वेद के भाग मन्त्र ओर ब्राह्मणग्रन्थ , दयानन्दीयभ्रान्तिगिरि-भङ्ग,पृष्ठ ३
मन्त्र और ब्राह्मणभाग ये दोनों वेद कहे जाते है—इसका खण्डन
स्वामी दयानन्द जी ने महाभाष्य के बल पर करना चाहा जिसकी
धज्जियां उड़ा दी गयी |
इस तीसरे पृष्ठ के द्वारा उनके कथन में महाभाष्य से विरोध
दिखलाकर मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों भागों का वेदत्व
उन्ही के उद्धत सूत्रों के आधार पर सिद्ध करेंगे |
साथ ही साथ व्याकरण के मुनित्रय की सम्मति भी
सप्रमाण दिखलायेंगे |
और इसी की पुष्टि में कुछ सूत्र का प्रस्तुतीकरण होगा
जिससे भविष्य में कोई कुतर्की मिथ्या दुस्साहस न
करे | आइये स्वामी जी की पूर्वोक्त पंक्तियाँ प्रस्तुत
करके विचार करते हैं |
“ द्वितीया ब्राह्मणे—२/३/६०, चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “
—२/३/६२, इत्यष्टाध्याय्यां सूत्राणि | अत्रापि पाणिन्याचार्यैः
वेदब्राह्मणयोर्भेदेनैव प्रतिपादनंकृतमस्ति |यद्यत्र
छन्दोब्राह्मणयोर्वेदसंज्ञाsभीष्टा भवेत्तर्हि
“ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “इत्यत्र छन्दोग्रहणं व्यर्थं स्यात्,
कुतः ? द्वितीया ब्राह्मणेति (१)ब्राह्मणशब्दस्य प्रकृतत्वात् |
अतो विज्ञायते न ब्राह्मणग्रन्थानां वेदसंज्ञाsस्तीति “
—ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका—पृष्ठ-८६,८७,–
स्वामी दयानन्द जी ! आपने कहा कि “ द्वितीया ब्राह्मणे
और चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “ इस प्रकार के अष्टाध्यायी
में २ सूत्र हैं | यहाँ पाणिनि आचार्य ने वेद और ब्राह्मण
इन दोनों का भेदेन—भेदतया ही प्रतिपादन किया है—
“ द्वितीया ब्राह्मणे—२/३/६०, चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “
—२/३/६२, इत्यष्टाध्याय्यां सूत्राणि | अत्रापि पाणिन्याचार्यैः
वेदब्राह्मणयोर्भेदेनैव प्रतिपादनं कृतमस्ति “ |
यहाँ पर भी मैं आपसे पूछना चाहूंगा कि द्वितीय सूत्र में प्रविष्ट
छन्दसि इस सप्तम्यंत पद की प्रकृति छन्दस् का अर्थ आप क्या
ले रहे हैं ? केवल स्वाभिमत मन्त्रभाग रूप वेद ? अथवा
आपस्तम्ब और कात्यायन से अभिमत मन्त्रभाग और
ब्राह्मणभाग–एतदुभयरूप वेद ? यदि प्रथम पक्ष स्वीकार
करें तो महाभाष्य से विरोध होगा क्योंकि उन्होंने
“ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “ सूत्र के अंतर्गत वार्तिककार के
वार्तिक की उपयोगिता दिखाते हुए “ तैत्तिरीय ब्राह्मण “ के
वाक्य को उद्धृत किया है—
या खर्वेण पिबति तस्यै खर्वो जायते—“ इत्यादि |
विचार कीजिये कि जब षष्ठी विधायक सूत्र “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं
छन्दसि “ में आप छन्दसि से केवल मन्त्र भाग रूप वेद लेंगे
तब वह ब्राह्मणभाग में तो प्रवृत्त होगा नही , केवल मन्त्र
भाग ही उसका विषय होगा |
ऐसी स्थिति में सूत्रकार की कमी को दूर करने वाले वार्तिककार
के वार्तिक का विषय भी मात्र मन्त्रभाग का ही प्रयोग होगा |
फिर उस वार्तिक के उदाहरण के रूप में महाभाष्यकार भगवान्
पतंजलि ने “ तैत्तिरीय ब्राह्मण “ के पूर्वोक्त वाक्य को क्यों
रखा ?
“ यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम् “ से तो स्वामी जी आप भी
परिचित ही होंगे ?
महाभाष्यकार ने सूत्र का योगविभाग करके “ तैत्तिरीय
ब्राह्मण “ के प्रयोग की सिद्धि “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “
सूत्र से ही कर दी |
फलितार्थ यह निकला कि जिस छन्दसि शब्द को देखकर
उसे वेद का वाचक मानकर आपने ब्राह्मणभाग के वेदत्व
का खण्डन करना चाहा | उसी वेदार्थक सप्तम्यंत
छन्दसि शब्द के ग्रहण से भगवान् पाणिनि ,
कात्यायन और पतंजलि “ मन्त्र और ब्राह्मण “
भाग को वेद मान रहे हैं—यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध
हो रही है |
स्वामी जी ! देखिये- आपका प्रमाण स्वयं आपके विपरीत
विषवमन कर रहा है | अतः इस विवेचन से आपके द्वारा
प्रस्तुत “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “-२/३/६२, सूत्र के विषय
“ तैत्तिरीय ब्राह्मण “ के उदाहरण से यह सिद्ध हुआ कि
यहाँ छन्दसि शब्द से ब्राह्मणभाग का ग्रहण ब्राह्मणभाग
को वेद सिद्ध करता है |
किन्तु यदि हम इस प्रमाण से छन्दसि से केवल
ब्राह्मणभाग को ही यहाँ लेंगे तो “ छन्दसि “ के
वैयर्थ्य की आपत्ति आ जायेगी क्योंकि इस सूत्र में
ब्राह्मणभाग का कथन करने के लिए पूर्व सूत्र से
ब्राह्मणे की अनुवृत्ति ही पर्याप्त है |
अतः इस आपत्ति से बचने के लिए छन्दसि से
ब्राह्मणभाग की भांति मन्त्र भाग का भी ग्रहण
किया जायेगा |
स्वामी जी आपको भ्रम न हो –इसलिए पाणिनि महर्षि
के कुछ सूत्र आपके सम्मुख रखे जा रहे हैं—भगवान्
पाणिनि जब कोई कार्य केवल मन्त्रभाग में करना
चाहते हैं तब सूत्र में “ मन्त्रे “ बोल देते हैं |जब
ब्राह्मणभाग मात्र में करना चाहते हैं तब “ ब्राह्मणे ”
बोलते हैं |
और जब वे मन्त्र और ब्राह्मण दोनों में विधान करना
चाहते हैं तब सूत्र में “ छन्दसि “ बोल देते हैं |कहीं पर
वे सूत्र में “ छन्दः “ पद से केवल मन्त्र भाग को कहते
हैं | तो कहीं पर वे “ छन्दः “ पद से ब्राह्मणभाग को
भी कहते हैं |
जैसे “ द्वितीया ब्राह्मणे—२/३/ ६०, सूत्र से कर्म में प्राप्त
द्वितीया का विधान केवल ब्राह्मण भाग में होता है ,
मन्त्रभाग में नही | इसलिए यहाँ “ छन्दसि “ न कहकर
“ ब्राह्मणे “ कहे | इसीप्रकार केवल मन्त्रभाग में वे ण्विन्
प्रत्यय कहना चाहते हैं तब मन्त्रे का उच्चारण करते हैं-
“मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो”—३/२/७१, |
जब महर्षि मन्त्र और ब्राह्मण इन दोनों में कार्य का
विधान करते हैं तब मन्त्रे या ब्राह्मणे न कहकर छन्दसि
कहते हैं | जैसे—“ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि ” ,इसका
उदाहरण महाभाष्यकार
द्वारा उद्धृत ”तैत्तिरीय ब्राह्मण” का वाक्य दिखाया जा चुका है-
“ या खर्वेण पिबति तस्यै खर्वो जायते—“ इत्यादि – |
कहीं तो आचार्य पाणिनि मन्त्रभाग को छन्दः शब्द
से कहते हैं—“ छन्दो ब्राह्मणानि च तद्विषयाणि “
—४/२/६, तो कहीं केवल ब्राह्मणभाग को ही छन्दः
शब्द से कहते हैं—“ जुष्टार्पिते च च्छन्दसि “—६/१/२०९,
इन प्रमाणों से यह सिद्ध हुआ कि वेदवाचकतया
प्रसिद्ध छन्दः शब्द का मन्त्रभाग की भांति ब्राह्मणभाग
में प्रयोग तथा “ चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि “—२/३/६२,
सूत्र में वेद के उदहारण रूप में तैत्तिरीय ब्राह्मण का
महाभाष्यकार द्वारा प्रस्तुत किया जाना ” ब्राह्मण भाग “
के वेद होने में सबसे बड़ा प्रमाण है |और इसी की पुष्टि
आपस्तम्ब तथा कात्यायन भी कण्ठतः कर रहे हैं |
स्वामी जी ! आप पाणिनि सूत्र से ब्राह्मणभाग का
अवैदिकत्व सिद्ध न कर सके ,उलटे वे वेद सिद्ध कर
दिए गए |
अतः आर्य समाजियों का मूल ही ध्वस्त हो गया|
उस पर आधारित पूरा का पूरा समाज भ्रान्तिभंवर
में चक्कर काट रहा है | इन्हें पुनः वैदिक सनातन
धारा से जुड़ना होगा |
>>>जय वैदिक सनातन धर्म, जय श्रीराम<<< ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का खण्डन— –#आचार्यसियारामदासनैयायिक

Gaurav Sharma, Haridwar