—सत्संग का दौर्लभ्य और भगवत्प्राप्ति में २अंगुल की कमी—

वस्तुस्थिति यही है कि आज के युग में सन्त दुर्लभ हैं । पर भागवत माहात्म्य देखें कि लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के 
पुत्र, अव्याहतगति, महायोगी देवर्षि नारद को भी सन्त दुर्लभ हो गये थे । -“जब द्रवहिं दीनदयाल राघव साधुसंगति पाइये ।”नारद जी ने तो अपना अनुभव ही लिखा–“लभ्यतेSपि तत्कृपयैव”। सन्त महापुरुष तो भगवान् की कृपा से ही मिलते हैं । 
हाँ प्रयास पूर्व युगों की अपेक्षा बहुत अधिक करना ही पड़ेगा । भगवान् भी यशोदा माँ से तभी बँधे जब उनके भजनोत्थ श्रम को देखे । भजनोत्थ श्रम से प्रभु की सर्वशक्तिचक्रवर्तिनी कृपाशक्ति का प्रादुर्भाव होता है । भजनोत्थ श्रम और भगवत्कृपा इन दोनों की कमी ही २अंगुल रस्सी की कमी थी । अतः प्रभु नहीं बंध रहे थे । 
उनकी असंगता,विभुता जैसे गुण प्रकट होकर मानों माँ को चुनौती दे रहे हों कि असंग और व्यापक परमात्मा को बाँधकर दिखाओ । किन्तु जब माँ के प्रस्वेद शिर से पैर की ओर आने लगे तब भगवान् की दृष्टि उस पर पड़ते ही उनकी सर्वशक्तिचक्रवर्तिनी कृपाशक्ति का प्रादुर्भाव हुआ । 
उस समय असंगता,विभुता आदि गुण मानों भीत होकर प्रभु में छिप गये हों । और माँ ने प्रभु को बाँध लिया ।
 -“दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयासीत् स्वबन्धने -भागवत-१०/९/१८, 
हम जैसे जीवों में भजन से उत्पन्न श्रम न होने से प्रभु की उस कृपाशक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता जिससे वे हमारे द्वारा बंध सकें । यही २अंगुल रस्सी की कमी है जिसके विना जीव भवसिन्धु में गोते लगा रहा है 
 —जय श्रीकृष्ण—
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

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