पुरुषसूक्त, मन्त्र-५ की विशद हिन्दी व्याख्या
पंचीकरणप्रक्रिया का सुस्पष्ट वर्णन–आचार्य सियारामदास नैयायिक
ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः । स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।५।।
पूर्व मन्त्र में बतलाया गया कि अनिरुद्धाख्य भगवान् चराचर जगत् की सृष्टि हेतु संकल्प किये कि मैं अनेक रूपों में हो जाऊं —-
“सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय” –तैतिरीयअ0-2.व0-2.अनुवाक6म06.
उनके सड़्कल्प के बाद सृष्टि किस प्रकार निर्मित हुई –इस प्रक्रिया को–ततो—इस मन्त्र से दिखला रहे हैं—-
ततः = अनिरुद्ध भगवान् के संकल्प के अनन्तर, विराड् = वि = विविधप्रकारेण = महत्तत्व अहड़्कारादि से लेकर पञ्चीकरण प्रक्रिया से सम्पन्न पञ्च महाभूत अर्थात् पृथिवी पर्यन्त अनेक रूप से , राजते = प्रकाशते = जो दिखायी पड़ रहा है । यही विराट् है। यहां तक की सृष्टि भगवान् के सड़्कल्प मात्र से हुई है । इसी विराट् को हिरण्मय अण्ड भी कहते हैं ।
यहां पञ्चीकरण प्रक्रिया के विषय में कुछ जानना आवश्यक है । ५महाभूतों में प्रत्येक को दो दो भागों में विभक्त कर एक भाग को वैसे ही रखकर दूसरे भाग को भगवान् चार भागों में विभक्त करते हैं। अब आधे आधे जो ५महाभूतों के भाग हैं उनमें उससे भिन्न चार भूतों के एक एक भाग मिलाते हैं । जैसे पृथिवी के अर्ध भाग में जल.अग्नि,वायु और आकाश का एक एक भाग मिला दिये । इसी प्रकार जल, अग्नि ,वायु और आकाश के अर्ध भाग में उनसे भिन्न शेष महाभूतों के एक एक भाग मिला दिये । –
“व्योम्नोऽर्धभागश्चत्वारो वायुतेजःपयोभुवाम् –न्यायसिद्धाञ्जन -ज०प०,
इस प्रकार पञ्चीकरण प्रक्रिया हुई । इसी का नाम वेदान्त अर्थात उपनिषद् त्रिवृतकरण कहते हैं । अब दृश्यमान पञ्चमहाभूतों में जो पृथिवी आदि हैं उनमें आधा आधा भाग पृथिवी
आदि का और एक एक अंश उनसे भिन्न जलादि का है । अर्थात् इस प्रकार पञ्च महाभूतों में पांचो ही मिले हुए हैं । जिसमें जिस भाग की अधिकता है उसका उसी नाम से व्यवहार होता है । जैसे हम सबके शरीर में जलादि की अपेक्षा पार्थिव
अंश अधिक होने से इसे पार्थिव शरीर कहते हैं।
इन पञ्चीकृत भूतादि में भगवान् जिन जिन जीवों को प्रवेश कराते हैं । वे ही इसकी विशेष शक्तियां और अधिष्ठातृदेवता होते हैं । इसलिए पापाक्रान्त होने पर पृथिवी गोरूप धारण करके ब्रह्मा जी के पास गयी –जैसे
वर्णन उसके अधिष्ठातृदेवता का ही संकेत करते हैं ,भूभाग तो यथावत् यहीं रहता है । अब इन्ही पञ्चीकृत महाभूतों
से भगवान् ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं ।
यह ब्रह्माण्ड जल, अग्नि, वायु , आकाश, तामसाहड़्कार, महत्तत्व और अव्यक्त —ऐसे सात तत्त्वों के आवरण से आवृत रहता है। जो क्रमशः एक दूसरे से १० गुना बड़े हैं । अर्थात् जलावरण से १० गुना बड़ा अग्नि का आवरण है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए । यही ब्रह्माण्ड है । जिसे पूर्व में हिरण्मय अण्ड कहा गया है । –
सिसृक्षोरनिरुद्धाख्यादण्डं प्रथममुद्बभौ । अण्डाद्ब्रह्माऽध्यजायत निर्मातुं सकलं जगत् ।। –वाराहपुराण।
यहाँ स्पष्ट हो रहा है कि अनिरुद्ध भगवान् से पहले हिरण्मय अण्ड तत्पश्चात् ब्रह्मा जी की उत्पत्ति होती है–इसी तथ्य का निर्देश विराजो—से किया जा रहा है –विराजः = पूर्वोक्त ब्रह्माण्ड के बाद, पुरुषः = चतुर्मुख ब्रह्मा , अध्यजायत = भगवान् की नाभि कमल से उत्पन्न हुए । यहां अधि उपसर्ग का सम्बन्ध अजायत के साथ है जैसे —नि च देवीं–वासय -श्रीसूक्त मन्त्र में नि का सम्बन्ध वासय से है ।
अब ब्रह्मा जी से सृष्टि कैसे बढ़ी ?-इसका स्पष्टीकरण कर रहे हैं–सी है —–। सः = वे ब्रह्मा जी , जब,
जातः = उत्पन्न हुए तभी , अत्यरिच्यत = भगवान् के निर्देशानुसार तप करके उनसे शक्ति प्राप्त करके सृष्टि कार्य
हेतु बढ़गये अर्थात सक्षम हो गये । पश्चाद् = तत्पश्चात् , उन्होंने , भूमिम् = भूलोकादि 14लोकों की , ( रचना की) .
यहां भूमि शब्द उपलक्षण है जो अपने साथ ही अन्य लोकों का भी बोधक है ।
उपलक्षण–(स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम् उपलक्षणत्वम् ) .
अथो =उसके बाद, उन्होंने ,पुरः = देव मनुष्यादि शरीरों की,रचना उन उन जीवों के कर्मानुसार की ।
जय श्रीराम
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar