनृत्यगोपालदास” जी महाराज की महान्ती के बाद छावनी में ६वर्ष रहकर तीव्र वैराग्य के कारण आप आश्रम छोड़कर सरयूतट”रामघाट” चले गये और वहीं एकान्त में झोपड़ी में निवास तथा ५ स्थानों से “मधुकरी” माँगकर भजन करने लगे ।

पैसे का त्याग-छावनी में रसोईघर से पीछे आपके दादागुरु “श्रीरामशोभादास” जी महाराज की कुटिया थी । उसमें आप भजन करते हुए भगवान् की रसोई बनाने की सेवा करते थे । एक दिन कानपुर की एक भक्त शिष्या आपके दादागुरु के चित्रपट पर १रूपया चढ़ा गयी । आपके मन में संकल्प विकल्प होने लगा कि इस रूपये की कौन सी वस्तु भगवान् को भोग लगायी जाय? इसी ऊहापोह में रात्रि के २बज गये । आपने निश्चय किया कि इस अशान्ति और संकल्प विकल्प का कारण यह रूपया ही है और उसे उठाकर आपने कुँए में डाल दिया । तथा दृढ़ निश्चय किया कि अब जीवन में पैसे से कभी भी सम्पर्क नहीं रखेंगे । और यह नियम जीवन भर चला ।

भिक्षा में शाक–आपने मुझसे भी कई बार कहा कि मधुकरिया के लिए आश्रमवासियों का कटुवचन ही शाक है। जब वे लोग व्यंग्य करते हैं कि यह कामचोर होने से स्थान छोड़कर सरयूतट चला गया है तब आत्मनिरीक्षण का अवसर मिलता है कि हम सरयूतट पर किस लिये आये हैं और वह कर रहे हैं या नही ?

महाराज जी हमेशा मुझसे भी यही कहते थे कि जहाँ सम्मान के साथ भिक्षा मिले वहाँ कभी कभी ही जाना चाहिए । और जहाँ २-४ कटुवचन सुनने को मिले वहाँ भिक्षा रोज़ लेनी चाहिए । इससे साधक में सहन शक्ति के साथ दैन्यभाव भी आता है । और जो कटुवचन भी कहे तथा भिक्षा भी न दे उसके यहाँ प्रतिदिन भिक्षा के लिए जाना चाहिए ।
जप-महाराज जी कहते थे कि सरयूतट पर आये हो तो कम से कम ६००० राममन्त्र और सवालाख नामंजप करना ही चाहिए । मन्त्रजप के साथ अर्थानुसंधान अनिवार्य है । नहीं तो जिह्वा जप में और मनीराम कल्पनाजगत् की रचना में लगे रहेंगे ।

एक बार मैंने पूछा कि महाराज जी कितना जप किया जाय कि अनुभव हो । तो उन्होंने कहा कि सवालाख नामजप ३ वर्ष प्रतिदिन करके देखो । आगे क्या कहे मेरा अन्त:करण लिखने में रोक रहा है । हाँ गृहत्याग के बाद मुझमें नास्तिकता के भाव आ गये थे जिससे मैं अत्यधिक दुखी था और महाराज जी से अपनी व्याख्या बतायी तो उन्होंने कहा कि नामजप करो -इसका बड़ा माहात््म्य शास्त्रों में कहा गया है।

मैंने कहा -महाराज जी ! मुझे शास्त्रों पर विश्वास नहीं है। महाराज जी ने कहा -कहीं विश्वास है ? मैंने कहा –केवल आप पर विश्वास है । महाराज–तो मैं कहता हूँ तुम नामजप करो, ये कुसंस्कार नष्ट हो जायेंगे और भगवान् में निष्ठा हो जायेगी,अशान्ति से छूट जाओगे । मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया । प्रतिदिन उनका दर्शन और अपनी स्थिति का कथन-यह क्रम ४ मास चला और वह नास्तिकता आदि पलायन कर गयी । किन्तु उस समय महाराज जी का सत्संग ही मेरा कवच बना हुआ था ।

सिद्ध सन्त श्रीशास्त्री जी महाराज के अमृत वचन

१- व्यवहार में रहते हुए नामजप एवं स्वाध्याय करियेगा तब व्यवहार में शान्ति मिलेगी ।

२- वैराग्य अन्त तक निबह जाये तब अच्छा है । संसार किसी को सुखी नहीं किया तो हमको कहाँ से सुखी करेगा–सदा विचारे ।

३- साधक का लक्ष्य यदि ठीक है तो कहीं फँसेगा नहीं । लक्ष्य सदा याद रखें ।

Gaurav Sharma, Haridwar

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