श्रीसूक्त मन्त्र-९ की व्याख्या
ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् | ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ||९||
व्याख्या—
इस ऋचा के द्वारा श्री जी का आवाहन किया जा रहा है | कैसी हैं वे ? गन्धद्वारां—गन्धः द्वारः—प्राप्तिसाधनं यस्याः सा गन्धद्वारा तां गन्धद्वारां, गन्ध शब्द यहाँ श्री जी के आराधानोपयोगी पुष्प,धुप,दीप, नैवेद्य आदि समस्त वस्तुओं का उपलक्षण है | उपलक्षण उसे कहते हैं जो अपना बोध कराते हुए अपने से भिन्न का भी बोध कराये—“ स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वम् उपलक्षणत्वम् ”| अर्थात् गन्ध,पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि आराधन सामग्री जिनकी प्राप्ति में साधन हैं—ऐसी श्री जी |
साधनसामग्री का पूजन में बड़ा महत्त्व है | यदि कोई आराधक अप्रतिष्ठित विग्रह की भी विशिष्ट सामग्रियों से अर्चना करता है तो उस विग्रह में देवत्व का आधान हो जाता है—
“ अर्चकस्य तपोयोगादर्चनस्यातिशायनात् | साम्याच्च प्रतिबिम्बस्य देवो देवत्वमश्नुते ||
दुराधर्षां—सर्वशक्तिमत्तया धर्षयितुमशक्याम् –सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न होने के कारण किसी भी देव दानवादि से जो धर्षित नही की जा सकतीं –ऐसी श्री जी | नित्यपुष्टां—सर्वदा धन धान्यादि समस्त वस्तुओं से पुष्ट, अत एव “ करीषिणीं ” कहा गया | करीष—शुष्क गोबर को कहते हैं—गोविड् गोमयोSस्त्रियाम् | “ तत्तु शुष्कं करीषोSस्त्री ”—अमरकोष२/९/५१, प्रचुरः करीषः अस्ति अस्याः इति करीषिणी तां करीषिणीम् | प्रचुर मात्रा में शुष्क गोबर वाली, मतुप्, इन् आदि प्रत्यय- अधिक,निंदा,प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय,सम्बन्ध और अस्ति—की विवक्षा में होते हैं –
“ भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेSतिशायने | संसर्गेSस्ति विवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ”||
शुष्क गोबर तो तभी होगा जब अधिक मात्रा में गौवें होंगी | वस्तुतः करीष शब्द शुष्क गोबर ( गोमय ) का ही वाचक यहाँ न होकर अन्य पशु भैंस आदि के गोबर का भी उपलक्षण है | शुष्क गोबर वाली कहने से गौ भैंस आदि अनन्त पशुओं वाली श्री जी सिद्ध होती हैं | क्योंकि पशुओं के न होंने पर गोबर कहाँ से आएगा ? “ येन विना यदनुपपन्नं तत्तेनाक्षिप्यते “ न्याय है जो जिसके विना अनुपपन्न है उससे उसकी कल्पना कर ली जाती है जैसे मोटापा भोजन के विना अनुपपन्न है,इसलिए मोटापे से भोजन का आक्षेप (अनुमान ) कर लिया जाता है –यह मोटा देवदत्त दिन में नही खाता है –ऐसा कहने पर विचार उत्पन्न होता है कि मोटापा भोजन के विना तो हो नही सक्ता इसलिए निश्चित है कि यह मोटा देवदत्त रात्रि को अवश्य भोजन करता है –“ पीनोSयं देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते ? चेत् तर्हि रात्रौ अवश्यं सेटकद्वयं भुङ्क्ते | कुतः ? पीनत्वस्य भोजनं विना अनुपपन्नत्वात् , पीनत्वेन रात्रिभोजनं कल्प्यते ” | इसी प्रकार प्रचुर शुष्क गोबर से उनके उत्पादक पशुओं की कल्पना हो जायेगी | अर्थात् श्री जी अनन्त पशुओं की स्वामिनी हैं | इससे यह सूचित हुआ कि आराधक को अधिक पशुओं का लाभ श्री जी की कृपा से शीघ्र ही मिलेगा |
श्री जी केवल अनंत पशुओं की ही स्वामिनी नही हैं अपितु सम्पूर्ण प्राणियों की भी स्वामिनी हैं | इस तथ्य को बतलाने के लिए कहा गया – ईश्वरीं सर्वभूतानां—सर्वेषां—सम्पूर्ण, भूतानां—प्राणियों की, ईश्वरीं –स्वामिनी, हैं | तां—ऐसी, श्रियम्– श्री जी को, इह –इस देश या इस घर में, उपह्वये—मेरे समीप पधारें –इस प्रकार आह्वान करता हूँ |
पुरश्चरण—इस ऋचा का साधक सर्वप्रथम लं बीज से न्यास करके ऋचा के आरम्भ में श्रीं बीज लगाकर कमलगट्टे की माला से १६ लाख जप कर ले तो वह साधक धन धान्य,पशु, प्रभुत्व तथा सुगन्धयुक्त पदार्थों की प्राप्ति के साथ ही संसार में महिमा मंडित भी हो जाता है |–वैखानस विद्या में यह तथ्य निर्दिष्ट है |——जय श्रीराम—
—-आचार्य सियारामदास नैयायिक—

Gaurav Sharma, Haridwar