दुर्गासप्तशती पाठ की प्रामाणिक परम्परा

सप्तशती पाठ कैसे करें ? क्योंकि वह कीलित है ।
–यहाँ जो विशेष ग्रन्थ और साधकों के अनुभव हैं–उनके आधार पर लिखा जा रहा है ।
सप्तशती पाठ कैसे करें ? क्योंकि वह कीलित है । अतः शापोद्धार और उत्कीलन आवश्यक है । सप्तशतीसर्वस्व और कात्यायनी तंत्र में इस विषय का विशेष विवेचन किया गया है वहाँ शापोद्धार मन्त्र -ओंह्रीं-कुरु स्वाहा ,तथा 
उत्कीलन मन्त्र –ओं श्रीं—स्वाहा का क्रमशः जप कहा गया है ।
 
किन्तु कुछ लोग उत्कीलन तथा शापोद्धार के विना पाठ करते हैं उन्हें लाभ होगा या नहीं ? –इस प्रकारका प्रश्न प्रायः लोग करते रहते हैं । इस विषय में गीता प्रेस के विद्वानों की सम्मति क्या है इसे उनकी सप्तशती की पुस्तक से जान सकते हैं ।
 
यहाँ जो विशेष ग्रन्थ और साधकों के अनुभव है उनके आधार पर लिखा जा रहा है । अनुष्ठान प्रकाश के अनुसार ओं का उच्चारण करके कवच अर्गला कीलक पढकर चंडी पाठ का विधान बतलाया गया है—पृष्ठ २१८ ,
यहाँ शापोद्धार एवं उत्कीलन कि चर्चा नहीं है !
 
हमारे विश्वविद्यालय में व्याकरण पीठाध्यक्ष श्रीबद्रीप्रसादप्रपूरणा जी जो कि ९५ वर्ष के हो चुके है वे बताए कि उनकी परम्परा में भी शापोद्धार एवं उत्कीलन नहीं है । वे कहते हैं कि वैदिक परंपरा के अनुसार इसकी कोई आवश्यकता नहीं 
है । ब्रह्मगायत्री जप में भी मुद्रा एवं शाप विमोचन अनिवार्य नहीं है । जो करते है वे लोग तांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रहे है । परमात्मा को कोई शापित कर सके-यह सामर्थ्य किसी में नहीं है !
 
भृगु जी ने विष्णु भगवान को शाप दिया और उन्होंने स्वीकार नहीं किया तो उनकी आराधना करके भृगु जी भगवान से शाप स्वीकार करने का वर मांगे । अतः शाप के असम्भव होने से शापोद्धार की आवश्यकता नहीं है !
 
प्रपूरणा जी मुझे बतलाये कि जब वे ८० वर्ष पूर्व काशी में पढ़ रहे थे तो उनके व्याकरण के गुरुदेव मैथिल श्री श्रीकान्तझा जी जो बंगाल के थे वे प्रतिदिन सप्तशती के मात्र १३ अध्यायों का ही पाठ करते थे । शापोद्धार और उत्कीलन की बात क्या, वे तो कवच अर्गला और कीलक भी नहीं करते थे । और उन्हें सप्तशती ऐसी सिद्ध थी कि जब वे सप्तशती के
 
“गर्ज गर्ज क्षणं मूढ़ मधु यावत् पिबाम्यहम् —“अ03/38,
 
इस मन्त्र का उच्चारण करते समय भगवती के सामने मधु (शहद) की धारा गिराने लगते थे उस समय अग्नि स्वयं प्रकट हो जाती थी और उसके द्वारा मधु को जगदम्बिका भगवती स्वयं ग्रहण करती थीं । और मन्त्र के अंतिम शब्द देवताः का जब उच्चारण समाप्त करते थे तब अग्नि देव भी अंतर्धान हो जाते थे । इस प्रकार यह कार्य वे पाठ के बीच में प्रतिदिन करते थे । उन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं । प्रपूरणा जी अभी भी विश्वविद्यालय में मेरे आवास के पास ही रहते है । 
( दुःख है इस समय महान् विद्वान् और साधक प्रपूरणा जी हमारे बीच में नहीं हैं वे गोलोकवासी हो चुके हैं लगभग 4
वर्ष पूर्व )
 
-इससे यह निष्कर्ष निकला कि सप्तशती का पाठ शापोद्धार और उत्कीलन के विना भी सिद्धिप्रद है ।
 
देवी भागवत में सुस्पष्ट कहा गया है कि नवरात्र व्रत परायण व्यक्ति केवल तीनो चरित्रों का पाठ करे और भगवती का विसर्जन करे –
 
चरित्रत्रयपाठं च नित्यं कुर्याद् विसर्जयेत् |
-देवी भागवत-५/३४/१२,
 
किन्तु जो जिस परम्परा से जो पद्धति प्राप्त कर चुका है उसे उसी का पालन अनिवार्य है । निष्काम या सकाम भाव से केवल 13 अध्यायों का पाठ निर्भीक और निःशंक होकर कर सकते हैं । 
 
यह तथ्य अनुभव और देवी भागवत के प्रमाण के आधार पर दिखलाया जा चूका है ।
 
जय मातःदुर्गे -जय श्रीराम-
 
#आचार्यसियारामदसनैयायिक

3 Replies to “दुर्गासप्तशती पाठ की प्रामाणिक परम्परा

  1. श्री दुर्गासप्तशती के सम्बन्ध में बहुत बहुत उत्तम जानकारी दी आपने, आपका आभार।

    इस सम्बंधित विषय पर आपसे वीडियो बनाने का निवेदन है जिसमे अन्य गोपनीय जानकारी दी जाए। साधक जगत को बहुत लाभ होगा।

    सादर प्रणाम।

    1. प्रसन्न रहें गौरव जी । समय मिलने पर भगवत्कृपा से यह कार्य अवश्य होगा । जय श्रीराम

  2. प्रपूर्णा जी का लगभग ४ वर्ष पूर्व गोलोकवास हो चुका है । उन्हें कोटि कोटि नमन

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