शरणागति के ६ अंग
इसी का दूसरा नाम “प्रपत्ति” तथा “न्यासविद्या” भी है । यह उपनिषदों में वर्णित ब्रह्मविद्याविशेष है और निश्चयात्मक ज्ञानस्वरूपा है ।
इसके ६ अंग हैं–
१-भगवान् के अनुकूल संकल्प,
२-भगवान् के प्रातिकूल्य का त्याग ।
चूँकि श्रुति और स्मृति प्रभु की आज्ञास्वरूप हैं । इसलिए विहित कर्मों का श्रीहरि की प्रसन्नता के लिए निष्कामभाव से आचरण तथा निषिद्ध कर्मों का त्याग शरणागत के लिए अनिवार्य है । यही आनुकूल्य तथा प्रातिकूल्य शब्द से विवक्षित है ।
३- भगवान् सदा हमारी रक्षा करेंगे ही -ऐसा दृढ़विश्वास ।
४- भगवान् को रक्षकत्वेन वरण करना ।
५- आत्मनिक्षेप -पूर्णतया अपने आपको प्रभु को समर्पित कर देना ।
६- कार्पण्य-दैन्यभाव ।
इन ६ अंगों वाली शरणागति है ।
शरणागति और उसकी दो विधा
शरणागति भक्तिविशेष होते हुए भी नवधा भक्ति से कुछ अंशों में विलक्षण है । जैसे–नवधा भक्ति का अनुष्ठान जीवन पर्यन्त किया जाता है पर प्रपत्ति जीवन में एक ही वार की जाती है । इसकी आवृत्ति नहीं होती जबकि भक्ति की प्रत्येक दिन आवृत्ति करनी पड़ती है । अर्थात् भक्ति आमरण प्रतिदिन करनी पड़ती है–“आवृत्तिरसकृदुपदेशात्”–ब्रह्मसूत्र,
और प्रपत्ति केवल एक वार–”सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ।।”–वाल्मीकि रामायण, युद्धकांड, यहाँ भगवान् श्रीराम ने सकृत् ( एक वार ) पद से इसी तथ्य की पुष्टि
की है ।
अत: देखने में प्रपत्ति भक्ति की अपेक्षा सरल लगती है । पर है कठिन ;क्योंकि प्रपत्ति के लिए अपेक्षित अटूट महाविश्वास–”भगवान् सदा हमारी रक्षा करेंगे ही”–यह किसी किसी सौभाग्यशाली को ही प्राप्त हो सकता है, सबको नहीं । इसीलिए प्रपत्ति के इस अंग की कमी होने के कारण बहुत से लोग हताश होकर कहने लगते हैं कि हमने भगवान् की शरण ली पर कोई लाभ नहीं हुआ ।
प्रपत्ति के २ प्रकार
मोक्ष के लिए की जाने वाली प्रपत्ति को लक्ष्य करके आचार्यों ने दो अभिमत प्रस्तुत किया है । १-कपिकिशोरन्याय, २-मार्जारकिशोरन्याय ।
१-कपिकिशोरन्याय–जैसे वानरों का शिशु अपनी माँ को कसकर पकड़े रहता है और कहीं भी पकडं में माँ को ढिलाई का अनुभव हुआ तो बच्चे को दृढ़ता से पकड़ने का संकेत करते हुए उसकी रक्षा करती है । ठीक वैसे ही शरणागत भक्त अपने पुरुषार्थ का आश्रय लेकर भगवान् को पकड़े रहता है और प्रभु उसकी रक्षा करते हैं । अन्ततः: उसे भगवत्प्राप्ति होती हो जाती है । इस विधा में कपिकिशोरवत् अपना पुरुषार्थ भी रहता है ।
२-मार्जारकिशोरन्याय–जैसे बिल्ली का बच्चा अपना कोई पुरुषार्थ नहीं करता अपितु माँ के सहारे दृढ़ विश्वास से बैठा रहता है, वह जहाँ चाहे ले जाय । शिशु इस विषय में कोई प्रयास नहीं करता । आश्चर्य तो यह है कि बिल्ली के जिन जबड़ों में आकर चूहों के प्राण निकल जाते हैं । बिल्ली उन्हीं जबड़ों के बीच में अपने शिशु को पकड़कर अभीष्ट स्थान पर पहुँचा देती है पर उनका बाल भी नहीं बाँका होता । ठीक वैसे ही जो शरणागत भक्त एक मात्र भगवान् का ही आश्रय ले रखे हैं, स्वयं कोई भी प्रयास नहीं करते केवल भगवान् के सहारे मार्जारकिशोरवत् बैठे हैं । ऐसे भक्त अत्यन्त दुर्लभ हैं । भगवान् उन्हें स्वयं कृपा करके अपने विनाशी धाम पहुँचा देते हैं ।
जय श्रीराम
जयतु भारतम्, जयतु वैदिकी संस्कृति:
आचार्य सियारामदास नैयायिक
—क्रमश:—

Gaurav Sharma, Haridwar