नारी-दीक्षा-विमर्श, कुमारियों एवं विवाहित नारियों की दीक्षा में प्रमाण

नारियों को गुरु बनाना चाहिए या नहीं ??–इस विषय पर बड़ा विवाद चल रहा है । शास्त्रीय प्रमाणों के कुछ वाक्य प्रस्तुत करके पण्डितम्मन्य नारी दीक्षा का खण्डन बडे ज़ोर शोर से कर रहे हैं ।उनका एक वाक्य है–

सामान्यत: द्विजाति का गुरु अग्नि, वर्णों का गुरु ब्राह्मण, स्त्रियों का गुरु पति और सबका गुरु अतिथि होता है-

गुरुग्निर्द्विजातीनां वर्णानां बाह्मणो गुरु: ।
पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वेषामतिथिर्गुरु:॥–औशनस स्मृति

” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरु:॥”–चाणक्यनीति:

कूर्ममहापुराण के उत्तरार्ध अध्याय-१२ का ४८-४९ वां श्लोक प्रस्तुत है । जिसमें स्त्री का गुरु पति ही कहा गया है-

“गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरु: ॥४८॥
पतिरेव गुरु: स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरु: ॥४९॥”

द्विजातियों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) का गुरु अग्नि है । चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण है । स्त्रियों का गुरु पति ही है । और अभ्यागत सबका गुरु है ।

श्लोक का सीधा अर्थ लें तो सब गड़बड़ हो जायेगा ।क्या द्विजातियों का गुरु अग्नि है?? ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों में किसको अग्नि ने दीक्षा दी है ?? द्विजातीनां में बहुवचन है । तथा इन तीनों के प्रति अग्नि का गुरुत्व प्रत्यक्ष बाधित है । इन तीनों के गुरु अग्निदेव से भिन्न कोई देहधारी विप्र होते हैं ।दूसरी बात यह कि जब द्विजातियों का गुरु अग्नि बतला दिये गये । तब शेष बचे शूद्र । तब शूद् का गुरु ब्राह्मण को बतलाना चाहिये, न कि सभी वर्णों का=वर्णानां।

श्लोक के चतुर्थ पाद में अभ्यागत अर्थात् अतिथि को सबका गुरु बतलाया गया है । सबमें तो सभी वर्ण के लोग आ गये । और अतिथि किसी भी वर्ण का प्राणी हो सकता है –

”यस्य न ज्ञायते नाम न च गोत्रं नच स्थिति:।
अकस्मात् गृहमायाति सोSतिथि: प्रोच्यते बुधै: ॥

महर्षि शातातप कहते हैं कि प्रिय हो या मूर्ख अथवा पतित जो वैश्वदेव कर्म के अन्त में पहुँच जाय वह अतिथि स्वर्ग का संक्रम ही होता है । अब बतलायें क्या मूर्ख या पतित व्यक्ति ब्राह्मणादि सभी वर्णों का गुरु माना जा सकता है?? नहीं ना ।

प्रकृत श्लोक में गुरु शब्द का अर्थ दीक्षा गुरु नहीं अपितु सम्मान्य है । द्विजातियों का गुरु अग्नि है । अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय एवं वैश्य इन सबको अग्नि का सम्मान करना चाहिए । अग्निहोत्रादि से प्रतिदिन त्रैवर्णिकों को अग्नि की पूजा करनी चाहिए । वर्णानां= सभी वर्णों का गुरु = सम्मान्य आदरणीय ब्राह्मण होता है । ब्राह्मण स्वयं भी ब्राह्मण का सम्मान करे । इसी प्रकार स्त्री का गुरु= समादरणीय उसका पति ही होता है । पति के कारण ही सास ससुर आदि से सम्बन्ध है । परिवार के अन्य सदस्यों की अपेक्षा पति ही अधिक सम्माननीय है नारी के लिए । यही उक्त श्लोक का अर्थ है ।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्री किसी को गुरु ही न बनाये । पद्ममहापुराण के उत्तरखण्ड के २५४वें अध्याय में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जी ने महाराज दिलीप को यह तथ्य प्रकाशित किया है कि भगवती उमा स्वयं पति चन्द्रशेषर भगवान् की अर्धांगिनी होने पर भी उनसे मन्त्र न लेकर मह्रर्षि वामदेव को अपना गुरु बनायीं ।

सर्वज्ञ एवं सर्वसमर्थ भगवान् शंकर भी अपनी प्रियतमा पार्वती जी को महर्षि वामदेव के पास ही दीक्षा के लिए भेजते हैं ।

शिव जी कहते हैं हे गिरिजे ! गुरु के उपदेश द्वारा ही केशव की पूजा करके प्राणी मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है ,अन्यथा नहीं ।–

“गुरूपदेशमार्गेण पूजयित्वैव केशवम् ।
प्राप्नोति वाञ्छितं सर्वं नान्यथा भूधरात्मजे ॥७॥

भगवान् भव की बात मानकर भगवती पार्वती वामदेव महर्षि के समीप भगवान् विष्णु के पूजन की लालसा से पहुँचीं। –

एवमुक्ता तदा देवी वामदेवान्तिकं नृप ।
जगाम सहसा हृष्टा विष्णुपूजनलालसा ॥८॥

और उनको गुरु रूप में प्राप्त करके पूजन और प्रणाम किया तथा विनम्रभाव से बोलीं–

समेत्य तं गुरुं देवी पूजयित्वा प्रणम्य च ।
विनीता प्राञ्जलिर्भूत्वा उवाच मुनिसत्तमम् ॥९॥

वे महर्षि वामदेव से कहती हैं कि भगवन् मैं आपकी कृपा से भगवन्मन्त्र प्राप्त करके हरिपूजन करना चाहती हूँ । आप मुझपर कृपा करें ।तत्पश्चात् गुरुवर महर्षि वामदेव ने भगवती शैलपुत्री को विधिपूर्वक भगवन्मन्त्र दिया –

इत्युक्तस्तु तया देव्या वामदेवो महामुनि: ।
तस्यै मन्त्रवरं श्रेष्ठं ददौ स विधिना गुरु: ॥११॥

क्या जगद्गुरु कामारि भगवान् शङ्कर से भी आजकल के तथाकथित कामकिङ्कर ज्ञानी बन चुके हैं ??

नारी को केवल कामवासना की पूर्ति का साधन समझने वाला ही पत्नी के परमार्थ पथ का घातक बनता है ।और कहता है कि–” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां-”

भगवान् शिव ने भगवती पार्वती को भगवान् विष्णु की आराधना के विषय में बतलाया कि वह सभी आराधनाओं में सर्वश्रेष्ठ है ।

भगवान् भव स्वयं सर्वज्ञ तथा सम्पूर्ण मन्त्रशास्त्र के मूल हैं फिर भी अपनी प्रियतमा को स्वयं मन्त्र न देकर ब्रह्मर्षि वामदेव के पास भेजते हैं ।इससे सिद्ध होता है कि “पति स्वयम् अपनी परिणीता को मन्त्र प्रदान न करे ।”

और इस तथ्य में प्रमाण है ब्रह्मवैवर्तमहापुराण का देवर्षि नारद के प्रति चतुरानन का वचन । जब उन्होंने अपने पिता ब्रह्मा जी से कृष्णमन्त्र प्रदान करने की उत्कण्ठा व्यक्त की । तब ब्रह्मा जी ने उन्हें मन्त्र देने से मना करते हुए कहा—

” पत्युर्मन्त्रं पितुर्मन्त्रं न गृह्णीयाद्विचक्षण ।।” –ब्रह्मखण्ड-२४/४२,

हे प्राज्ञ ! कोई भी प्राणी पति एवं पिता से मन्त्रग्रहण न करे ।

यह एक प्रबल तमाचा है उन लोगों को जो स्त्री का गुरु पति को बतलाने का प्रयास करते हैं ।
” पतिरेको गुरु: स्त्रीणां ” वचन में गुरु का अर्थ मात्र पूज्य है, दीक्षा गुरु नहीं ।

अतएव भगवान् भोलेनाथ ने अपनी प्राणवल्लभा भगवती उमा को ब्रह्मर्षि वामदेव से दीक्षा लेने भेजा । प्राज्ञ को शास्त्रीय वचनों का सामञ्जस्य बिठाना चाहिए ।
नारी को मात्र भोग की वस्तु समझने वाले भगवदुपासना या मोक्षमार्ग की ओर उसका बढ़ना कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?? ॥अस्तु॥

कुमारी कन्याओं के मन्त्रदीक्षा में प्रमाण–

श्रीपार्वती जी ने विवाह से पूर्व देवर्षि नारद से शिवमन्त्र की दीक्षा ग्रहण की थी । भगवती शैलजा कहती हैं कि हे सर्वज्ञ मुने ! आप मुझे भगवान् रुद्र की आराधना के लिए मन्त्र प्रदान करें–

त्वं तु सर्वज्ञ जगतामुपकारकर प्रभो ।
रुद्रस्याराधनार्थाय मन्त्रं देहि मुने हि मे ॥

क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों का सद्गुरु के विना कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है । ऐसी सनातनी श्रुति मैंने पहले सुन रखी है –

”नहि सिद्ध्यति क्रिया कापि सर्वेषां सद्गुरुं विना ।
मया श्रुता पुरा पत्या श्रुतिरेषा सनातनी ॥

ऐसा सुनकर देवर्षि नारद ने भगवती पार्वती को विधिपूर्वक पञ्चाक्षर शिवमन्त्र का उपदेश दिया–

इति श्रुत्वा वचस्तस्या: पार्वत्या मुनिसत्तम ।
पञ्चाक्षरं शम्भुमन्त्रं विधिपूर्वमुपादिशत् ॥

बाल्यावस्था में ही कुन्ती जी को महर्षि दुर्वासा ने देवों के आवाहन का विशेष मन्त्र दिया था–

तस्यै स प्रददौ मन्त्रमापद्धर्मान्ववेक्षया ।अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनि:॥
–महाभारत, आदिपर्व-१११/६,

स्कन्दमहापुराण के ब्रह्मोत्तरखण्ड- ३ के प्रथम अध्याय में यह कथा आयी है कि प्राचीनकाल में मथुरानरेश दाशार्ह का विवाह काशीनरेश की कन्या कलावती से हो गया । महाराज ने अपनी पत्नी का अंग बलपूर्वक स्पर्श किया तो उसका देह लौहपिण्ड की भाँति जलता हुआ प्रतीत हुआ । राजा ने कारण पूछा कि तुम्हारा सुकोमल शरीर अग्नि के समान क्यों लग रहा है –

”कथमग्निसमं जातं वपु:पल्लवकोमलम् ?–१/४३,

महारानी ने उत्तर दिया कि बाल्यावस्था में महर्षि दुर्वासा ने मुझ पर कृपा करके पञ्चाक्षरी विद्या ( शिवमन्त्र ) का उपदेश किया था । उस मन्त्र के प्रभाव से मेरे समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ।अत: पापी पुरुष मेरा स्पर्श नहीं कर सकते ।आप नित्य स्नान नहीं करते हैं और कुलटा वेश्याओं का सेवन तथा मदिरापान करते रहते हैं । इसलिए पापपरायण आप मेरे निष्पाप शरीर का स्पर्श नहीं सह सकते । अपनी शुद्धि के लिए महाराज ने पत्नी से पञ्चाक्षरी मन्त्र प्रदान करने की बात कही । तो उन्होंने कहा कि मैं आपको मन्त्र नहीं दे सकती ; क्योंकि आप मेरे पूज्य हैं । आप मन्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि गर्ग को अपना गुरु बनायें —

”नाहं तवोपदेशं वै कुर्यां मम गुरुर्भवान् ।
उपातिष्ठ गुरुं राजन् गर्गं मन्त्रविदाम्वरम् –१/५०,

तत्पश्चात पत्नी के साथ महर्षि गर्ग के चरणों में जाकर महाराज दाशार्ह ने वन्दना की और उनसे मन्त्रदीक्षा ली–

इति सम्भाषमाणौ तौ दम्पती गर्गसन्निधिम् ।
प्राप्य तच्चरणौ मूर्ध्ना ववन्दाते कृताञ्जली ॥–१/५१,
तन्मस्तके करं न्यस्य ददौ मन्त्रं शिवात्मकम् ॥१/५७

पूर्वोक्त इतिहास एवं पुराणों के वचनों से यह सिद्ध होता है कि पति से भिन्न व्यक्ति ही स्त्रियों का दीक्षा गुरु
होता है ।

पतिरेको गुरु: स्त्रीणां का तात्पर्य है कि स्त्री के लिए अन्य सम्बन्धियों की अपेक्षा ”पति ही पूज्य है” ; क्योंकि ननद, सास, ससुर आदि सम्बन्ध पतिमूलक ही हैं । पति की उपेक्षा करके इन सम्बन्धियों से उसका कल्याण कथमपि नहीं हो सकता है ।

  • –#आचार्यसियारामदासनैयायिक

One Reply to “नारी-दीक्षा-विमर्श, कुमारियों एवं विवाहित नारियों की दीक्षा में प्रमाण”

Leave a Reply to Ashutosh jha Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *