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श्रीगणेशाय नम: ॥ श्रीदक्षिणामूर्तिगुरुभ्यो नम: ॥
देव्युवाच–शैवानि गाणपत्यानि शाक्तानि वैष्णवानि च । कवचानि च सौराणि चान्यानि यानि तानि च ॥१॥
श्रुतानि देवदेवेश त्वद्वक्त्रान्नि:सृतानि च । किञ्चिदन्यत्तु देवानां कवचं यदि कथ्यते ॥२॥
ईश्वर उवाच ॥ शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।हनुमत्कवचं पुण्यं महापातकनाशनम् ॥३॥
एतद्गुह्यतमं लोके शीघ्रसिद्धिकरं परम् । जयो यस्य प्रसादेन लोकत्रयजितो भवेत् ॥ ४॥
ओम् अस्य श्रीएकादशवक्त्रहनुमत्कवचमाला मन्त्रस्य श्रीवीरररामचन्द्र ऋषि: ।अनुष्टुप् छन्द:।श्रीमहावीरहनुमान् रुद्रो देवता।ह्सौं बीजं। ह्स्फ्रेँ शक्ति:।ह्स्ख्फ्रेँ कीलकं। मम दूरस्थसमीपस्थानां दुष्टानां सर्वप्रतिवादिनां वाचामुखगतिस्तम्भनार्थं जिह्वाकीलनार्थं मोहनार्थं राजमुखीदेवतावश्यार्थं ब्रह्मराक्षसशाकिनीडाकिनीभूतप् रेतादिबाधापरिहारार्थं श्रीहनुमद्दिव्यकवचाख्यमालामन् त्रजपे विनियोग: ।
हौं आञ्जनेयाय अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ह्स्फ्रेँ रुद्रमूर्तये तर्जनीभ्यां नम:।
ख्फ्रेँ वायुपुत्राय मध्यमाभ्यां नम:।
ह्स्रौँ अग्निगर्भाय अनामिकाभ्यां नम:।
ह्स्ख्फ्रेँ रामदूताय कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
ह्सौँ ब्रह्मास्त्रादिशक्तिनिवारणाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: ।
एवं हृदयादि ।
हौँ आञ्जनेयाय हृदयाय नम:।
ह्स्फ्रेँ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ख्फ्रेँ वायुपुत्राय शिखायै वषट् ।
हस्रौँ अग्निगर्भाय कवचाय हुँ ।
ह्स्ख्फ्रेँ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ह्सौँ ब्रह्मास्त्रादिशस्त्रविनिवारणा य अस्त्राय फट् ।
ध्यानम्–
ध्यायेद्रणे हनूमन्तमेकादशमुखाम्बुजम् ।धावन्तं रावणं जेतुं दशबाहुं त्रिलोचनम् ।।
हाहाकारै: सदर्पैश्च कम्पयन्तं जगत्त्रयम् ।ब्रह्मादिवन्दितं देवं कपिकोटिसमन्वितम् ।।
एवं ध्यात्वा पठेद्देवि कवचं परमाद्भुतम् ।,
ओम् इन्द्रदिग्भागे गजारूढहनुमते वज्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्रपिशाचब्रह्मराक्षसशा किनीडाकिनीवेतालसमूहोच्चाटनोच् चाटनाय मां रक्ष रक्ष स्वाहा ॥१॥
ओम् आग्नेयदिग्भागे मेषारूढहनुमते आग्नेयास्त्रशक्तिसहिताय–।
ओम् यमदिग्भागे महिषारूढहनुमते दंडशक्तिसहिताय–।
ओम् निर्ऋतिदिग्भागे नरारूढहनुमते खड्गशक्तिसहिताय –।
ओम् वरुणदिग्भागे मकरारूढहनुमते पाशशक्तिसहिताय–समूहोच्चाटनोच् चाटनाय-।
ओम् वायुदिग्भागे मृगारूढहनुमते अंकुशशक्तिसहिताय–।
ओम् कुबेरदिग्भागे अश्वारूढहनुमते गदाशक्तिसहिताय –।
ओम् ईशानदिग्भागे वृषभारूढहनुमते शूलशक्तिसहिताय–।
ओम् भूदिग्भागे वृश्चिकारूढहनुमते वज्रपाशशक्तिसहिताय–।
ओम् अन्तरिक्षदिग्भागे वार्तुलहनुमते मुद्गरतोमरशक्तिसहिताय–।
ओम् ब्रह्ममण्डले हंसारूढहनुमते पद्मशक्तिसहिताय चौरव्याघ्रपिशाचब्रह्मराक्षसशा किनीडाकिनीवेतालसमूहोच्चाटनोच् चाटनाय माँ रक्ष रक्ष स्वाहा ॥११॥
इति दिग्बन्ध:।
ओम् ह्रेँ ग्रीँ घेँ यँ प्रचण्डप्रताप एकादशमुखहनुमते हँ खेँ गतिबन्ध मतिबन्ध वाग्बन्ध मार्गबन्ध सर्पबन्ध चौरबन्ध वृश्चिकबन्ध
व्याघ्रबन्ध गजबन्ध शार्दूलबन्ध दुष्टबन्ध मृगबन्ध विषबन्ध वीरबन्ध गंडबन्ध भेरुण्डबन्ध भूतबन्ध प्रेतबन्ध पिशाचबन्ध ज्वरबन्ध शूलबन्ध सर्वदेवताबन्ध राजसभाबन्ध ॥ घोरवीरप्रतापरौद्रभीषणहनुमद्वज् रदंष्ट्राननाय मकरकुण्डलकौपीनतुलसीवनमालाधराय सर्वग्रहोच्चाटनोच्चाटनाय वेतालसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय राक्षससमूहोच्चाटनोच्चाटनाय ब्रह्मराक्षससमूहोच्चाटनोच्चा टनाय ॥ ज्वरसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय॥रा जसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय ॥चौरसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय शत्रुसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय दुष्टजनसमूहोच्चाटनोच्चाटनाय मां रक्ष रक्ष ओम् ॥यँ ७ ॥ओम् नमो भगवते हनुमते मां रक्ष रक्ष स्वाहा ॥
श्रीवीरहनुमते नम:॥ ओम् नमो भगवते वीरहनुमते पीताम्बरधराय कर्णकुण्डलाद्याभरणालंकृतभूषणाय किरीटबिल्ववनमालाविभूषिताय कनकयज्ञोपवीतिने कौपीनकटिसूत्रविराजिताय श्रीवीररामचन्द्रमनोभिलषिताय
लङ्कादहनकारणाय घनकुलगिरिवज्रदंडाय अक्षकुमारसंहारकारणाय ओम् यँ७ ओम् नमो भगवते रामदूताय हुँ फट् स्वाहा ॥
ओम् ऐँ ह्रीँ ह्रौँ हनुमते सीतारामदूताय किलि किलि बुबुकारेण विभीषणाय वीरहनुमद्देवाय ओम् ह्रीँ श्रीं ह्रौँ हाँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् वीरहनुमते हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हुँ फट् स्वाहा ॥१॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥२॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ख्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्रौँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥४॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्ख्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥५॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्सौँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥६॥
ओम् श्रीवीरहनुमते हँ७ हुँ फट् स्वाहा ॥७॥
ओम् हौँ पूर्वमुखे वानरमुखहनुमते लँ लँ लँ लँ लँ लँ लँ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥१॥
ओम् आग्नेयमुखे मत्स्यमुखहनुमते रँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥२॥
ओम् दक्षिणमुखे कूर्ममुखहनुमते मँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् नैर्ऋतिमुख् वराहमुखहनुमते क्षँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥४॥
ओम् पश्चिममुखे नारसिंहमुखहनुमते वँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥५॥
ओम् वायुमुखे गरुडमुखहनुमते यँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥६॥
ओम् उत्तरमुखे शरभमुखहनुमते सँ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥७॥
ओम् ईशानमुखे वृषभमुखहनुमते हँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥८॥
ओम् ऊर्ध्वमुखे ज्वालामुखहनुमते आँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥९॥
ओम् अधोमुखे मार्जारमुखहनुमते हाँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा १०॥
ओम् सर्वत्र गजमुखहनुमते ह्सौँ ७ सकल शत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥११ ॥
ज
ओम् श्रीसीतारामपादुकाधराय महावीराय वायुपुत्राय ब्रह्मिष्ठाय एकादशरुद्रमूर्तये महाबलपराक्रमाय
भानुमण्डलग्रसनग्रहाय चतुर्मुखवरप्रयादाय महाभयरक्षकाय यँ यँ यँ यँ यँ यँ यँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ ओम् ह्स्फ्रेँ ख्फ्रेँ हस्रौँ ह्स्ख्फ्रेँ ह्सौँ श्रीवीरहनुमते नम: । एकादशमुखवीरहनुमन् मां रक्ष रक्ष शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु महारोग्यं कुरु कुरु अभयं कुरु कुरु अविघ्नं कुरु कुरु महाविजयं कुरु कुरु सौभाग्यं कुरु कुरु सर्वत्र विजयं कुरु कुरु महालक्ष्मीं देहि देहि हुँ फट् स्वाहा ॥
इत्येतत् कवचं दिव्यं शिवेन परिकीर्तितम् ।य: पठेत् प्रयतो भूत्वा सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥
त्रिकालमेककालं वा त्रिवारं य: पठेद्बुध: ।रोगान् रिपून् क्षणाज्जित्वा स पुमान् लभते श्रिय: ॥
मध्याह्ने च जले स्थित्वा चतुर्वारं पठेद् यदि । क्षयापस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवा रणम् ॥
य: पठेत्कवचं दिव्यं हनुमद्ध्यानतत्पर: । मनोरथा: प्रसिध्यल्ति तस्य सर्वे न संशय: ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं प्रपठेत्तत: । त्रि: सकृद् वा यथाज्ञानं सोपि पुण्यवतां वर:॥
देवमभ्यर्च्य विधिवत् पुरश्चर्यां समाचरेत् । एकादशशतं जप्त्वा दशांशं हवनादिकम् ॥
मन्त्रसिद्धिर्भवेत्तस्य पुरश्चर्या विधानत: । गद्यपद्यमयी वाणी तस्य वक्त्रे प्रजायते ॥
इतिश्रीमद्रुद्रयामले उमामहेश्वरसंवादे एकादशमुखहनुमद्दिव्यकवचमालामन् त्रस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
श्रीदक्षिणामूर्तिगुरु: पूर्णमस्तु ॥
देव्युवाच–शैवानि गाणपत्यानि शाक्तानि वैष्णवानि च । कवचानि च सौराणि चान्यानि यानि तानि च ॥१॥
श्रुतानि देवदेवेश त्वद्वक्त्रान्नि:सृतानि च । किञ्चिदन्यत्तु देवानां कवचं यदि कथ्यते ॥२॥
ईश्वर उवाच ॥ शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।हनुमत्कवचं पुण्यं महापातकनाशनम् ॥३॥
एतद्गुह्यतमं लोके शीघ्रसिद्धिकरं परम् । जयो यस्य प्रसादेन लोकत्रयजितो भवेत् ॥ ४॥
ओम् अस्य श्रीएकादशवक्त्रहनुमत्कवचमाला
हौं आञ्जनेयाय अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ह्स्फ्रेँ रुद्रमूर्तये तर्जनीभ्यां नम:।
ख्फ्रेँ वायुपुत्राय मध्यमाभ्यां नम:।
ह्स्रौँ अग्निगर्भाय अनामिकाभ्यां नम:।
ह्स्ख्फ्रेँ रामदूताय कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
ह्सौँ ब्रह्मास्त्रादिशक्तिनिवारणाय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: ।
एवं हृदयादि ।
हौँ आञ्जनेयाय हृदयाय नम:।
ह्स्फ्रेँ रुद्रमूर्तये शिरसे स्वाहा ।
ख्फ्रेँ वायुपुत्राय शिखायै वषट् ।
हस्रौँ अग्निगर्भाय कवचाय हुँ ।
ह्स्ख्फ्रेँ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ह्सौँ ब्रह्मास्त्रादिशस्त्रविनिवारणा
ध्यानम्–
ध्यायेद्रणे हनूमन्तमेकादशमुखाम्बुजम् ।धावन्तं रावणं जेतुं दशबाहुं त्रिलोचनम् ।।
हाहाकारै: सदर्पैश्च कम्पयन्तं जगत्त्रयम् ।ब्रह्मादिवन्दितं देवं कपिकोटिसमन्वितम् ।।
एवं ध्यात्वा पठेद्देवि कवचं परमाद्भुतम् ।,
ओम् इन्द्रदिग्भागे गजारूढहनुमते वज्रशक्तिसहिताय चौरव्याघ्रपिशाचब्रह्मराक्षसशा
ओम् आग्नेयदिग्भागे मेषारूढहनुमते आग्नेयास्त्रशक्तिसहिताय–।
ओम् यमदिग्भागे महिषारूढहनुमते दंडशक्तिसहिताय–।
ओम् निर्ऋतिदिग्भागे नरारूढहनुमते खड्गशक्तिसहिताय –।
ओम् वरुणदिग्भागे मकरारूढहनुमते पाशशक्तिसहिताय–समूहोच्चाटनोच्
ओम् वायुदिग्भागे मृगारूढहनुमते अंकुशशक्तिसहिताय–।
ओम् कुबेरदिग्भागे अश्वारूढहनुमते गदाशक्तिसहिताय –।
ओम् ईशानदिग्भागे वृषभारूढहनुमते शूलशक्तिसहिताय–।
ओम् भूदिग्भागे वृश्चिकारूढहनुमते वज्रपाशशक्तिसहिताय–।
ओम् अन्तरिक्षदिग्भागे वार्तुलहनुमते मुद्गरतोमरशक्तिसहिताय–।
ओम् ब्रह्ममण्डले हंसारूढहनुमते पद्मशक्तिसहिताय चौरव्याघ्रपिशाचब्रह्मराक्षसशा
इति दिग्बन्ध:।
ओम् ह्रेँ ग्रीँ घेँ यँ प्रचण्डप्रताप एकादशमुखहनुमते हँ खेँ गतिबन्ध मतिबन्ध वाग्बन्ध मार्गबन्ध सर्पबन्ध चौरबन्ध वृश्चिकबन्ध
व्याघ्रबन्ध गजबन्ध शार्दूलबन्ध दुष्टबन्ध मृगबन्ध विषबन्ध वीरबन्ध गंडबन्ध भेरुण्डबन्ध भूतबन्ध प्रेतबन्ध पिशाचबन्ध ज्वरबन्ध शूलबन्ध सर्वदेवताबन्ध राजसभाबन्ध ॥ घोरवीरप्रतापरौद्रभीषणहनुमद्वज्
श्रीवीरहनुमते नम:॥ ओम् नमो भगवते वीरहनुमते पीताम्बरधराय कर्णकुण्डलाद्याभरणालंकृतभूषणाय किरीटबिल्ववनमालाविभूषिताय कनकयज्ञोपवीतिने कौपीनकटिसूत्रविराजिताय श्रीवीररामचन्द्रमनोभिलषिताय
लङ्कादहनकारणाय घनकुलगिरिवज्रदंडाय अक्षकुमारसंहारकारणाय ओम् यँ७ ओम् नमो भगवते रामदूताय हुँ फट् स्वाहा ॥
ओम् ऐँ ह्रीँ ह्रौँ हनुमते सीतारामदूताय किलि किलि बुबुकारेण विभीषणाय वीरहनुमद्देवाय ओम् ह्रीँ श्रीं ह्रौँ हाँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् वीरहनुमते हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हुँ फट् स्वाहा ॥१॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥२॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ख्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्रौँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥४॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्स्ख्फ्रेँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥५॥
ओम् श्रीवीरहनुमते ह्सौँ ७ हुँ फट् स्वाहा ॥६॥
ओम् श्रीवीरहनुमते हँ७ हुँ फट् स्वाहा ॥७॥
ओम् हौँ पूर्वमुखे वानरमुखहनुमते लँ लँ लँ लँ लँ लँ लँ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥१॥
ओम् आग्नेयमुखे मत्स्यमुखहनुमते रँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥२॥
ओम् दक्षिणमुखे कूर्ममुखहनुमते मँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥३॥
ओम् नैर्ऋतिमुख् वराहमुखहनुमते क्षँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥४॥
ओम् पश्चिममुखे नारसिंहमुखहनुमते वँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥५॥
ओम् वायुमुखे गरुडमुखहनुमते यँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥६॥
ओम् उत्तरमुखे शरभमुखहनुमते सँ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥७॥
ओम् ईशानमुखे वृषभमुखहनुमते हँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥८॥
ओम् ऊर्ध्वमुखे ज्वालामुखहनुमते आँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥९॥
ओम् अधोमुखे मार्जारमुखहनुमते हाँ ७ सकलशत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा १०॥
ओम् सर्वत्र गजमुखहनुमते ह्सौँ ७ सकल शत्रुसंहारकाय हुँ फट् स्वाहा ॥११ ॥
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ओम् श्रीसीतारामपादुकाधराय महावीराय वायुपुत्राय ब्रह्मिष्ठाय एकादशरुद्रमूर्तये महाबलपराक्रमाय
भानुमण्डलग्रसनग्रहाय चतुर्मुखवरप्रयादाय महाभयरक्षकाय यँ यँ यँ यँ यँ यँ यँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ हौँ ओम् ह्स्फ्रेँ ख्फ्रेँ हस्रौँ ह्स्ख्फ्रेँ ह्सौँ श्रीवीरहनुमते नम: । एकादशमुखवीरहनुमन् मां रक्ष रक्ष शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु महारोग्यं कुरु कुरु अभयं कुरु कुरु अविघ्नं कुरु कुरु महाविजयं कुरु कुरु सौभाग्यं कुरु कुरु सर्वत्र विजयं कुरु कुरु महालक्ष्मीं देहि देहि हुँ फट् स्वाहा ॥
इत्येतत् कवचं दिव्यं शिवेन परिकीर्तितम् ।य: पठेत् प्रयतो भूत्वा सर्वान् कामानवाप्नुयात् ॥
त्रिकालमेककालं वा त्रिवारं य: पठेद्बुध: ।रोगान् रिपून् क्षणाज्जित्वा स पुमान् लभते श्रिय: ॥
मध्याह्ने च जले स्थित्वा चतुर्वारं पठेद् यदि । क्षयापस्मारकुष्ठादितापत्रयनिवा
य: पठेत्कवचं दिव्यं हनुमद्ध्यानतत्पर: । मनोरथा: प्रसिध्यल्ति तस्य सर्वे न संशय: ॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं प्रपठेत्तत: । त्रि: सकृद् वा यथाज्ञानं सोपि पुण्यवतां वर:॥
देवमभ्यर्च्य विधिवत् पुरश्चर्यां समाचरेत् । एकादशशतं जप्त्वा दशांशं हवनादिकम् ॥
मन्त्रसिद्धिर्भवेत्तस्य पुरश्चर्या विधानत: । गद्यपद्यमयी वाणी तस्य वक्त्रे प्रजायते ॥
इतिश्रीमद्रुद्रयामले उमामहेश्वरसंवादे एकादशमुखहनुमद्दिव्यकवचमालामन्
श्रीदक्षिणामूर्तिगुरु: पूर्णमस्तु ॥
#आचार्यसियारामदासनैयायिक
आचार्य जी यह बताए की इसको पाठ करने के लिए क्या संकल्प लेना पड़ता है ? हो सके तो लिख के बता दे।
और एक दिन में कितना पाठ किया जा सकता है ?
और इस में पाठ करने से पहले किस मंत्र से दिग्बम्धन करना पड़ेगा ?
जीवन में उन्नति हेतु इसका प्रयोग किस प्रकार करना चाहिए ।
gurudev sai deeksha kis prakar prapt ki jaa sakti hai
Sai deeksha to hamne nhi suni hai.
वो से लिखा है , की गुरुदेव से दीक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है
गुरुजी जी प्रणाम।
एकादशमुख और एकादशमुखी हनुमत कवच में क्या भेद है?
सादर
Jai shree sitaram guru dev bhagavan ki jai Jai shree Hanuman ji maharaj ki jai
योग्य गुरु के निर्देशन में ही करें ।