समाप्त पुनरातत्व काव्य का दोष है | साहित्य दर्पणकार ने
” नाशयन्तो घनध्वान्तं तापयन्तो वियोगिनः | पतन्ति शशिनः पादाः भासयन्तः क्षमातलम् “||
श्लोक में इसे घटाया है |
समाप्त पुनरातत्त्व की परिभाषा है —
” क्रियान्वयेन शान्ताकाङ्क्षस्यविशेष्यवाचकपदस्य विशेषणान्तरान्वयार्थं पुनरनुसन्धानंसमाप्तपुनरातत्त्वम् ||
और इस दोष की आशंका कारिकावली के मंगल श्लोक में की गयी है कि विशेष्य वाचक भवः पद का भवतु क्रिया के साथ अन्वय हो जाने के बाद पुनः लीलाताण्डवपण्डितः इस विशेषणान्तर के साथ अन्वय करने के लिए अनुसन्धान करना पड़ता है ,अतः समाप्त पुनरातत्त्व दोष है |
इसका परिहार यह है कि जहाँ प्रयोजन की आकांक्षा होती है , वहाँ निश्चित ही उत्थिताकांक्षा होने से विशेषण वाचक पदों से हुई आकांक्षा का शामक यदि बाद वाला विशेषण पद हो तो उसके साथ अन्वय हेतु पुनः अनुसन्धान समाप्त पुनरातत्त्व दोष नही कहा जाता |
समाप्त पुनरातत्त्व का अनुगम है —
वाक्यविशिष्टत्वं समाप्तपुनरातत्वं , वैशिष्ट्यं च –स्व तादात्म्य . स्वविशिष्टविशेषणवाचकपदघटितत्वैतदुभयसम्बन्धेन बोध्यम् |
यहाँ स्व पद से वाक्य लेना है;
क्योंकि नियम है कि जिसका वैशिष्ट्य आगे ले जाना हो उसी का स्व पद से ग्रहण होता है—
“ यद्वैशिष्ट्यमग्रे धीयते तदेव स्वपदेन गृह्यते ”|
अब द्वितीय सम्बन्ध में वाक्य का वैशिष्ट्य विशेषणवाचक पद में ले जाने के लिए सम्बन्ध बतलाते हैं—
“स्वघटकविशेष्यवाचकपदावाधिकपूर्वत्वाभाववत्त्व,स्वघटकविशेषणवाचकपद-जन्याकांक्षा- शामकार्थबोधजन कत्वाभाववत्त्वैतदुभयसम्बन्धेन बोध्यम् |
अब “ चूडामणिकृतविधुर्वलयीकृतवासुकिः | भवो भवतु भव्याय लीलाताण्डवपण्डितः ”|| श्लोकात्मक वाक्यमें स्वपद ग्राह्य इस वाक्य का स्वतादात्म्य रूप वैशिष्ट्य इसी में जा रहा है ,और द्वितीय वैशिष्ट्य जो विशेष्य वाचक पद में वाक्य का है , उसे घटाते हैं-
स्व-वाक्य तद्घटकविशेष्य वाचक पद भवः तदवधिकपूर्वत्व –विधुः ,–वासुकिःइन दोनों विशेषणों में है , और तादृशपूर्वत्वाभाव “ लीलाताण्डवपण्डितः ” में है | पुनः स्वघटकविशेषणवाचकपद-चूडामणिकृतविधुः ओर वलयीकृतवासुकिः –इन पदों से जन्य जो आकांक्षा “ किमर्थं विधोः चूड़ामणीकरणं , किमर्थं वासुकेः वलयीकरणम् ” इस आकाङ्क्षा को शमन करने वाले अर्थ “ लीलाताण्डव में पण्डित हैं ” (इसलिए चन्द्र को चूड़ामणि बनाये और वासुकी को वलय)के बोध का जनकत्व लीलाताण्डवपण्डितः में है |
अतः स्व घटक विशेषण वाचक पदजन्याकांक्षाशामकार्थबोध जनकत्वाभाववत्त्व इसमें नही गया | फलतः वाक्य इस सम्बन्ध से वाक्य से विशिष्ट विशेषण वाचक पद नहीं हुआ इसलिए तद्घतितत्व “ चूड़ामणिकृत—लीलाताण्डवपण्डितः” में न जाने से समाप्त पुनरातत्त्वदोष मंगलश्लोक में नही है |
“नासयन्तो घन ध्वान्तं—भासयान्तःक्षमातलम् ” में यह दोष है क्योंकि“ भासयान्तःक्षमातलम् ” इसमें स्वघटक विशेष्यवाचकपदावाधिक पूर्वत्वाभाववत्त्व भी है और विशेषण वाचक पद तापयन्तः इससे उठी आकांक्षा “ क्यों तपा रहा है वियोगियों को-वियोगिनः किमर्थं तापयन्तः?—इसका शामक जो अर्थ उसका बोधजनक भी “ भासयन्तः क्षमा तलम् ” नही है |
अतः तादृश स्व-घटकविशेषणपद-जन्याकांक्षा-शामकार्थबोध-जनकत्वाभाव भासयन्तः क्षमातलम् में चला जाने से उक्त श्लोकात्मक वाक्य से विशिष्ट यह हो गया | अतः एतादृश विशेषण “भासयन्तः क्षमातलम् ” रूप पद घटितत्त्व
“ नासयन्तो घन ध्वान्तं तापयन्तो वियोगिनः | पतन्ति शशिनः पादाःभासयन्तःक्षमा तलम् ” वाक्य में आ जाने से समाप्त पुनरातत्त्व दोष आ गया |
–जय श्रीराम–
#आचार्यसियारामदासनैयायिक

इस लक्षण को घटाने में जो कठिनाई होती थी उसे दूर करने का एक प्रयास है यह । जय राघवेन्द्र