मननीयं सदा सखे

  1. यो ददाति सदा दु:खं
    सज्जनान् वाथ साधकान्।
    तेन पापेन दुष्टात्मा
    निरयं याति सत्वरम्।।
  2. जो प्राणी सज्जनों अथवा साधकों को सदा दु:खी करता है। वह दुष्टात्मा अपने उसी पाप से शीघ्र ही नरक जाता है।
    –#आचार्यसियारामदासनायिक
  3. 26/11/22
  4. दोषदृष्टिर्यदा द्वेष: स्वजनेषु विजायते।
    पतनस्य समारम्भः स्वान्ते निर्धायतां तदा।।२।।
  5. जब आपकी हितैषियों में दोष-दृष्टि अथवा द्वेष उत्पन्न
    होने लगे। तब हृदय में अपने पतन का आरंभ हो चुका – यह निश्चित कर ले।।२।।
  6. –#आचार्यसियारामदासनायिक
  7. सज्जनेषु यदा रागो विरागोSसज्ज्नेषु च।
    सोपानं समारूढ़: प्रगते: प्रथमं नर: ।।३।।
  8. जब सज्जनों से अनुराग और दुर्जनों से विराग होता है। तब प्रगति के प्रथम सोपान पर चढ़ा गया है- ऐसानी चाहिए।।३।।
  9. –“आचार्यसियारामदासनायिक”
  10.  
  11. 26-11-22
  12. साधना साधिता पूर्वं सोSधुना नैव सक्षम:।
    असमार्थ्यादयं शोक: देहाभिमानमूलक:।।४।।
  13. पहले मैंने साधना की लेकिन इस समय मैं असफल हूं। असमर्थता से होने वाला यह शोक देहभिमानमूलक है। ईश्वर पूर्व में किया अब नहीं कर पा रहा हूँ – ऐसे विचार देहभिमानी को होते हैं। साधक को यह निश्चित करना चाहिए कि मैं देह नहीं हूं। इसलिए मेरा करने न करने से कोई सम्बन्ध नहीं है।
  14. –#आचार्यसियारामदासनायिक

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